जिनको देखना चाहिए हम उन्हें नहीं देखते और जिन्हें नहीं देखना चाहिए- उन्हें हम बार-बार नहीं बल्कि हजार बार देखते हैं और जी भर कर देखते हैं। जैसे सब अपना- अपना राष्ट्रवाद लहरा रहे हैं क्योंकि उनके राष्ट्रवाद को कोई देखता नहीं। हाँ, राष्ट्रवाद इससे बजता है। राष्ट्रवादी बहुत हैं? हाँ, यदि उसमें बहुसंख्यकता मिल गई तो वे क्या करें? यह तो होना ही था? यह उसी तरह है जैसे जे पी आंदोलन के साथ वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यपंथी सब मिल- मुला गए थे। जे पी तो चले गए इस धरा धाम को छोड़कर। पूरा वातावरण दक्षिणपंथी होते -होते बच गया। दक्षिणपंथ में वह ताक़त है कि वह सबको हजम कर लिया करता है। दक्षिणपंथी मनोविज्ञान का हाजमा बहुत अच्छा है। जानकार बताते हैं कि जो उनके साथ रहेगा उसे उन्हें हजम करना ही है। यह उनकी परम उपलब्धि वाली विशेषता है। पीडीपी इसका सबसे बड़ा और उत्तम उदाहरण है। अकाली दल चित्त है। अब नीतीश के दल की बारी है। वे चाहे जितने पैंतरे बदले। चाहे जितने ज्यादा ठिकाने तलाशें? अंत में उन्हें हजम होना ही पड़ेगा? उन्हें छट्ठी का दूध भी याद आ जाएगा? पैदा होने के पूर्व तक की यादें शंखनाद करते हुए आएंगी।
शिवसेना हज़म होते- होते रह गई। समय रहते अलग हो गई;इसलिए बच – बुचा गई। वे खिलाड़ी हैं कोई अनाड़ी नहीं? खेलत में को काको गुसइयां। गिरने का कोई ठीक- ठीक शास्त्र अभी तक विकसित नहीं हो पाया? बन जाना इतना आसान भी नहीं होता? हरिशंकर परसाई पहले ही कह गए हैं- “गिरने के बड़े फायदे हैं। पतन से न मोच आती न फ्रैक्चर होता। कितने ही लोग मैंने कितने ही क्षेत्रों में देखे हैं, जो मौका देखकर एकदम आड़े हो जाते हैं। न उन्हें मोच आती, न उनकी हड्डी टूटती। सिर्फ़ धूल लग जाती है, पर यह धूल कपड़ों में लगती है, आत्मा में नहीं। “
जल्दी विश्वास नहीं होता? कौन कब कहाँ और किस शक्ल में गिर जाएगा? बड़े- बड़े गिर गए। समाजवादी गिरे। कुछ होशियार चंद भी तरह- तरह की बातें बघारते हुए चल बसे? कौन कब गिर पड़े? लोग गिर कर भी लहरिया मारते हैं और न जाने क्या- क्या ख़ोज रहे हैं। क्या ठिकाना? लोग थोक में यानी बड़ी संख्या में भरभरा जाते हैं। लोग जिनके गिरने का अभी तक विश्वास नहीं बना पाए, लेकिन वही लोग धड़ाधड़ गिर रहे हैं? जो स्वार्थ सिद्धांतों में रहेगा वह गिर ही जाएगा। उसका गिरना अटल सत्य की तरह है? सिद्धान्त सिद्धांत के लिए होते हैं, मानने और पालने के लिए नहीं? अब तो व्यवहार में गिरने की होड़ है। बड़े- बड़े राजे- महाराजे गिर लिए। गिरने में कौन सी ऐसी शर्म है जिसके लिए पछताना पड़े। राष्ट्रवाद हमारे पीछे पड़ा है? जिसको सत्ता फंसा लेगी। बार -बार धमकी देगी। उनका गिरना सुनिश्चित है? न गिरेगा तो कोई न कोई चार्ज लगाकर धांध दिया जाएगा? गिरना तो पड़ेगा ही? गिरने से बचा ही नहीं जा सकता? महाराजाओं की अकड़ तक फुस्स हो गई।
राष्ट्रवाद की चीख- चिल्लाहट फैली है। राष्ट्रवाद का खेल कोई छोटा मोटा खेल नहीं है जी। कहीं भी कुछ भी राष्ट्रवाद के नाम पर कर डालो। सब चलेबुल है। चुनाव में इस्तेमाल करो? राष्ट्रवाद, देशवाद, बहुप्रतीक्षित- बहुआयामी बहुसंख्यकवाद, तथाकथित संस्कृतिवाद और संप्रदायवाद किसी को भी औंधा कर दिया करता है? शपथ लेकर राष्ट्रवाद आता है और विकास के राजमार्ग पर कुछ भी कर बैठता है? विकास है कि हंसी- ठठ्ठा। विकासवाद और राष्ट्रवाद का जुड़वा भाई परम प्रतापी भ्रष्टाचारवाद है। भ्रष्टाचार के मज़े ही कुछ और हैं? उस चितवन का क्या कहना? राष्ट्रवाद के नाम पर बड़ी-बड़ी पार्टियां ऊंचे मचानों तक पहुंच गई? वहाँ आपको कई और चीजें आराम फरमाते हुए मिल जाएंगी। बाबा, वैरागी, साधु-संत तरह-तरह का घोंटा लगाने में जुट हुए मिलेंगे? इसी में हिटलर की आत्मा भी जलवा नशीन है? बलात्कार – तानाशाही, हत्याएं, तड़ीपार इरादे, मॉबलिंचिग के तमाम पट खुल गए हैं?
राष्ट्रवाद में एक तरह का उफान होता हैऔर परम उपलब्धि हासिल करने के लिए वहाँ पवित्रता का आक्रामक अंदाज में हाँका भी पड़ता है? यही नहीं उसके ऊपर तानाशाही, गुंडागर्दी, किसी को चुटकियों में मसल देने के इरादे चढ़ बैठा करते हैं? इसलिए राष्ट्रवाद और तानाशाही मनोविज्ञान से किसी को यूं ही नहीं उलझना चाहिए? जो उलझा वह गया काम से। वह इस धरा धाम से भी जा सकता है?
जो उलझेगा, उसको मुंह की खानी पड़ेगी? जो भी उलझे तैयारी से उलझे? उसके टूटन के तमाम सूत्र वहीं मुस्तैदी से टहलते हुए आपको मिल जाएंगे। एक कविता का अंश पढ़ें-“इतना राष्ट्रवाद है कि किसी से /क्षमा -याचना नहीं की जा सकती/ इस प्रदूषण में साफ हवा बची है/ केवल चेंबर ऑफ कॉमर्स में /उड़ती हुई धूल ने नष्ट कर दी है धूप की प्रसन्नता/एक मुठ्ठी मृदा परीक्षण में मिला है/ छः किसानों का रक्त /आक्रामक चापलूसी को मीडिया ने बना दिया है प्रतियोगिता/ यह नैतिकता है जो परेशान करती है /और क्रोध दिलाती है /” (कुमार अंबुज)
जहाँ देखिए वहाँ वाह-वाह, वाह-वाह श्रीमान जी! वाह-वाह की समवेत ध्वनि सुनाई पड़ेगी? हम ऐसे दौर में आ गए हैं जिसमें हाँ -हुज़ूर है। प्रसन्नता के पिरामिड कल्पना लोक में घूम रहे हैं? हा- हा, हा और हा -हा निकल रही है? वाह -वाह, वाह- वाह तुम्हारी भी जयजय सरकार। तुम्हारी भी जय जय तड़ीपार? तुम्हारी भी जय जय झांसावीर! तुम्हारी भी जय जय जय हो असली भारत भाग्य विधाता!! समूचा देश आंसुओं से तरबतर है। महंगाई से मालामाल है। बेरोजगारी के खिलाफ रोजगार की मार्कटिंग की असीम संभावनाएं चल रही है? टहल रही है हत्याएं। इंसानी फितरत, झूठ, हिंसा, सनसनी भांजी जा रही है? यह हमारा राजकाज है और अच्छा खासा लोकप्रिय भी है। और नगरों में तमाम तरह की योजनाओं परियोजनाओं की उत्सवी यात्राएं निकाली जा रही हैं? यात्राओं से सब काम पुख़्ता हो जाया करते हैं?
विपक्ष लहूलुहान हो कर तपस्या कर रहा है या अपने ही तरह के अन्य दलों को सुपारी देकर ठुंकवा रहा है? राष्ट्रवाद हमारी आंखों की पुतली है? उस पुतली से हम समूची दुनिया देख रहे हैं? वह लक्ष्य की आंख है उसके लिए देवकुंड का कोई मतलब नहीं? भीड़ का ध्वनियों का इस पुतली में समाया हुआ वितान लहरिया मार रहा है। पलकों में हमारी खुशहाली दौड़ लगा रही है। जब अच्छे दिन आते हैं तो रामराज उतर कर पुचकार के साथ थपकियां देने लगता है लोरी की शक्ल में। सभी चीजें एक ओर को सरका दी जाती हैं? और राष्ट्रवाद सब पर सवारी गांठ लेता है? सारी सिद्धियां राष्ट्रवाद के आगे पानी भरती हैं? पसीना बह रहा है रक्त की पिचकारी चल रही है। कंठ मुरझा रहे हैं? राष्ट्रवाद की आंखों में एक बहुत बड़ा गोला घूम रहा है? उस गोले में न कोई भूख है न कोई शिक्षा है न कोई स्वास्थ्य है न बेरोजगारीऔर न ही कोई लाचारी है -है तो सिर्फ दहाड़ता हुआ राष्ट्रवाद। सुन भाई सुन राष्ट्रवाद में बड़े-बड़े गुण। राष्ट्रवाद हमारा जादू टोना भी है। इससे किसी की नज़र उतारी जा सकती है या झारी जा सकती है? किसी को ठिकाने भी लगाया जा सकता है?
आज के दौर में पढ़ना अति विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण काम है। पढ़ना -पढ़ना सब कहें पढ़ना हंसी न खेल। फिर भी लोग पढ़ते हैं तो यह बहुत बड़ी बात है। आभार के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता। दरअसल सब बिंदु नहीं उठ पाते? बिंदुओं की कांखनें छूट जाती हैं। डर के कारण वे बैठान पकड़ लेते हैं। सुझाव पर अमल करना चाहिए? अन्ना हजारे तो उस समय गांधी जी की खड़ाऊ लेकर आए थे। वह खड़ाऊ लेकर कोई भाग गया, तथाकथित गौड़से ही होगा, अब अन्नाजी चित्त पड़े हैं और उनके पास करने को कुछ नहीं है? इनको भी राष्ट्रप्रेम का वायरस ही समझिए। भरत जी ने राम जी की खड़ाऊ पर राजपाट चलाया? अच्छा ही चलाया उन्होंने बिना किसी दिक्कत के? योगगुरु तो सिंहासन बत्तीसी के पूरे धुरे हैं। उद्योगपतियों के कान काटने वाले। योग से और योगियों से सत्ताएं छलकती हैं और न जाने क्या- क्या छलका रहीं हैं। अन्ना की चुप्पी सत्ता के सिंहासन की ध्वजा- पताका है। योग सत्ता का पूरी तरह से अमरफल है? योग का अनुलोम- विलोम, कपालभाती का धूम -धड़ाका और अन्ना की चुप्पी सत्ता के आधे अधूरे को लगभग पूरा बनाता है। सत्ता की मुट्ठी में मंदिर का गुणनफल है और बाकी तो भाजक-भाज्य के साथ शेष या अवशेष है। क्रूरता के एलजबरा से कुछ भी हो सकता है। महान भारत के स्वयंभू इतिहास के दो चमकते सितारे भारत में तिरपट गति से भागे जा रहे हैं -एक काले धन के एक्सपर्ट निर्माता-निर्देशक और दूसरे सन्यासी और महंत उनका चिमटा कुछ भी करने को आमादा है।
चिंता नहीं करनी चाहिए। जब सत्ता दूकान में बदलती है तो क्रिकेट की तरह चौके- छक्के जड़े जाते हैं तो बड़ा से बड़ा मैच आसान और एकदम खास हो उठता है। इसे मैच फ़िक्सिंग कहकर टें टें न कीजिए। अभी तो मैच चालू आहे। हिसाब- किताब लेना तो इतिहास का काम है। लेता रहेगा। किसी को जजमेंटल नहीं होना चाहिए और कोई आख़िर हो ही क्यों?
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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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