{Featured in IMDb Critics Reviews}
लेखक, निर्देशक – जैग़म इमाम
स्टार कास्ट – इमामुल हक़, कुमुद मिश्रा, शारिब हाशमी, राजेश शर्मा, सिद्धार्थ भारद्वाज
एक मुस्लिम आदमी जो हिंदुओं के मंदिरों में देवताओं की मूर्तियां बनाता है। केवल वही नहीं बल्कि उसके बाप-दादा भी यही काम करते आ रहे हैं। अब अचानक बनारस के जिन मंदिरों में वह मूर्तियां बना रहा है वहां अचानक हम और वे का मुद्दा गर्म होने लगता है। हम यानी हिन्दू और वे मतलब मुस्लिम। कुछ लोगों को आपत्ति है कि मुस्लिम होकर हिंदुओं के मंदिर जाता है। और आपत्ति करने वाले हिन्दू मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग हैं इसमें। मूर्तियां बनाता है, काफ़िर है यह तो। इस वजह से उसके बच्चे को मदरसे में पढ़ने भी नहीं दिया जाता। बच्चा बीमार पड़ता है तो उसे अपनी उस बीवी की बातें याद आती है जो कभी उसे छोड़ गई थी। अब क्या होगा उस अल्ला रक्खा सिद्दकी का। जो मंदिर में जाने से पहले तिलक लगाता है वेश बदलता है और अपनी दो जून की रोटी का जुगाड़ कर रहा है। मंदिर का पुजारी भी उसके पक्ष में है तभी वह मंदिर का सोना भी उसे देता है वह उसे पिघलाकर मूर्तियों पर चढ़ाता है। काम और मजहब के बीच में से अब वह किसे चुनेगा इसे जानने के लिए आपको यह फ़िल्म देखनी होगी। जो आपसी सौहार्द के साथ-साथ उपजने वाली नफरतों को भी नेक नियति और ईमानदारी से दिखाती है।
मनुष्यता की नियति यही है कि इसे बचाने के लिए जोख़िम उठाने पड़ेंगे। आवश्यकता पड़ने पर जान भी दांव पर लगानी पड़ सकती है। आपसी सद्भाव समाप्त हो रहा है। मनुष्य का मनुष्य पर से विश्वास उठ रहा है। ऐसे में यदि रूप बदलकर काम करना पड़े तो क्या हर्ज है? आप अपनी थाली में आए अन्न को जांचकर खाते हो कि इसे हिन्दू ने उठाया है या मुस्लिम ने? इस तरह के संवाद फ़िल्म को तर्कसंगत, तर्कसम्मत आईना प्रदान करते नजर आते हैं।वहीं दूसरी ओर बाबा ये किसका घर है? ये भगवान का। भगवान कौन है? अल्लाह मियां के भाई। भगवान यहां खुद रहेंगे? वो तो अभी भी रहते हैं। या अल्लाह कितने अच्छे भगवान हैं! अल्लाह और भगवान अच्छे ही होते हैं। इस तरह के मासूमियत भरे सवालों का जवाब देते हुए पिता के मुंह से भी सहृदयता तथा निश्छलता झलकती दिखाई देती है।
अल्ला रक्खा सिद्दकी के किरदार में इनामुलहक फ़िल्म के हर रंग में किरदार में रंग जमाते हैं। वेदांती जी बने कुमुद मिश्रा, पुलिस इंस्पेक्टर राजेश शर्मा भी अपने सिनेमाई कर्म क्षेत्र में सफल नजर आते हैं। फ़िल्म लेखन में तथा निर्देशन में कसी हुई नजर आती है। एक दो चूक को छोड़कर। कुछ दृश्य तो बेहद ही प्रभावी और देखने मे अच्छे लगते हैं। एडिटिंग के मामले में प्रकाश झा की एडिटिंग इस फ़िल्म में निखार लाती है। अमन पंत का म्यूजिक और असित बिस्वास की सिनेमेटोग्राफी मिलकर फ़िल्म को दर्शनीय बनाते हैं। दो धर्म विशेष पर बनी इस फ़िल्म को बिना किसी धार्मिक मदांधता का तथा पूर्वाग्रहों का शिकार हुए बिना देखी जानी चाहिए। ऐसी फिल्में खास करके नास्तिक लोगों को या उन लोगों को पसंद आएंगी जो किसी भी धर्म को नहीं मानते क्योंकि इसमें धर्म से कहीं ज्यादा मनुष्यता की बातें नजर आती हैं।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार
Review Overview
Description
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com

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