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स्त्री अस्मिता का महत्वपूर्ण ‘सिग्नेचर’
26 फरवरी 2022 को यूट्यूब पर एक 23 मिनट की शॉर्ट फिल्म रीलीज़ हुई है ‘सिग्नेचर’, जिसमें स्त्री शिक्षा के महत्व को एक छोटी बच्ची के प्रयासों से बताने का सुंदर चित्रण है, जो अपनी माँ को शिक्षित करने के लिए अपने तरीके निकालती है, क्योंकि वह जानती है कि माँ स्कूल कैसे जायेगी लेकिन उसे इस बात की भी पीड़ा है कि माँ को लिखना नहीं आता। अतः वह माँ को पढ़ाने का बीड़ा उठाती है। हमारे हिन्दी सिनेमा में स्त्री सशक्तिकरण को लेकर कई महत्वपूर्ण विषयों पर फिल्में बनती रही हैं, लेकिन ‘स्त्री-शिक्षा’ और उसके महत्व को केंद्र बनाकर फिल्में खोजने लगी तो प्रतिशत अत्यंत अल्प है, हमें निराश होना पड़ा।
हिन्दी सिनेमा पितृसत्तात्मक चरित्र का पक्षधर रहा है, बल्कि बढ़ावा देते रहा है, हम देखेंगे नायक हमेशा विदेशों से पढ़ कर आ रहे हैं, हीरोइन अगर कॉलेज पढ़ भी रही है तो उसका काम इतना ही है कि वह नायक के साथ गीत गाएगी और फिर अंत में उसके साथ उसकी शादी हो जाएगी, लेकिन शिक्षा के बाद करियर किसका बनेगा, कौन आगे बढ़ेगा? जबकि वह नायिका अपनी शिक्षा का किस रूप में प्रयोग कर रही है, इस पर कोई कथा आगे नहीं बढ़ती क्योंकि उस क्षेत्र पर तो पुरुष का कब्जा रहा है।
80 के दशक में साक्षरता अभियान के तहत एक सरकारी विज्ञापन बार-बार आया करता था, जिसमें एक मजदूर महिला को जब पारिश्रमिक मिलना होता है तो वह अँगूठा लगाती है, लेकिन वह संतुष्ट नहीं होती क्योंकि उसे कम पैसा मिल रहा है फिर वह साक्षर होने के बाद जब अपना नाम लिखती है ‘क-म-ला’ यानी कमला और फिर अपने पैसे गिनती है, जो उसके साक्षर होने के कारण संभव हो पाया। महिला होने के कारण उसे पूरा पारिश्रमिक मिल रहा है या नहीं इसके प्रति वो अब जागरूक है यानी स्त्री शिक्षा उसे उसके अधिकारों के प्रति सचेत करती है। आर्थिक स्वतंत्रता के बावज़ूद स्त्री अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती इसलिए शिक्षा जरूरी है।
पीयूष मिश्रा की दमदार आवाज़ और सवित्री बाई फूले जी के कथन के साथ फिल्म का आरम्भ होता है “हमारे जानी दुश्मन का नाम है अज्ञान, उसे धर दबोचो, मजबूत पकड़कर पीटो और उसे जीवन से भगा दो” हम जानतें हैं कि जिस युग में भारत में लड़कियों को पढ़ाना पाप सामान माना जाता था, तब 1848 महाराष्ट्र के पुणे में सावित्रीबाई फुले जी ने ही भारत के पहला ‘बालिका स्कूल’ आरम्भ किया। संसाधनों के अभाव में भी उन्होंने फ़ातिमा शेख के सहयोग से 18 स्कूलों का निर्माण किया जहाँ सभी जातियों की बालिकाओं के लिए शिक्षा की सुविधा थी।
विश्व गुरु का दावा रखने वाला हमारा भारतवर्ष, आज आज़ादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, अमृत महोत्सव की ओर हमारे बढ़ते कदम स्त्री शिक्षा को लेकर कितने सचेत है यह विषय आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि 1848 में था। हाल ही में जब कर्नाटक में लड़कियों को शिक्षा संस्थानों में न जाने देने के लिए, हिजाब को बहाना बनाया जाता है तो हम क्यों न मान लें कि शिक्षा को आज भी स्त्रियों की प्राथमिक ज़रूरत में नहीं माना जाता। सिग्नेचर फिल्म शिक्षा के उस पक्ष की ओर भी संकेत करती है कि शिक्षा संस्थानों से इतर आप घर से भी इसकी शुरुआत कर सकतें है। बहुत समय पहले टीवी पर एक महिला का साक्षात्कार देखा था जो सिंगल मदर थी और पैसो के अभाव में अपनी लड़कियों को घर में ही शिक्षा देती है, दसवीं और बारहवीं के बोर्ड का पेपर भी दूरस्थ शिक्षा से दिलवाती है जो उच्च शिक्षा के लिए अनिवार्य है। यानी आप कहीं भी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।
1975 से ‘8 मार्च’ विश्व महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है लेकिन महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष इसके बहुत पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में, रूस की क्रांति से मताधिकार के साथ शुरू कर दिया था पर यह भी सत्य है कि हम साक्षर और शिक्षित होंगे तभी अपने अधिकारों के प्रति सचेत होंगे और उनका प्रयोग कर पायेंगे। शिक्षा के अभाव में आज भी स्त्रियाँ अपने अधिकारों को नजान पाती है, न ही उनमें वह आत्मविश्वास और आत्मबल आ पाता है जो किसी भी शिक्षित पुरुष या स्त्री में दिखाई देता है। शिक्षा के स्वाभिमान और अस्मिता के महत्वपूर्ण पक्ष को लेखक व निर्देशक अंकित अग्रवाल ने बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।
पहले दृश्य में एक दीवार पर लिखा है ‘यहाँ बैठना मना है’ लेकिन एक महिला बैठी है क्योंकि वह पढ़ना नहीं जानती, हालांकि ये अलग तथ्य है कि हम अक्सर निषिद्ध बातों को करना चाहतें हैं अथवा जाने- अनजाने मनुष्य का स्वभाव ही है कि वह नियमों को फ़ॉलो करने के लिए नहीं बना खैर! दीवार पर ‘अनाड़ी’ फिल्म का पोस्टर भी इसी ओर इंगित कर रहा है कि जो पढ़ेंगे नहीं वो अनाड़ी कहलाएंगे।
यह लता है जो अपनी बेटी यशस्वी को स्कूल लेने आई है, सिलाई का काम कर कुछ कमाती है, पेन और पेंसिल में क्या फर्क होता है उसे नहीं पता, बेटी के पूछने पर वह झेंप मिटाने को कहती है ‘मुझसे नहीं अपनी मैडम से पूछो’ अगले दिन मास्टर बताते हैं कि पेन से लिखा मिट नहीं सकता जबकि पेंसिल से लिखा मिट सकता है, इसलिए बच्चों को पेन्सिल से लिखने को कहा जाता है क्योंकि उनमें गलतियाँ करने की संभावना ज्यादा होती हैं जो सुधर भी जाती हैं, यह संवाद भी इस ओर संकेत कर रहा है कि ‘अँगूठा छाप’ जो नीले रंग की स्याही से लगाया जाता है वह कभी नहीं मिटता लेकिन छोटी बच्ची की जिद और उसका आत्मविश्वास इस बात को झुठला देता है और वह अपनी माँ को पढ़ाने का दृढ़ निश्चय करती है। दीवार पर लगी आर्मी ड्रेस वाली फोटो से पता चलता है, बच्ची के पिता शहीद सैनिक हैं।
जब डाक घर में माँ सिग्नेचर के स्थान पर अँगूठा लगाती है तो उसे आश्चर्य होता है और बुरा लगता है। फिर जब वह क्लास में प्रथम आती है तो उसे माँ के द्वारा सिग्नचर करने जिद से फिल्म का वास्तविक उद्देश्य आरम्भ होता है वह कहती है कि मुझे अंगूंठा नहीं, सिग्नेचर ही चाहिए!! और फिर वह किन- किन तरीकों से माँ को लिखना-पढ़ना सिखाती है यह अत्यंत दिलचस्प है, इसके लिए आपको फिल्म ही देखनी चाहिए।
एक फिल्म आई थी ‘निल बट्टे सन्नाटा’ जिसमें एक कामवाली बाई अपनी बेटी को प्रोत्साहित करते के लिए दसवीं कक्षा में दाखिला लेती है, पर कॉमेडी का तड़का फिल्म को मूल उद्देश्य से भटका गया, इसके पूर्व इंग्लिश विन्ग्लिश फिल्म भी आई थी, जो हिन्दी के प्रति हीन भावना को ख़त्म करने का एकमात्र समाधान अंग्रेजी ज्ञान को बताती है, जो बहुत प्रभावशाली नहीं है। 1962 में माला सिन्हा की फिल्म आई थी ‘अनपढ़’ जो वास्तव में स्त्री शिक्षा की पक्षधर थी लेकिन उसके अतिरिक्त हमें स्त्री शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित करने वाली फिल्में नहीं दिखाई देती। एक मासूम लेकिन दृढ़ संकल्प लिए ‘सिग्नेचर’ फिल्म दर्शाती है कि “बेटियां बदलेंगी तो माँ के संस्करण भी बदलेंगे” शिक्षा वो औजार है जो दुनिया का स्वरुप बदल आपके मार्ग को रोशन करेगा।
आरम्भ में ‘यहाँ बैठना मना है’ यही बताता है कि अब बैठे रहने से काम नहीं चलने वाला यानी उठो, आगे बढ़ो, कर्मठ बनो अपना मार्ग स्वयं बनाओ तभी आपकी पहचान और अस्मिता को दुनिया स्वीकार करेगी। 9 दिन में इसके 102,695 व्यू हो चुके थे,इसकी प्रशंसा में 310 कमेंट आ चुके थे, जो इसकी सफलता का सूचक है। यह बताते हुए मुझे हर्ष हो रहा है कि इस फिल्म का लिंक मुझे मेरी एक छात्रा ने व्हाट्सएप पर भेजा, जो वास्तव में शिक्षा के प्रति लड़कियों की जागरूकता की ओर इंगित करता है।
लघु फिल्मों की यही विशेषता भी होती है कि उनके प्रचार प्रसार के लिए हमें अलग से खर्चा नहीं करना होता इसलिए कला और उद्देश्य से कोई समझौता नहीं करना पड़ता और साहित्य कि भांति सामाजिक सरोकार अपने बेहतरीन स्वरुप में उभर कर आतें हैं। सिंगल मदर लता के रूप में प्रतिभा विश्वकर्मा ने बहुत सहज और सधा हुआ अभिनय किया है और उसकी बेटी यशस्वी यानी आर्या चौधरी की भाव भंगिमा और अभिनय क्षमता नोटिस करने योग्य है। लिंक दिया है आप फिल्म जरूर देंखें। “विमेंस डे” मनाने का एक बेहतरीन विकल्प है यह फिल्म देखना और दिखाना। मैं तो समझती हूँ इस फिल्म की स्क्रीनिंग विद्यालयों व महाविद्यालयों में की जानी चाहिए।