समाजशास्त्रियों ने किसी भी राष्ट्र की तरक्की और विकास के लिए कुछ मानक तय किये हैं। जैसे जनसंख्या की स्थिति, गरीबी का स्त्तर, आर्थिक विकास, कृषिगत विकास, भूमि सुधार, स्वास्थ्य सेवाओं की आपूर्ति, खाद्यान्न उत्पादन, औद्योगिकरण एवं शिक्षा में सुधार इत्यादि उपरोक्त कसौटियों में क्रमिक विकास के मद्देनजर ही किसी भी समाज एवं देश में बदलाव संभव है। इनकी बेहतरी के बगैर राज्य का विकास अवरूद्व तो होगा ही साथ ही यहाँ रहने वाले लोगों के जीवन स्तर में सुधार की कल्पना कभी साकार नहीं होगी। उपरोक्त तमाम कसौटियों में शिक्षा में सुधार एक ऐसा मानक है जो देश की तरक्की का इससे सीधा सम्बन्ध होता है।
शिक्षा को देश के विकास का मेरूदंड माना गया है। रोटी, कपड़ा और मकान से भी जरूरी किसी भी राष्ट्र की उन्नति के लिए शिक्षा सर्वोपरी की श्रेणी में रखा गया है। देश के महान विद्वान डॉ. भीम राव अम्बेदकर ने कहा है कि विद्या के बगैर समझदारी नहीं आती। समझदारी के बिना नैतिकता नहीं आती। नैतिकता के बिना विकास नहीं आता। विकास के बिना धन नहीं आता और निर्धनता देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। अतएव शिक्षा को ही किसी राष्ट्र के विकास के स्तर को मापने का एक प्रमुख पैमाना माना गया है।
यही वजह थी कि देश आजाद होने के बाद हमारे नेताओं ने समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के प्रमुख औजार के रूप में शिक्षा की अहमियत को समझा। आजाद देश के मंत्री एवं सांसदगणों ने यह समझ लिया था कि देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए आम-आवाम का शिक्षित तथा ज्ञान व दक्षता से लैस होना अति आवश्यक है। उन्होंने यह भी भलि-भांति जान लिया था कि शिक्षा के प्रसार से ही समानता और न्याय पर आधारित समाज बनाया जा सकता है।
शिक्षा से सिर्फ आर्थिक बेहतरी ही नहीं आती बल्कि देश की सत्ता, सुद्वढ़ शासन एवं राजनैतिक विकास में भागीदारी हेतु यहाँ के नागरिकों को तैयार कर लोकतंत्र को मजबूत बनाने में अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। यही वजह है कि आजादी के बाद कुछ दशकों तक देश में बिना किसी भेदभाव के सभी क्षेत्रों और तबकों को एक समान शिक्षा मुहैया कराया गया। परन्तु उत्तरोत्तर इस प्रकार की मानसिकता का बड़ी तेजी से ह्यस हुआ है। धीरे-धीरे शिक्षा हर तबकों की पहुंच से दूर होने की स्थिति में आ गयी। जैसे-जैसे आजादी के बाद दिन बितते गये राजनेताओं, मंत्रियों एवं सांसदों की मानसिकता भी बदलती गयी। और आज समय ऐसा आ गया है कि देश में शिक्षा की प्रारंभिक एवं मध्य व्यवस्था बिल्कुल लचार हो गयी है।
शिक्षा के क्षेत्र में सरकार ने अब तक जितने भी प्रयोग किये अथवा फार्मूला बनाया सब के सब बेकार सबित हुए। जबकि बच्चों में पढ़ाई के प्रति रूचि इन्हीं प्रारंभिक व मघ्य विद्यालयों में पैदा होती है, जिससे इनकी नींव मजबूत होती है। परन्तु प्रारंभिक व मध्य शिक्षा तंत्र आज पूरी तरह से ध्वस्त होने के कागार पर पहुंच चुकी है। आज विद्यालयों में पढ़ाई, मिड डे मिल और शिक्षकों की अन्य योजनाओं में सक्रियता की भेंट चढ़ चुकी है।
आज के नेता एवं मंत्रियों की मानसिकता ऐसी हो गयी है कि बच्चों का भविष्य संवारने वाले सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को विद्यालयों में पढ़ाई छुड़वाकर अन्य कार्यो यथा जनगणना कार्य जिसमें पशुओं की गणना से लेकर घर की सम्पतियों इत्यादि की गणना, राशन कार्ड, एवं अन्तयोदय कार्ड धारियों का सर्वे करवाना, लोकसभा, विधानसभा, पंचायत एवं नगर निकायों के चुनाव के पूर्व मतदाता-सूची पुनरीक्षण, विलोपन एवं गडबड़ियों को लोगों के द्वार-द्वार जाकर सुधारना एवं मतदाता पहचान पत्र का भी कार्य शिक्षकों से ही करवाया जाता है।
आज सरकार बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा मतदाता सूची का नवीकरण करवाने में विशेष ध्यान देती है। इससे साफ जाहिर है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों का भविष्य अंधकारमय बनाने में सरकार की अहम भूमिका है। विद्यालयों की स्थिति बदतर होने का मुख्य कारण यही है कि शिक्षकों द्वारा बच्चों को पढ़ाने नहीं दिया जाता है, बल्कि अन्य कार्यो में लगाकर देश के गरीब बच्चों को पढ़ाई से महरूम रखने की यह एक बड़ी साजिश है। इनका मुख्य उद्वेश्य है सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का अलख न जगने पायें ताकि वैसे गरीब बच्चे जो प्राईवेट स्कूलों में मोटी फीस बिना अदा किये यहाँ पढ़ने का ख्वाब भी नहीं देख सकते उनका भविष्य इन्हीं सरकारी स्कूलों में मिलने वाली मिड डे मील के सहारे कटता रहे।
विगत कुछ दिनों पूर्व सरकार ने एक नया फार्मूला इजाद किया है। वह यह है कि बच्चों को नियमित स्कूल भेजने पर बच्चों के नाम पर खुले बैंक खातों में साईकिल एवं अन्य वस्तुओं की खरीददारी हेतु नकद राशि दी जाती है जिससे कि सरकार द्वारा मिलने वाली इन सुविधाओं के प्रति ये अभिभावक परम कृतज्ञ नजर आते हैं और हो भी क्यों नहीं। उन्हें और क्या चाहिए। विद्यालय में बच्चों को खिचड़ी मिल ही जाती है। इसके साथ ही बच्चों को छात्रवृत्ति एवं साईकिल आदि मिलने से बच्चे खुशी-खुशी विद्यालय जाते हैं। बच्चों को पता होता है कि स्कूल में मास्टर जी रहेंगे नहीं इसलिए पढ़ाई भी होगी नहीं। खिचड़ी मिलना भी तय ही रहता है।
जब बच्चे स्कूल से घर लौटते हैं तो अभिभावक यह पूछते है कि आज मैडम ने क्या खिलाया? यह नहीं पूछते हैं कि आज मैडम ने क्या पढ़ाया? इससे स्पस्ट है कि अभिभावकों को पढ़ाई-लिखाई से कोई विशेष मतलब नहीं हैं। उनकी मानसिकता सिर्फ पेट भरने तक ही सीमित है। परन्तु उन्हें क्या मालूम कि आज के इस प्रतिस्पर्धी युग मे पढ़ाई का कितना मोल है। उन्हें एक छोटे से गाँव, कस्बा या मुहल्ले में रहकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने के बाद उन्हें इतना समय नहीं मिलता कि वे देश-दुनिया और पढ़ाई से मिलने वाले फायदे के बारे में चर्चा कर सके। कहने को तो आज सरकारी स्तर पर संपूर्ण देश में शत प्रतिशत लोग साक्षर होकर आत्मनिर्भर बनने की और अग्रसर हैं। परन्तु सच्चाई पर नजर डाला जाये तो ऐसा कतई नहीं है। देश में शिक्षा के नाम पर हर वर्ष अरबों रूपये खर्च किये जाते हैं। शिक्षा मंत्री से लेकर शिक्षा अभियान को आगे बढ़ाने वाले जिला और तहसिल स्तर पर पदस्त कर्मी ऐसे तो सबों की नजर में शिक्षा का अलख जगाता प्रतीत होता है। परन्तु ऐसे कितनें हैं जो इस अभियान में ईमानदारी पूर्वक कार्य कर रहे हैं?
शिक्षा अभियान कार्यलय आज प्राथमिक विद्यालय, मध्य विद्यालय, विशेष शिक्षा, बालिका शिक्षा एवं वैसे बच्चे जो विद्यालय से बाहर है उनके जीवन में शिक्षा का दीप जलाने के प्रति कृत संकल्प हैं। इन्हें शिक्षित करने की पीछे प्रत्येक वित्तिय वर्ष में सरकार अरबों रूपयें खर्च करती हैं। वह इसलिए नहीं कि देश के गरीब बच्चे पढ़-लिख सकें बल्कि इसलिए कि शिक्षा के नाम पर देश को लूटा जा सके। मानव संसाधन विकास मंत्रालय एक ऐसा विभाग है जिसमें प्रत्येक वित्तिय वर्ष में सर्वाधिक पैसा खर्च करने की मुहिम सी चली आ रही है। बावजूद इसके स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं दिखती हैं।
सरकार अनेकों आयी और चली गयी परन्तु व्यवस्था में किसी ने सकारात्मक द्वष्टिकोण नहीं डाला। जिसने भी पदभार संभाला, सबने सिर्फ परंपरा का ही निर्वाह किया। इस पर शायद ही किसी ने गंभीरता दिखायी। किसी शिक्षा मंत्री ने कभी विद्यालय की परंपरा को तोड़ने की बात कही हो जो कभी अखबार की सुर्खिया बनी ऐसा कभी नहीं दिखा। न ही केन्द्र व राज्य के किसी शिक्षा मंत्री ने कभी मतदाता सूची, मतदाता पहचान-पत्र, बी. पी. एल., ए. पी. एल., अन्त्योदय कार्ड धारियों के सर्वे एवं जनगणना इत्यादि कार्यो को सरकारी शिक्षकों द्वारा नहीं करवाने की बात कही हो। इनके फार्मूले में बच्चों को पढ़ाई के प्रति जागरूक करने की युक्ति नहीं, बल्कि साजिश नजर आता है।
आखिर क्यों इन बच्चों के हक के प्रति आज के सांसद एवं मंत्रीगण सजग नहीं दिखते? शिक्षा का अलख जगाना न सिर्फ इनका कतव्र्य है बल्कि देश के प्रत्येक नागरिक का अधिकार भी है। आज सरकार ने शिक्षकों को विभिन्न कार्यो में लगाने का जो फार्मूला ईजाद किया है उससे कहीं बेहतर और उचित होता जनगणना आदि कार्यो के लिए नये कमिर्यो की बहाली का फार्मूला अपनाया जाता।
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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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