सिनेमा

 कुहुडि: कोहरे के बीच आशा की किरण

 

सिनेमा हमेशा से समाज को प्रभावित करता आया है, आरम्भिक समय से धार्मिक और सामाजिक समस्याओं पर फिल्में बनती रही हैं बदलते समय के साथ अपवादों को छोड़ दें तो ज़्यादातर फिल्में मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता का ही प्रदर्शन करती रही हैं। जहाँ बॉलीवुड आज भी ‘एनिमल’ में अलफ़ा मेल की संकल्पना कर बेतुकी फ़िल्मों का दामन थामे हुए है, उड़िया फिल्म कुहुडि सामाजिक प्रतिबद्धता का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है जो एक सामान्य घर परिवार की समस्याओं को सामने रखती है। उड़िया फिल्म कुहुडि अत्यन्त नाटकीय लेकिन पूरी संवेदना के साथ परिवारों के बिखरने पर चिन्ता व्यक्त कर रही है। फिल्म एक कोर्ट रूम ड्रामा है जिसके कई संवाद अत्यन्त बोल्ड हैं लेकिन उसके तर्क आपको अपील भी करतें हैं, बिखरते परिवारों के कारणों की खोज के लिए विवश करतें हैं।

फिल्म के संवाद विशेषकर युवा दम्पतीयों की चेतना को झकझोर कर रख देने वाले हैं जो बिना उपदेश के मार्गदर्शन करतें हैं। संविधान ने स्त्री-विकास, उत्थान हेतु कई कानून बनाये लेकिन इन कानूनों का किस तरह दुरुपयोग हो रहा है फिल्म इसका भी खुलासा करती है, फिल्म का एक संवाद “चरित्र हनन सिर्फ लड़कियों का ही नहीं होता पुरुषों का भी होता है” लेकिन अफ़सोस उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती। कुहुडि यानी कोहरा, कोहरे के बीच आशा की किरण की तरह यह फिल्म उन सभी कालिमाओं को दूर करती है जो एक पुरुष के चरित्र पर लगाये जाते हैं। अपने बच्चों के सामने उन्हें राक्षस की तरह स्थापित किया जाता है।

हिन्दी सिनेमा ने परिवार को हमेशा से महत्त्व दिया है। समय के साथ तेज़ी से बदलते संयुक्त परिवार से एकल परिवार का होना फिर युवा पीढ़ी का फैशन की तरह सहजीवन अपनाना और सम्बन्धों के प्रति गम्भीर दायित्वों को कम किया है। इन स्थितियों में यदि दो साथी एक साथ रहते हैं तब तक तो ठीक है, उन्हें परिवार का विस्तार यानी बच्चे पैदा नहीं करना चाहिए इस ओर भी फिल्म संकेत करती है। परिवार समाज की प्राथमिक व महत्त्वपूर्ण इकाई है जहाँ मुख्यतः बच्चों के लिए सर्वाधिक स्नेह प्रेम देखभाल या ध्यानपूर्वक लालन पालन की आवश्यकता होती है। वस्तुत: कहा भी जाता है कि बच्चे होने के बाद अभिभावकों के लिए बच्चे ही उनकी प्राथमिकता बन जाती है, वे कमाते हैं तो बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए विशेषकर माताएँ बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं। अलगाव या तलाक की स्थिति में बच्चों को माँ और पिता दोनों में से किसी एक को चुनना पड़े तो वह असमंजस में पड़ जाएगा, उसके लिए दोनों बराबर है एक विकल्प को वह कभी भी स्वीकार नहीं कर पाएगा।

आज परिवार की संकल्पना बिखर रही है जिसमें सर्वाधिक नुकसान बाल-मन पर पड़ रहा है। कहा जा सकता है कि इस स्थिति में बच्चे ठगे से रह जाते हैं मानो उनके अपने ही माँ बाप ने उनके साथ विश्वासघात किया हो! तब वे कहाँ जाएँ? हाल ही में आई फिल्म ‘मिसेज़ चटर्जी’ में जब उसके दोनों बच्चों को नार्वे सरकार की एक संस्था आरोप लगाकर उठा ले जाती है तो माँ उनके लिए नार्वे और भारत सरकार दोनों से लड़ती है कि उसे उसके बच्चों से अलग न किया जाए वह केस जीत भी जाती है। जब बच्चों को माँ या पिता से अलग कर दिया जाता है तो वे बेचारे किस से लड़ाई करें? पति-पत्नी का अहंकार और महत्त्वाकाँक्षा तलाक का कारण बनते हैं, दोनों का सम्बन्ध-विच्छेद सन्तान को अकेला कर देता है और यह अकेलापन ताउम्र नहीं भर पाता, उस पर सौतेला पिता या माँ का उनके जीवन में प्रवेश हो जाए तो जीवन भर कुण्ठाओं में घिरे रहतें है।

     इस विषय पर 1971 में मन्नू भंडारी का उपन्यास “आपका बंटी” लिखा जो अत्यन्त चर्चित हुआ। स्त्री की आत्मनिर्भरता उसके निर्णय को भी यह उपन्यास रेखांकित करता आत्मनिर्भरता पुरुष के अहंकार का कारण बन जाती है तो परिवार में दरारें पड़नी शुरू हो जाती हैं। फिल्म ऐसे ही एक पिता सागर मिश्रा की दर्दनाक दास्ताँ कहती है जिसपर पॉक्सो के तहत अपनी ही बेटी पर यौन शोषण जैसा घिनौना कुकृत्य करने का आरोप है जो उसकी तलाकशुदा पत्नी ने ही लगाया है। इसके द्वारा वह अपनी बेटी को उसके पिता से हमेशा के लिए दूर करना चाहती है ताकि वह स्वयं नये जीवन का आरम्भ कर सके। वकील अंशुमन त्रिपाठी सागर पर लगे आरोप के खिलाफ केस लड़ता है। उसकी दलीलें समाज को सोचने पर विवश कर देंगी कि किसी भी दम्पती को क्या अधिकार है कि वह बच्चे पैदा कर के उन्हें अपनी व्यक्तिगत ख़ुशी के लिए मनमाना निर्णय ले?

आज भारतीय कोर्टों में तलाक केसों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, फिल्म के अन्त में वह कुछ आँकड़े भी दर्शकों के सामने रखती है जो वास्तव में भयावह हैं। बिखरे परिवारों के बच्चों का भविष्य कैसे बिखर जाता है, माँ बाप की रोज़-रोज़ की लड़ाई और तलाक के कारण वे बाहर प्रेम की तलाश में भटकते हैं, दिशाहीन ये बच्चे ड्रग्स जैसी बुरी लत के शिकार होतें है, ग़लत कामों में लग जातें हैं उनकी प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है यानी हम एक बेहतर नागरिक को खो देते हैं, जिसका समाज पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जो बच्चे देश का भविष्य हैं वह बनने से पहले ही समाप्त हो जाता है। इन सभी स्थितियों को वकील अंशुमन त्रिपाठी ने लम्बे-लम्बे संवादों से बतातें है जो हमें वास्तव में सोचने पर विवश करते हैं कि हम कहाँ जा रहे हैं? क्या परिवार टूटने पर समाज बच जाएगा?

नायक अंशुमन त्रिपाठी का व्यक्तिगत जीवन भी कोई ख़ास नहीं दिखाया वह बुद्धिमान प्रखर विद्यार्थी होने के बावजूद सफल वकील नहीं बन पा रहा तलाक जैसे केस वह नहीं लेता, पशु प्रेमी है इसलिए जब पशु के विरोध में केस आता है तो पैसे का लालच भी उसे नहीं डिगा पाता। लेकिन उसकी पत्नी जब उसे लूसर कहती है तो बर्दाश्त करता है और कुर्सी पर ही सो जाता है सिर्फ इसलिए क्योंकि वह अपने परिवार से प्रेम करता है, पत्नी भी यही कहती है कि इस बच्ची की परवाह है वरना कब का तलाक ले लेती। अमीर लड़की और गरीब लड़के की कई फिल्में हमने देखी हैं जिसमें अमीर पिता खुद ही बेटी का परिवार खराब कर रहा है, अपनी बेटी के बच्चे को अपनाता नहीं है। और पिता बच्चों को पालता है लेकिन यहाँ षडयन्त्रों के साथ एक पिता को उसके बच्चे से दूर करना, उसकी पीड़ा को रेखांकित करना, इस विषय पर फिल्म बनाना अनोखा इसलिए है कि जबकि माँ का महिमामण्डन होता रहा है, पिता के महत्त्व पर अक्सर चुप्पी साधी जाती है, तिस पर आज उसे शक के दायरे में रखना मानों फैशन-सा हो गया है। ऐसे-ऐसे आरोप लगाए जातें हैं कि स्त्री को सहानुभूति मिलती है तो पुरुष को धिक्कार। कोर्ट केस को अपने पक्ष में करने के लिए बच्चों को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है, डर या नासमझी के कारण वे अपने ही पिता के खिलाफ झूठ बोलते हैं, जो किसी भी पिता के लिए कितना पीड़ादायक होता ही है कि वह कह उठता है “मुझे इस जीवन से मुक्ति दिला दो मुझे फाँसी दिलवा दो मैं जीना नहीं चाहता”। आज का युवा वैवाहिक दायित्वों को बहुत गम्भीरता से नहीं लेता पहले अपनी मर्जी से शादी फिर अपनी मर्जी से तलाक दोनों परिवारों के बड़ों पर इस अलगाव के कष्ट को भी कोई नहीं समझना चाहता जब बच्चे थोड़े ही समझदार होतें हैं तो वे खुद को माफ़ नहीं कर पाते कि हमसे कैसा अपराध करवाया गया है तभी वकील नायक कहता है कि “यदि आप अपने बच्चो का दायित्व नहीं उठा सकते तो आपकों विवाह ही नहीं करना चाहिए” क्रोध, अहंकार, जोश और अपरिपक्वता में लिया गया तलाक का फैसला कभी किसी के हित में नहीं होता बाद में पछताने के सिवा कुछ नहीं मिलता।

वैसे तो हिन्दी सिनेमा में तलाक विषय पर बहुत फिल्में बनीं लेकिन वे पति-पत्नी के दर्द को ही दिखाती हैं जैसे ‘आँधी’ फिल्म के नायक नायिका जब दोबारा मिलतें हैं तो उनके पास रोने धोने के सिवा कोई चारा नहीं पर यहाँ भी आपको बच्चों के विषय में कुछ पता नहीं चलता कि वे किस अवस्था में है। 1938 में सोहराब मोदी की फिल्म ‘तलाक’ महिलाओं के अधिकारों के समर्थन में बनी थी लेकिन आज वही समर्थन पुरुषों और उनके बच्चों के लिए भारी पड़ रहा है क्योंकि धैर्य और विवेक का पतन हो रहा है। 1955 में तलाक विषय पर ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ आयी जो परिवार का समर्थन करती है ‘निकाह’ भी तीन तलाक की समस्याओं को केन्द्र में रखती है लेकिन उड़िया फिल्म “कुहुडि” इन सभी फिल्मों के बीच इसलिए विशेष हो जाती है क्योंकि इसकी संवेदना हमें उन बेक़सूर मासूम बच्चों से जोड़ती है जिनके बारे में कोई सोच नहीं रहा, नायक कहता है “प्रेम का कोई एक सबसे ख़ास पल होता है है जबकि उस मिलन पर स्ट्रे गर्भवती हो जाती है फिर वो कौन से ऐसे पल या स्थितियां बन जाती है कि दोनों उन विशेष पलों को भूल जाते है”

  फिल्म के तकनीकी पक्ष पर बात की जाए तो आरम्भ में पटकथा अत्यन्त सामान्य है जबकि कोर्ट में ज्वलन्त संवादों के माध्यम से इसका शानदार प्रदर्शन देखने को मिलता है। हालाँकि ‘स्त्रीवादी’ इस फिल्म को एकपक्षीय मान सकते हैं लेकिन हमें समझना चाहिए कि फिल्म स्त्री या पुरुष के सम्बन्धों से अधिक बच्चों पर चिन्ता व्यक्त कर रही है। हमारे दर्शकों को मनोरंजन भी चाहिए इसलिए शराब पीने के बाद पत्नी के साथ नायक के संवादों की पृष्ठभूमि में कॉमेडी संगीत डाला गया है ताकि वह पारिवारिक कलह न लगे बल्कि पति-पत्नी का सामान्य झगड़ा लगे, इसी क्रम में एक रोमांटिक गीत भी यहाँ आता है जो अनिवार्य नहीं था पर मनोरंजन जो फिल्म का पहला लक्ष्य है उसका निर्वाह करता है अन्यथा दर्शक थिएटर तक जाते भी नहीं है। दर्शकों इसी माँग को ध्यान में रखकर कुछ फाइट सीन भी घुसाए गये हैं। कोर्ट में जज के संवाद भी हास्य उत्पन्न करते है। अभिनय की बात की जाए तो अभिनेता अनुभव मोहंती ने वकील अंशुमन त्रिपाठी के रूप में अपना 100 प्रतिशत दिया है। समाज में बिखरते परिवार, बिलखते बच्चों और पिताओं पर लगते झूठे आरोपों का दर्द और क्रोध उनकी संवाद अदायगी में झलकता है, एक मिसाल कायम करता है। प्रकृति मिश्रा, दीपनाविता मोहपात्रा ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। कुल मिलाकर सामजिक जागरूकता की दृष्टि से यह एक बेहतरीन फिल्म है और इस पर चर्चा होना जरूरी है। राजश्री प्रोडक्शन जिन्होंने हमेशा पारिवारिक फिल्में बनायी है ने फिल्म को रिलीज करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। फिल्म शीघ्र ही हिन्दी और अन्य प्रमुख भाषाओं में भी आने वाली है

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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