कला, साहित्य और मीडिया की भूमिका – मार्कण्डेय काटजू
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“गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले”
आज का भारत बहुत सारी बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है। महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, आदि में किसान और बुनकर आत्महत्या कर रहे हैं। आवश्यक उपयोगी वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। बेरोजगारी बड़े पैमाने पर इस कदर स्थाई हो चली है कि पढ़े-लिखे नवयुवकों को अपनी जिन्दगी में अन्धकार ही अन्धकार दिखाई दे रहा है। पानी और बिजली की व्यापक कमी है। हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी का बोलबाला है, भले वह व्यवस्था के उच्चतम स्तर पर ही क्यूँ न हो। आम जनता के लिए दवाइयाँ और डॉक्टरी ईलाज सरीखी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएँ पाना बेहद महँगा हो गया है। आवास दुर्लभ होते जा रहे हैं। शिक्षा प्रणाली बिगड़ चुकी है। अपराधियों और माफियाओं के कारण देश के कई भागों में कानून और व्यवस्था चरमरा गयी है।
मशहूर शायर फ़ैज अहमद फ़ैज उपर्युक्त श़ेर में सच्चे कलाकारों, विचारकों, लेखकों और दूसरे अन्य देशभक्तों को देश की सहायता के उद्देश्य से आगे आने का आह्वान करते हुए कहते हैं कि मौजूदा स्थितियों को देखते हुए देश की सेवा के लिए आगे आने का यही सही वक्त है। आज का भारत जिन विकट परिस्थितियों से गुजर रहा है, उसमें कला, साहित्य और मीडिया की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गई है, इसलिए उक्त आलेख में इसका विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।
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कला और साहित्य की भूमिका :
मुख्य रूप से कला और साहित्य से सम्बन्धित दो वाद प्रचलित हैं, एक ‘कला, कला के लिए’ और दूसरा ‘कला, जीवन के लिए’। पहले वाद के अनुसार कला और साहित्य का उद्देश्य केवल सामान्य जन और कलाकारों को खुश करने और उनके मनोरंजन के लिए खूबसूरत और दिलचस्प कृतियों का सृजन करना होता है न कि सामाजिक विचारों का प्रचार-प्रसार करना। यह वाद मानकर चलता है कि यदि कला और साहित्य का इस्तेमाल सामाजिक विचारों के प्रचार-प्रसार में किया जाने लगा तो कला, कला नहीं रहती बल्कि प्रचार का रूप ग्रहण कर लेती है। अंग्रेजी साहित्य में जॉन कीट्स, अल्फ्रेड लार्ड टेनीशन, अजरा पौण्ड, टी.एस. इलियट इसके प्रमुख समर्थक हैं। अमेरीकन साहित्य में एडगर एलन पॉए, हिन्दी में रीतिकालीन कवि, छायावादयुगीन कवि और प्रयोगवादी कवि – विशेषतः अज्ञेय, उर्दू में ज़िगर मुरादाबादी और बांग्ला में रवीन्द्रनाथ टैगौर, आदि इसके प्रमुख समर्थक कवि हैं।
दूसरे वाद ‘कला, जीवन के लिए’ के अनुसार कला और साहित्य का उद्देश्य लोगों की सेवा होना चाहिए। उसे उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ लोगों की भावनाओं को जागृत करना चाहिए। उन्हें एक-दूसरे की पीड़ा और दुःख-दर्द की अभिव्यक्ति के लिए अधिक संवेदनशील रूप में प्रस्तुत करना चाहिए ताकि वह आमजन के बेहतर जिन्दगी के उनके संघर्ष में उनकी सहायता कर सके। इस वाद के प्रमुख समर्थको में अंग्रेजी साहित्य में चार्ल्स डिकेन्स, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, अमेरिकन साहित्य में वाल्ट व्हिटमैन, मार्क ट्वेन, हेरिएट बेअचेर, स्टोवे, उप्तों सिंक्लैर, जॉन स्तेंबेक्क, फ्रेंच सहित्य में बालज़ाक, स्तेंद्हल, फ्लौबेर्ट, विक्टर ह्यूगो, जर्मन साहित्य में गेटे, स्चिलर, एरिच मारिया रेमार्कुए, स्पेनिश साहित्य में सर्वान्ते, रशियन साहित्य में टॉलस्टॉय, गोगोल, डोस्तोएव्स्क्य, गोर्की, हिन्दी साहित्य में कबीरदास और प्रेमचन्द, बांग्ला साहित्य में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय और काज़ी नज़रुल इस्लाम तथा उर्दू साहित्य में नाज़िर, फैज़, मण्टो, आदि का नाम प्रमुखता से आता है।
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ऐसे में सवाल यह है कि वर्तमान भारत के कलाकारों और लेखकों द्वारा उपर्युक्त वादों में से किसे स्वीकारना या किसका अनुसरण करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर दिए जाने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन दोनों ही वादों या सिद्धान्तों के स्कूल में बहुत ही महान कलाकार और लेखक हुए हैं। उदाहरण के लिए शेक्सपियर और कालिदास मौटे तौर पर पहले वाद के स्कूल – ‘कला के लिए कला’ – से सम्बन्ध रखते हैं। उनके नाटक मनोरंजन और मानवीय आवेगों व मंशाओं की समझ प्रदान करने से इतर किसी सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते। हालांकि शेक्सपियर मूलतः यथार्थवादी थे, लेकिन उनका इरादा समाज-सुधार का या सामाजिक बुराइयों से लड़ने का कतई न था।
बावजूद इसके अपने क्षेत्र में वे सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हैं। मानवीय भावों और क्रियाकलापों पर उनकी पकड़ और गहन अन्तर्दृष्टि आज भी हमें अचम्भित करती है। उनके द्वारा रचित दुखान्तिकाओं, सुखान्तिकाओं और हास्य-रचनाओं में वर्णित मनुष्य की प्रकृति और भावों के चित्रण से हम अचम्भित और आवाक रह जाते हैं। हेमलेट, मेकबेथ, किंग लीयर, फालस्टाफ, जूलियस सीजर, इयागो सरीखे चरित्र इतने सजीव हैं कि अपने अनुभवों के बूते हम उनकी पहचान अपने वास्तविक जीवन में भी कर सकते हैं।
प्राचीन भारतीय साहित्यकारों में कालिदास का ‘मेघदूत’ प्रकृति और प्रेम से भरी एक उत्कृष्ट काव्य है। उत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन के वास्तविक सौन्दर्य का कालिदास द्वारा किया गया चित्रण अत्यन्त चौंकाने वाला है। कालिदास की प्रकृतिपरक कविताएँ इतनी प्रभावशाली है कि विश्वभर में अपनी प्रकृतिपरक कविताओं के लिए सराहे जानेवाले अंग्रेजी साहित्य के मशहूर प्रकृति-कवि विलियम वर्डस्वर्थ किसी भी स्तर पर कालिदास जैसा चित्रांकन नहीं कर पाए हैं। कलात्मक दृष्टिकोण से कालिदास की रचनाएँ अपना सानी नहीं रखती। इन सबके बावजूद कालिदास अपनी रचनाओं में किसी भी प्रकार का सामाजिक उद्देश्य नहीं रखते हैं।
दूसरी तरफ अंग्रेजी साहित्यकार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ (सन् 1856-1950) ने प्रायः अपने नाटकों की रचना सामाजिक बुराइयों से संघर्ष और सामाजिक सुधार के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर की हैं। चाहे वह ‘मेजर बारबरा’ हो या ‘द डॉक्टर’स डिलेम्मा’ या ‘मिसेज वारेन’स प्रोफेशन’ या ‘मिसल्लिंस’ या ‘कैप्टेन ब्रासबाउण्ड’स कोन्वर्सेशन’; उसके सभी नाटक सामाजिक अन्याय और बुराइयों की कड़ी निन्दा करते हैं। इसी तरह चार्ल्स डिकेन्स ने अपने उपन्यासों में तत्कालीन इंग्लैण्ड में व्याप्त सामाजिक बुराइयों, जैसे – स्कूलों, जेलों, अनाथालयों और न्यायपालिका की डरावनी परिस्थितियों आदि, पर कड़ा प्रहार करता है।
शेक्सपियर या बर्नार्ड शॉ, दोनों में कौन एक कलाकार के तौर पर महान है? शेक्सपियर ‘कला, कला के लिए’ वाद का प्रतिनिधित्व करते हैं तो बर्नार्ड शॉ ‘कला, जीवन के लिए’ (या सामाजिक उद्देश्यों के लिए कला) वाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। हम एक जवाब का प्रयास करेंगे पर कुछ अन्तराल बाद।
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शब्दों की कला होने कारण साहित्य हमारी सोच और हमारे चिन्तन के सबसे नजदीक होता है। तुलनात्मक दृष्टि से रूप और आकृति की बजाय, सोच और चिंतन पर अधिक बल देने के कारण ही साहित्य, कला के अन्य रूपों (चित्रकला और संगीत) से अलग होता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि साहित्य से इतर संगीत या नृत्य सरीखी अन्य कलाएँ किसी विचार या सोच को जागृत करने की अपेक्षा मनोदशा विशेष पर केन्द्रित या समर्पित हो सकती है।
उदाहरण के लिए प्रमुख उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक अहम रूप ‘ख्याल’ में शायद ही कोई विचार-सामग्री होगी (इसमें बहुत ही कम शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है), लेकिन यह (ख्याल) एक विशेष मनोदशा और उससे सम्बद्ध सौन्दर्य-भावनाओं को उत्पन्न करने की अविश्वसनीय ताकत रखता है। भले वह वर्षा ऋतु से संबद्ध राग ‘मल्हार’ हो (उल्लेखनीय है कि मल्हार के भी कई प्रकार हैं और उनमें से एक मुख्य प्रकार ‘मन-का-मल्हार’ है तथा व्यक्तिगत रूप से मैं ‘मेघ मल्हार’ का शौक़ीन हूँ), जो यह महसूस करवाता है कि वास्तव में वर्षा हो रही है। इसी तरह उषाकाल का राग, जैसे – राग जौनपुरी, टोडी, भैरव, आदि आपको धीरे से जगा देते हैं। इसी तरह ‘दरबारी’ या मालकौंस (जिसे कर्नाटक संगीत में ‘हिंडोला’ कहते हैं) सरीखे रात्रि के राग आपको धीरे से सुला देते हैं।
इससे इतर ‘राग भैरवी’ सरीखे रागों को किसी भी समय और ऋतु में गाया जा सकता है और उनका वास्तविक सौन्दर्य अचम्भित करने वाला होता है। इस तरह विविध प्रकार के राग, विविध प्रकार की मनोवृत्तियाँ उत्पन्न करते हैं। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही कुछेक दूसरी शैलियों में विचार और सोच की विषयवस्तु अधिक होती है, जैसे- ‘ठुमरी’ (सम्भवतः इसलिए कि ठुमरी में ख्याल की अपेक्षा अधिक शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है)। इन सबके बावजूद उत्तर भारतीय शास्त्रीय और कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में ऐसी कोई शैली या राग नहीं है, जो सामाजिक अन्याय के विरुद्ध लड़ने या संघर्ष करने का भाव जागृत करता हो। इस प्रकार यह एक महान कला होने के बावजूद विशुद्ध रूप से ‘कला के लिए कला’ है।
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अधिकांश कला-आलोचक, यथार्थवाद और स्वछन्दतावाद को कला और साहित्य की दो मूल प्रवृतियाँ मानकर चलते हैं। सामान्यतः सामाजिक परिस्थितियों का सच्चा और वास्तविक चित्रण करना यथार्थवाद कहलाता है, जबकि स्वछन्दतावाद में कल्पना की उड़ान, आवेग-अनुराग और भावनात्मक तीव्रता पर अधिक बल दिया जाता है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि यथार्थवाद और स्वछन्दतावाद दोनों ही सक्रिय या निष्क्रिय हो सकते हैं। आमतौर पर निष्क्रिय यथार्थवाद (पैसिव रियलिज्म) का उदेश्य बिना कोई उपदेश दिए वास्तविकता का सच्चा चित्रण करना होता है, जैसा – जेन ऑस्टिन, जॉर्ज इलियट व ब्रोण्टी बहनों के उपन्यासों में मिलता है। इस अर्थ में इसे सामाजिक रूप से उदासीन या निष्क्रिय कह सकते हैं, लेकिन कई बार ‘निष्किय यथार्थवाद’ भाग्यवादी और निष्क्रियता के साथ-साथ बुराई व पीड़ा के अप्रतिरोध का भी उपदेश देता है। इसका एक उदाहरण लिओ टॉलस्टॉय के ‘वार एण्ड पीस’ उपन्यास में देखने को मिलता है, जहाँ टॉलस्टॉय एक बड़े ही विनम्र किसान प्लाटों करातायेव का चित्रण करते हैं। प्लाटों करातायेव अत्यन्त विनम्रता और हंसी-ख़ुशी से अपने भाग्य को स्वीकार कर लेता है और यह तथ्य पूरी तरह से भाग्यवादी और निष्क्रियतावादी जीवनदृष्टि को इंगित करता है। इसी तरह थॉमस हार्डी के निराशावादी उपन्यास ‘टेस’ व ‘फार फ्रॉम द मडिंग क्राउड’ में भी कुछ इसी तरह के निष्क्रिय यथार्थवाद का चित्रण मिलता है।
यथार्थवाद के इतिहास को देखें तो पाएंगें कि इसके कुछेक प्रतिनिधि लेखक शुरूआत में सक्रिय यथार्थवादी थे पर बाद में वे निष्क्रिय यथार्थवादी हो गए। जैसे – दोस्तोयेव्स्की ने ‘क्राइम एण्ड पनिशमेण्ट’, ‘ब्रदर्स करामाज़ोव’, ‘द इडियट’ आदि में एक व्यक्ति के, उसे बेड़ियों में जकड़ने का प्रयास करने वाली ताकतों के विरुद्ध शक्तिशाली विद्रोह को दिखाया है पर आखिर में ये सभी आत्माभिमानी व्यक्ति को विनयशील रूप में परिवर्तित कर समाप्त होते हैं। जबकि दूसरी ओर टॉलस्टॉय जैसा लेखक जो की अपने शुरूआती उपन्यास ‘वार एण्ड पीस’ के समय भाग्यवादी था परन्तु अपने बाद के उपन्यास ‘रेजरेकशन’ में वह एक सामाजिक सुधारक बन जाता है।
चार्ल्स डिकेन्स, विक्टर ह्यूगो, मैक्सिम गोर्की, शरतचन्द्र आदि सक्रिय यथार्थवाद की विचारधारा से सम्बन्ध रखते हैं। वे भाग्यवाद, निष्क्रियता और बुराई के अप्रतिरोध का विरोध करते हैं और लोगों को सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। उदाहरण के लिए गोर्की ने अपने उपन्यास ‘मदर’ में पीड़ितों और प्रताड़ितों के कायापलट का बखूबी चित्रण किया है। इसमें गोर्की हमें पुरुषों और स्त्रियों के उन उत्पीड़नों के बारे में बताते हैं, जिसके शिकार वे सदियों से होते आएँ हैं और अब वे किसी भी तरह उनसे मुक्त होना चाहते हैं। पावेल व्लासोव और उसकी माता ऐसे ही दो प्रतिनिधि किरदार हैं। उसी तरह महान बंगाली लेखक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की कहानियों और उपन्यासों में हमें स्त्री उत्पीड़न और जातिव्यवस्था के विरुद्ध शक्तिशाली प्रहार देखने को मिलते हैं। ‘श्रीकांत’, ‘ब्राह्मण की बेटी’, ‘ग्रामीण समाज’ आदि इसके अच्छे उदाहरण हैं।
निष्क्रिय यथार्थवाद की ताकत मानवीय प्रेरणा और सामाजिक बुराइयों के प्रदर्शन में निहित है, जबकि इसकी दुर्बलता सकारात्मक सिद्धान्तों और आदर्शों की कमी में है। ज़ोला, हिप्पोल्य्ते तैने, आदि की रचनाएँ वास्तविकता के लिए अपने सच्चे दृश्यों, दृष्टिकोणों और अपने छिद्रान्वेषी चित्रण पर ध्यानाकर्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं। हेनरी फील्डिंग के उपन्यास ‘टॉम जोंस’ को पहला यथार्थवादी उपन्यास माना जाता है, लेकिन इसने लोगों को उनकी दयनीय परिस्थितयों से बाहर निकलने का कोई सुगम मार्ग प्रदान नहीं किया। इस प्रकार निष्क्रिय यथार्थवाद, हर बात की आलोचना तो करता है, लेकिन दावे के साथ ऐसा कुछ नहीं कहता, जिससे लोगों के जीवन में बदलाव आए। यह मनुष्य को एक ऐसे भाग्यवादी दृष्टिकोण से देखता है, जहाँ वह अपने आसपास के वातावरण एक निष्क्रिय उत्पाद मात्र बनकर रह जाता है, जो अपनी सामाजिक परिस्थितियों को बदलने में पूर्णतः असहाय और असमर्थ है।
निष्क्रिय और सकिय यथार्थवाद, दोनों का एक सामाजिक उद्देश्य होता है; लेकिन जहाँ निष्क्रिय यथार्थवाद सामाजिक सुधारों के प्रयास के सम्बन्ध में भाग्यवाद, निराशावाद और अनुपयोगितावाद का उपदेश देता है; वहीं सक्रिय यथार्थवाद आशावादी है और सरपरस्त लोगों की चिंता इसकी विशेषता है। आमजन की दुर्दशा या संकटों के लिए वह उन्हें संघर्ष करने व सामाजिक परिस्थितियों में सुधार के लिए प्रेरित करता है।
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यथार्थवाद की ही तरह स्वच्छन्दतावाद भी निष्क्रिय या सक्रिय हो सकता है। निष्क्रिय स्वच्छन्दतावाद वास्तविकता से लोगों का ध्यान भटकाने का प्रयास कर, उन्हें विशुद्ध कल्पना और भ्रम की दुनिया में ले जाता है या व्यक्ति को अपने भीतर की दुनिया की निरर्थक अतिव्यस्तता में उलझा देता है या फिर वह उसे मानव-जीवन की सबसे घातक पहेली जीवन और मृत्यु के सपनों में उलझा देता है। निष्क्रिय स्वच्छन्दतावादी रचनाओं के पात्रों में शूरवीर, राजकुमार, देवता, दानव, परियाँ आदि सभी कुछ हो सकते हैं और वे हमें हमारी इसी दुनियाँ में उनकी उपस्थिति का भरोसा दिलाती है (हिन्दी के मशहूर कथाकार देवकी नन्दन खत्री के लोकप्रिय उपन्यास ‘चन्द्रकांता संतिति’ व ‘भूतनाथ संतति’ इसके अच्छे उदाहरण हैं)। बहुत हद तक, सामन्तों को प्रसन्न करने के लिए लिखी गई प्रेम और सौन्दर्य से सम्बन्धित हिन्दी की उत्तरमध्यकालीन या रीतिकालीन हिन्दी कविताएँ भी इसी श्रेणी में आती हैं। इस तरह निष्क्रिय स्वच्छन्दतावाद शायद ही कोई सामाजिक उद्देश्य से परिपूर्ण कार्य करता है।
दूसरी तरफ सक्रिय स्वछन्दतावाद लोगों को समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ जागृत करने का प्रयास करता है। शैली का ‘प्रोमिथियस अनबाउण्ड’, हेंरीच हेन का ‘एनफण्ट परदु या द लॉस्ट चाइल्ड’, गोर्की का ‘सोंग ऑफ़ स्टोर्मी पेट्रेल’ और महान उर्दू लेखक फैज़ की कविताएँ आदि, इसके अच्छे उदाहरण हैं। इस तरह सक्रिय स्वछन्दतावाद स्पष्ट रूप से सामाजिक उद्देश्य के लिए कार्य करता है। वह वास्तविकता से उपर उठता है, उसे नजरअन्दाज करते हुए नहीं, बल्कि इसमें बदलाव की माँग करते हुए। यह साहित्य को केवल मौजूदा समय की बातों और घटनाओं को दर्शाने तथा वास्तविकता के चित्रण का जरिया मात्र मानने की अपेक्षा इसके महत्तर उद्देश्यों पर ध्यान केन्द्रित करता है। रूसो के ‘एमिले’ और ‘न्यू हेलोइसे’ नामक उपन्यास सक्रिय स्वछन्तावाद के अच्छे उदाहरण हैं।
शेक्सपियर, बाल्ज़ाक, टॉलस्टॉय और मिर्जा ग़ालिब जैसे महान लेखकों के सम्बन्ध में यह पर्याप्त सटीकता के साथ परिभाषित करना मुश्किल है कि वे स्वच्छन्दतावादी हैं या यथार्थवादी! असल में उनकी रचनाओं में दोनों प्रकार की प्रवृतियाँ व विचारधाराएँ (स्वच्छन्दतावादी व यथार्थवादी) विद्यमान हैं। वास्तव में सर्वश्रेष्ठ कला में इन दोनों का संयोजन होता है और यही इनकी वैश्विक स्वीकार्यता का मूल कारण है।
लेखक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश व भारतीय प्रेस परिषद् के पूर्व चैयरमैन रहे हैं।
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अनुवादक : सुरेन्द्र सिंह
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