बात 2, 3 मार्च 2011 की है। अवसर था राजीव गाँधी शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बिकापुर (छ.ग.) में मीडिया पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का। उस दौरान मैं महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से जनसंचार में पीएच.डी. कर रही थी। वहीं से संगोष्ठी में सहभागिता हेतु हम अंबिकापुर आये थे। उस समय तक ललित सुरजन सर से मेरा कोई परिचय नहीं था। इस संगोष्ठी में खाने के दौरान मेरी उनसे थोड़ी-बहुत बातचीत हुई। ललित सर और जाने-माने भाषाविद् प्रो. चितरंजन कर दोनों हमसे थोड़ी दूरी पर ही साथ में बैठकर खाना खा रहे थे। वहीं पर उन्होंने हमसे पूछा कि तुमलोग कहाँ से आये हो? उन दोनों की सहजता ऐसी थी कि खुद ही मुझसे और मेरे तत्कालीन मित्र (जिनसे बाद में मैने शादी की) से बातचीत की शुरूआत की। फिर उन्होंने सत्र प्रारम्भ होने से पहले कहा कि चलो अब तुम लोगों को सुनना है।
उनकी इस बात को सुनकर और सर के बारे में जानकर एक अनजाना भय सा पैदा हो गया था। वहाँ उपस्थित अधिकांश लोग ललित सर को सुनने के लिए ही उपस्थित हुए थे। मुझे तो समझ में नहीं आ रहा था कि इतने बड़े व्यक्ति के सामने मैं अपनी बातों को कैसे रख पाऊँगी? दिमाग में ये सारी बातें उथल-पुथल मचा ही रही थी कि तभी संचालक ने मेरे नाम की घोषणा कर दी। किसी तरह मंच पर पहुँचकर मैंने अपनी बात रखी। मेरी बात सुनने के बाद ललित सर ने मेरे लिए जो कहा वह किसी पुरस्कार से कम नहीं था। सारा डर, भय एक ही झटके में खत्म हो गया था। कार्यक्रम खत्म होने के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तुम्हे छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के कार्यक्रम में बुलाऊँगा। तुम बहुत अच्छा बोलती हो, तुम बढि़या कर सकती हो। फिर ललित सर ने हमे छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के लिए आमंत्रण भिजवाया और इस तरह वर्धा से छत्तीसगढ़ आने का सिलसिला ऐसा शुरू हुआ कि यही राज्य में मेरे जीवनयापन का ठिकाना बन गया। कुछ ही समय बाद मुझे छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन की कार्यकारिणी का सदस्य बना दिया गया। ललित सर छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष का दायित्व लम्बे समय तक संभालते रहें। सभी कार्यक्रमों में उनकी सक्रियता अद्भूत थी। उनकी सक्रियता और उर्जा देखकर कहीं भी उनके उम्र का एहसास ही नहीं होता था।
मैं जब पहली बार छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के कार्यक्रम में शामिल होने आयी, तब मुझे लगा था कि हम जैसे विद्यार्थियों को यहाँ कौन तवज्जो देगा? लेकिन हम सीखने और सुनने के लिहाज से कार्यक्रम में शामिल होने का मन बना कर आये थे। जब हम कार्यक्रम में पहुँचे, तब सबकुछ बिल्कुल अलग था। वहाँ हमारे लिए भी लगभग वैसी ही व्यस्था की गई थी, जैसे अन्य अतिथियों के लिए। ललित सर ने जब भी हमे कार्यक्रम में बुलाया, वहाँ हमे भरपूर सम्मान दिया और पूरा ध्यान रखा। कभी किसी उपेक्षा का एहसास नहीं होने दिया। सर मंच से बोला करते थे कि प्रदेश स्तरीय कार्यक्रम अमिता और संतोष के महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से आने से अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो जाता है। उनका यह वाक्य आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं। मुझे विश्वास नहीं होता था कि इतनी बड़ी हस्ती कैसे हम जैसे साधारण विद्यार्थियों का इस प्रकार स्वागत कर सकती है।
लेकिन ऐसा करना ललित सर जैसे व्यक्तित्व के लिए कोई नयी बात नहीं थी। उनके इसी स्वभाव से लोग उनसे जुड़े रहना चाहते थे। वे कार्यक्रम में शामिल सभी अतिथियों के साथ समान व्यवहार के साथ ही पेश आते थे। पूरे कार्यक्रम के दौरान उनका ध्यान सभी पर बराबर बना रहता था। सभी से एक-एक करके उनके पास जा-जाकर पूछा करते थे कि खाना खाया कि नहीं। कार्यक्रम में लगभग सभी का नाम लेकर पुकारते हुए एक-एक कर सभी लोगों की राय पूछते थे कि कैसे साहित्य को विस्तार दिया जाये? छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन को और बेहतर कैसे बनाया जाये? जब कार्यक्रम खत्म हो जाता था, तब भी वे तबतक अपनी गाड़ी में नहीं बैठते थे, जबतक सभी लोगों के लिए गाड़ी की व्यवस्था नहीं हो जाती थी। एक बार तो मुझे और मेरे पति को गाड़ी नहीं उपलब्ध हो पाई थी, तब ललित सर ने हमे खुद ही अपनी गाड़ी से पहले होटल तक छोड़ा और तब वे अपने घर गये।
2012 की बात है। हमे एक बार फिर छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन में शामिल होने के लिए आमंत्रण मिला था। हर बार की तरह इस बार भी हम वर्धा से कार्यक्रम में शामिल होने के लिए रायपुर पहुँचे थे। मैंने ललित सर को बताया कि सर हमने शादी कर ली है। उन्होंने ने जैसे ही इस बात को सुना, तुरंत मंच पर बुलाकर हमारा स्वागत करते हुए बधाई और आशीर्वाद दिया। फिर शाम के सत्र में समापन के दौरान सर ने घोषणा कि हर बार अमिता और संतोष इस कार्यक्रम में मित्र के तौर पर शामिल होते थे, किन्तु इस बार दोनों पति-पत्नी के रूप में शामिल हुए हैं। इसलिए आज सबको इनकी शादी की खुशी में मैं अपनी ओर से आईसक्रीम और मिठाई खिलाऊँगा। कार्यक्रम में जब भी शामिल होने आयी, सर ने मुझे मंच पर किसी-न-किसी रूप में जरूर बुलाया और सब से मेरा परिचय कराया। सर का यह आत्मीय और अपनेपन से भरपूर व्यवहार जहन में ऐसे समा गया कि सोच-सोचकर आंखें नम हो जाती है। सर का जो ओहदा था, उसका उन्होंने कभी हमलोगों को एहसास तक नहीं होने दिया। वे हमेशा एक साधरण व्यक्ति की तरह ही सरल और सहज बने रहते थे।
अधिकांश लोग छोटी-छोटी उपलब्धियों को हासिल करते ही लोगों को फोन उठाना बंद कर देते हैं, या फोन का जवाब नहीं देते हैं, वहीं ललित सर तमाम व्यस्तताओं के बावजूद फोन भी उठाते थे और यदि किसी कारणवश फोन नहीं भी उठाते थे तो समय मिलते ही वापस जरूर कॉल करते थे। मृत्यु से दो दिन पहले (30.11.2020) को मैंने सर से तबीयत पूछने के लिए फोन किया तो किसी कारणवश उन्होंने फोन नहीं उठाया। फिर लगभग एक घंटे बाद उनका फोन आया। फोन उठाते ही उन्होंने बोला कि और अमिता कैसी हो? मैंने बोला, ठीक हूँ सर। आपकी तबियत कैसी है? सर ने कहा मेरी तबियत बिल्कुल ठीक है। तुम्हारा क्या चल रहा है? मैने कहा सर बस थोड़ा-बहुत लिखना-पढ़ना चल रहा है। तब सर ने बोला कि ठीक है खूब लिखो-पढ़ो, खूब आगे बढ़ो। मैंने कहा जी सर आपके मार्गदर्शन की जरूरत है हमे, आप जल्दी आ जाईए। उन्होंने कहा हाँ, मैं जल्दी ही छत्तीसगढ़ वापस लौटकर आऊँगा, तब तुम सबसे मिलूंगा। लेकिन मुझे नहीं पता था कि छत्तीसगढ़ जल्दी लौटकर आने की बात कहकर वे किसी और राह पर जाने की तैयारी कर रहे थे। सर छत्तीसगढ़ लौटकर तो जरूर आये, लेकिन सिर्फ एक शरीर के रूप में और हम सब उनसे मिल भी नहीं पाये। सर को इस तरह शांत देखना असहनीय पीड़ा से गुजरने जैसा है। सर का इस प्रकार अपने गृह राज्य लौटना हमेशा अविश्वसनीय ही प्रतीत होगा।
यों तो सर से लॉकडाउन के दौरान भी ऑनलाईन कार्यक्रम में मुलाकात हुई थी, लेकिन भौतिक रूप से आखिरी मुलाकात 2019 के छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन में हुई थी। इस कार्यक्रम में मैंने उन्हें अपनी किताब ‘नदियां उदास बहती है’ भी भेंट की थी। सर से जैसे ही मुलाकात हुई मैंने वह किताब उन्हें दे दी। किन्तु उन्होंने मुझसे कहा कि मैं यह किताब तुमसे मंच पर लूंगा। फिर उन्होंने मेरी और मेरी किताब की प्रशंसा करते हुए मंच पर बुलाया और तब मेरी किताब को स्वीकार किया। उन्हें जब भी सुनने का मौका मिलता था, ऐसा लगता था जैसे उनके चेहरे से कोई दैवीय ओज निकल रही हो। उनकी बातों को सुनने पर लगता था कि अनवरत सुनती रहूं। कई विद्वानों को सुनने पर बोरियत का एहसास होने लगता है, लेकिन सर को सुनने पर कभी ऐसा नहीं लगता था। मंच पर जाते ही संचालक से वे सबसे पहले यह पूछते थे कि मुझे कितनी देर बोलना है, बता दीजिए। उन्हें जितना समय दिया जाता था तय समय के भीतर ही अपना वक्तव्य खत्म कर देते थे। किसी कार्यक्रम को भी बिल्कुल तय समय पर शुरू और खत्म करना उनकी प्राथमिकता में शामिल रहता था। नये रचनाकारों, लेखकों को प्रोत्साहित करना भी उनकी प्राथमिकता थी। इसी प्राथमिकता के कारण सर ने हमे भी जोड़ा था। नयी प्रतिभाओं को उभारने और दूर-दराज के क्षेत्रों के विद्यार्थियों में भी साहित्य के प्रति रूचि जगाने के लिए निरंतर रचना शिविरों का आयोजन कर स्वयं प्रशिक्षण देते थे। मेरा पहला लेख भी 31 अगस्त 2011 को देशबंधु अखबार में ही छपा था जो कि किन्नरों पर केंद्रित था।
तमाम व्यस्तताओं के बावजूद उन्होंने कभी अपनी व्यस्तता का एहसास नहीं होने दिया। कार्यक्रम के बीच में जब भी उन्हें समय मिलता था, हमलोगों के साथ बैठकर काफी देर तक बातचीत किया करते थे। उस दौरान (2011-12) मुझे पीएच.डी. से सम्बन्धित सामग्री मिलने में भी काफी दिक्कतें आ रही थी। जब मैने सर से इसकी चर्चा की, तब उन्होंने अविलंब कई जगह फोन लगाकर मुझसे बात कराई और उन्हें मेरी मदद करने के लिए कहा। ‘देशबंधु’ के पुस्तकालय से भी मुझे काफी सहयोग मिला।
सर छत्तीसगढ़ के एकमात्र केन्द्रीय विश्वविद्यालय गुरु घासीदास को लेकर भी अपनी चिंता व्यक्त किया करते थे। वे विश्वविद्यालय के कोर्ट के सदस्य भी थे। वे एक बार बिलासपुर किसी कार्यक्रम में शामिल होने आये थे। उस दौरान गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के अध्यक्ष (डॉ. एस.के. लांझियाना) और सचिव (डॉ. हरित झा) ने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। उनसे जैसे ही मैने इस बारे में बात की, तो उन्होंने तुरंत रजामंदी दे दी। उन्होंने कहा कि हम होटल ईस्ट पार्क में रूके हैं, तुमलोग वहीं आ जाना। फिर सर से घंटों वहाँ बातचीत होती रही। उनके आत्मीय व्यवहार से किसी को भी नहीं लगा कि उनकी पहली मुलाकात हो रही है। उन्होंने हमलोगों को रायपुर आने का भी आमंत्रण दिया और हर प्रकार के सहयोग का आश्वासन की बात भी कही।
आज सर हमारे बीच शारीरिक तौर पर भले ही मौजूद नहीं रहें, लेकिन उनकी आत्मीयता, सहजता और लोकप्रियता सदा लोगों के बीच बनी रहेगी। उनमें लोगों को जोड़ने की जो कला थी, वह विरले ही कर सकते हैं। उनके असमय चले जाने से ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे मुझे छत्तीसगढ़ से जोड़ने की कड़ी भी समाप्त हो गई है। मन के भीतर एक खालीपन महसूस हो रहा है। एक ऐसा खालीपन जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना बेहद मुश्किल है। उनकी कमी मुझे हर पल कचोटती रहेगी। उनका व्यवहार, उनकी आत्मीयता, सहजता, सरलता मेरे लिए अविस्मरणीय है। राष्ट्रीय स्तर की शख्सियत होते हुए भी उन्होंने हमे जो महत्व दिया, उसे ताउम्र नहीं भुलाया जा सकता। उनके व्यक्तित्व की अमिट छाप मेरे मन-मस्तिस्क में हमेशा बनी रहेगी। इतने बड़े विद्वान व्यक्ति का अचानक चले जाना पत्रकारिता और साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति तो है ही साथ ही मेरी व्यक्तिगत क्षति भी है। इस भारी मन को लगातार सांत्वना देने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन यह मानने को तैयार नहीं कि सर हमारे बीच से चले गये हैं। मेरा मन बार-बार यही पूछ रहा है कि कहाँ वे चले गये? सर के व्यक्तित्व का हम अपने जीवन में थोड़ा भी अनुकरण कर सके, तो वह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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