चतुर्दिक

क्या भारत एक बंधक राष्ट्र है?

 

भारत के सर्वाधिक धनाढ्य व्यक्ति 67 वर्षीय मुकेश अंबानी के 29 वर्षीय सबसे छोटे बेटे अनंत अंबानी की वीरेन मर्चेंट की 29 वर्षीय बेटी राधिका मर्चेंट से शादी की खबरें जिस तरह देश-विदेश में फैली उन्हें जानकर अचानक आंध्र प्रदेश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट तरिमेला नागीरेड्डी (11 फरवरी 1917-20 जुलाई 1976) की मृत्यु के बाद प्रकाशित पुस्तक ‘इंडिया मार्टगेज्ड’ (1978) की याद आ रही है। आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में जन्मे तरिमेला नागीरेड्डी (टी.एन) की स्कूल शिक्षा कृषि वैली में और बाद की शिक्षा लोयोला कॉलेज से हुई थी। बीएचयू में वे एम.ए. में अर्थशास्त्र के छात्र थे। वहाँ वे छात्र संघ के अध्यक्ष भी रहे थे। उनकी क्रान्तिकारी सक्रियता के कारण उन्हें बीएचयू से निष्कासित किया गया था। मद्रास राज्य में मद्रास विधानसभा के वे 1951 से 1953 तक सदस्य थे। 1957 से 1962 तक वे लोकसभा के सदस्य रहे। वे 1962 से 1967 तक आंध्र प्रदेश विधानसभा में विरोधी दल के नेता थे। विधानसभा और लोकसभा का चुनाव उन्होंने अनंतपुर से जीता था।

कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन (1964) के बाद उन्होंने माकपा की सदस्यता ली और माकपा के विधायक 1967 में बने। भारत के पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी (19 मई 1913 – 1 जून 1996) उनके निकटतम सम्बन्धी थे। तरिमेला नागीरेड्डी ने 1968 में माकपा से अलग होकर डी वी राव, चंद्रपुल्ला रेड्डी और कोल्ला वैंकैया के साथ मिलकर आंध्र प्रदेश कोऑर्डिनेशन कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज (आंध्र प्रदेश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की समन्वय समिति) की स्थापना की। टी. नागीरेड्डी 1946-1951 के प्रसिद्ध तेलंगाना संघर्ष में सक्रिय रहे थे। वे सीपीआई के 1948 के ‘आंध्र थीसिस’ के लेखकों में थे।

टी. नागीरेड्डी ब्रिटिश भारत में ही नहीं, स्वाधीन भारत में भी कई बार जेल गए। ‘युद्ध का आर्थिक प्रभाव’ पुस्ति‌का के प्रकाशन के बाद 1940 में उन्हें एक साल के कठोर कारावास की सजा दी गयी थी। 1941 में उन्हें भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था। 1946 में पुन: उनकी गिरफ्तारी हुई। 1951 के आम चुनाव के कुछ पहले उन्हें गिरफ्तार किया गया था और 1955 में धारा 144 तोड़ने के आरोप में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी का यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा। 1962 और 1964 में भारत सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत उन्हें गिरफ्तार किया गया था। 1969 में उनकी दो बार गिरफ्तारी हुई थी।

टी. नागीरेड्डी की पुस्तक ‘इंडिया मार्टगेज्ड’ का प्रकाशन उनके नाम पर स्थापित टी.एन. मेमोरियल ट्रस्ट ने 1978 में किया। इसका तेलुगू अनुवाद 1980 में प्रकाशित हुआ, जिसके बाद में कई संस्करण आए। अंग्रेजी अनुवाद के भी कई संस्करण प्रकाशित हुए। इस प्रस्तक का हिन्दी अनुवाद 2011 में पहली बार प्रकाशित हुआ। टी. नागीरेड्डी की इस स्थापना ‘भारत एक बंधक राष्ट्र’ है, से असह‌मत लोग पहले भी थे और अब भी होंगे, पर उन्होंने आँकड़ों सहित जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं, उन्हें नकारना उस समय भी कठिन था और आज भी कठिन है, छियालीस वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक का इस समय स्मरण जिन कई कारणों से है, उनमें एक बड़ा महत्वपूर्ण कारण देश की वर्तमान स्थिति है।

स्वाधीन भारत में आरम्भ से अब तक यह सवाल बार-बार उठता है कि भारत की आजादी से वास्तविक लाभ किसे पहुंचा है? यह सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि 80 करोड़ आबादी को सरकार 5 किलो मुफ्त अनाज दे रही है। सरकार भाग्य-विधाता है और देश की जनता उसके रहमो-करम पर है। 1947 से अब तक देश में जिस किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन की सरकार रही हो, स्थितियाँ पूर्ववत हैं। समस्याएँ और विकराल हो चली हैं, लगभग पैंतालीस पचास वर्ष पहले टी. नागीरेड्डी ने यह लिखा था- “राजनीतिक नियन्त्रण में चाहे कितना भी बाहरी परिवर्तन हुआ हो, लेकिन न तो हमारी सामाजिक व्यवस्था में, और न ही आर्थिक संगठन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। साम्राज्यवादी शोषण और ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा गहराई से प्रवेश कर चुके हैं।” 1996 में देश में जितनी हिंसाएँ होती थी, उनसे कहीं अधिक देश के विविध हिस्सों में 2024 में हो रही है।

टी. नागीरेड्डी ने आंध्र प्रदेश विधानसभा से इस्तीफा देते समय यह कहा था- “विधानसभाएँ गप्पबाजी का अड्डा बन चुकी हैं तथा जनता के हितों के नाम पर उपहास करने का अखाड़ा बन चुकी हैं… मैं सदन को बताना चाहता हूं कि यदि आप सोचते हैं कि बहसों से, विचार-विमर्श से या निर्णयों से मुल्क की बदतर होती हालत को आप सुधार सकते हैं, तो मेरी ही तरह आप भी भ्रम में रह रहे हैं।…यदि आप सोचते हैं कि इस विधानसभा या संसद की कार्यवाहियों से आप सरकार की राष्ट्र विरोधी नीतियों को रोक सकते हैं, तो मुझे विश्वास है कि मेरी ही तरह आपका भ्रम जल्दी ही दूर हो जाएगा।”

टी. नागीरेड्डी के समय तक आंध्र प्रदेश में और केन्द्र में कांग्रेस का शासन था। उस समय से अब तक कई राजनीतिक दलों ने सत्ता संभाली, पर समस्याएँ और विकराल होती गयी है। टी. नागीरेड्डी ने तथ्यों, आँकड़ों, उदाहरणों, प्रमाणों आदि के आधार पर यह स्पष्ट किया था कि जिस प्रकार आर्थिक रूप से कमजोर और ऋणग्रस्त व्यक्ति बंधुआ मजदूरी के जाल में फँस रहा है। उसी प्रकार भारत भी साम्राज्यवादी आर्थिक नीतियों में जाल में फँसकर एक ‘बंधक राष्ट्र’ बन चुका है। स्वाधीन भारत को ‘बंधक राष्ट्र’ कहना अनेक लोगों को नागवार लग सकता है, पर क्या सचमुच हम उन तथ्यों, आँकड़ों को गलत ठहरा सकते हैं, जो ‘इंडिया मार्टगेज्ड’ पुस्तक में है। बाद के पैंतालीस वर्ष की कथा उससे नितान्त भिन्न है, इसे शायद ही कोई राजनीतिक अर्थशास्त्री कहे।

एक तर्क यह दिया जा सकता है कि टी. नागीरेड्डी का भारत-सम्बन्धी मूल्यांकन ‘एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन’ है। यह मूल्यांकन जिन तथ्य आँकड़ों पर आधारित हैं, वे कहीं से भी गलत नहीं हैं। टी. नागीरेड्डी पर यह अभियोग लगाया गया था कि वे समू‌ल परिवर्तन के लिए साजिश कर रहे थे। उन्होंने लिखा- “क्या यह विस्मयकारी नहीं है कि जो लोग आने वाले दसियों वर्षों तक विदेशी वित्तीय हितों के हाथों इस मुल्क के समूचे संसाधनों को बेचते रहे हैं, वे ही हम पर देशद्रोही होने का अभियोग लगा रहे हैं।” उनके समय के भारत और आज के भारत में बहुत अधिक अंतर है। इंदिरा गांधी के समय का भारत और नरेन्द्र मोदी के समय का भारत एक नहीं है।

1991 की नव उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाने वाला भारत पहले के भारत से भिन्न है। देश के समूचे संसाधनों को बेचे जाने की बात जब टी. नागीरेड्डी ने कही थी, उस समय भारत में निजी पूँजी का आज जैसा वर्चस्व नहीं था। सत्तर के दशक के आरम्भ, 1971-72 में ही टी. नागीरेड्डी ने भारत में विदेशी पूँजी की भूमिका पर प्रकाश डाला था और दलाल पूँजीपति के साथ सामन्तवाद पर विचार किया था। उनके अनुसार- “भारतीय समाज पर आज भी साम्राज्यवाद तथा सामन्तवाद का प्रभुत्व है, और भारतीय शासक दलाल पुँजीपति और भू-सामन्त हैं, जो साम्राज्यवाद तथा सामन्तवाद के हितों की रक्षा कर रहे हैं।”

टी. नागीरेड्डी शूद्र थे। कांचा इलैया ने उनके नजरिये से यह विचार किया है कि “क्या ब्राह्मण क्रान्ति ला सकते हैं?” अस्मिता विमर्श के आज के दौर में किसान, मजदूर, युवा एवं छात्र समुदाय के बजाय जाति आधारित विमर्श महत्वपूर्ण है। बांग्लादेश में अभी जो सत्ता-पलट हुआ है, उसमें छात्रों की भूमिका प्रमुख थी, जिन्होंने आरक्षण विरोधी आन्दोलन की शुरुआत की थी। टी. नागीरेड्डी को ‘कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी दिशा का अद्वितीय प्रचारक’ कहा गया है। उनके विचार चिंतन में भू-स्वामी, सामन्तवाद, साम्राज्यवाद, दलाल पूँजीपति वर्ग का विशेष स्थान है। उन‌का निष्कर्ष यह है कि भारत को ऐसी ही शक्तियों ने ‘बंधक राष्ट्र’ बना डाला है। आज देश में जो प्रमुख उद्योगपति, पूँजीपति और कॉरपोरेट्स हैं, उनमें से कोई भी सत्तर के दशक में प्रमुख नहीं था।

मुकेश अंबानी के पिता धीरूभाई अंबानी ने पहले गिरनार की पहाड़ियों पर तीर्थ यात्रियों को पकौड़े बेचने से अपने व्यवसाय की शुरूआत की थी। 200 रुपये के वेतन पर उन्होंने पेट्रोल पम्प पर काम किया था। 1986 में उन्होंने रिलायंस कमर्शियल कॉम्पोरेशन की स्थापना की। बाद में 8 मई 1973 को इसका नाम बदल कर रिलायंस इंडस्ट्रीज कर दिया गया। इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में मुकेश अंबानी का व्यापार चमका, जिसने नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में ऊँचाइयाँ प्राप्त की। भारत के दो बड़े पूँजीपति और कॉरपोरेट अंबानी और अडानी के आर्थिक विकास के पीछे इन्दिरा गांधी, प्रणव मुखर्जी एवं नरेन्द्र मोदी की प्रमुख भूमिका रही है, आज़ादी के अमृत महोत्सव का हम जितना भी गुणगान करें या ‘घर-घर तिरंगा’ का भी जितना प्रचार करें, मुख्य सवाल यह है कि भारत दुनिया के देशों में आर्थिक असमानता में नम्बर एक कैसे बना? आज जितनी अधिक आर्थिक असमानता है, उतनी पहले कभी नहीं थी।

टी. नागीरेड्डी ने अपने समय में भारतीय समाज पर साम्राज्यवाद तथा सामन्तवाद का जो प्रभुत्व देखा था, वह हमारे आज के समय में है या नहीं? अब साम्राज्यवाद सामन्तवाद की ही नहीं, पूँजीवाद, पूँजीपति, कॉरपोरेट आदि की भी कम चर्चा होती है। देश में कुछ गिने-चुने बौद्धिक है, जो इसे ओर ध्यान देते-दिलाते हैं। टी. नागीरेड्डी स्वाधीन भारत की आरम्भिक स्थिति पर ध्यान देते हैं, यह बताते हैं कि भारत में विदेशी पूँजी कायम ही नहीं रही, उसमें निरन्तर वृद्धि होती गयी है। गुन्नार मिर्डल (6.12.1898 – 17.5.1987) ने ‘एशियन ड्रामा: एन इन्क्वायरी इन्टू द पोवर्टी ऑफ नेशंस’ (1968) में दक्षिण एशियाई मुल्कों के आर्थिक और सामाजिक हालत पर विचार किया था और इसे औपनिवेशिक व्यवस्था के बिखराव के शुरू होने के समय से बहुत अलग नहीं माना था।

भारतीय पूँजीपति का ‘राष्ट्रीय पूँजीपति’ की भूमिका में न रहकर दलाल पूँजीपति की भूमिका में आने की अपनी एक कथा है, जिस पर अब अधिक विचार नहीं किया जाता। लगभग तीस वर्ष पहले इन पंक्तियों के लेखक ने अपने एक लेख- ‘सत्ता के दलाल और दलालों की सत्ता’ में दलालों की वर्चस्वकारी भूमिका पर संक्षेप में विचार किया था। यह समझना और समझाना गलत है कि राजनीतिक आजादी के बाद भारत पर किसी प्रकार का साम्राज्यवादी नियन्त्रण नहीं रहा या भारत ने साम्राज्यवाद से अपना सम्बन्ध समाप्त कर लिया। साम्राज्यवाद से जुड़े हैं दलाल पूँजीपति। टी. नागीरेड्डी उसे ‘साम्राज्यवाद के सह उत्पाद’ के रूप में देखते हैं। साम्राज्यवाद ने पुराने औपनिवेशिक देशों में अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर कई नये रूप ग्रहण किए, जिनमें एक रूप ‘सहयोग’ (कोलोबरेशन) है।

भारत-अमेरिकी सहयोग से इसे समझा जा सकता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कई प्रमुख पूँजीवादी देशों में है, पर अमेरिकन पूँजी ही सब पर प्रमुख रखती है। औपनिवेशिक शासन में भारत में ब्रिटिश पूँजी का आधिपत्य था, जिसे सत्ता-हस्तान्तरण (1947) के बाद समाप्त नहीं किया गया। वह पूँजी जारी रही और उसकी स्थिति मजबूत हुई। भारत जैसे देश में विगत 75 वर्ष में विदेशी पूँजी और अमेरिकी साम्राज्यवाद ने जो महाजाल फैलाया है, उसे छिन्न-भिन्न करने का कोई आसार दिखाई नहीं देता। नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की उष्टत्रयी ने एक साथ मिलकर साम्राज्यवादी निवेश का द्वार खोला, पब्लिक सेक्टर के स्थान पर प्राइवेट सेक्टर महत्वपूर्ण हुआ, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है और उसे बचाने के लिए संघर्षरत लोगों को राष्ट्रविरोधी, उग्रवादी, नक्सली और माओवादी कहने के साथ देशद्रोही कहना भी मामूली बात है।

स्वाभाविक है इस प्रश्न का खड़ा होना कि क्या भारत एक ‘बंधक राष्ट्र’ है? स्वाधीन भारत में सत्तर के दशक तक टाटा की वृद्धि दर 43 प्रतिशत और बिड़ला की 50 प्रतिशत थी। विगत तीस-पैंतीस वर्ष में अंबानी-अडानी की संपत्ति में इतना अधिक इजाफा कैसे हुआ? क्यों हुआ? क्या यह ‘राज्य’ (स्टेट) के सहयोग के बिना संभव था? अकारण नहीं है कि इसी दौर में राज्य की जनविरोधी भूमिका बढ़ती गयी है।

क्या यह समय देश के सम्बन्ध में सही और सार्थक ढंग से विचार करने का समय नहीं है? क्या यह समय विचार करने का है या नहीं कि भारत एक ‘बंधक राष्ट्र’ है? मुकेश अंबानी देश के सबसे अमीर व्यक्ति हैं। दूसरे स्थान पर गौतम अडानी हैं। सुब्रमण्यम स्वामी ने अभी एक इंटरव्यू में यह कहा है कि मोदी को अडानी अपनी जेब में रखते हैं। नीरा राडिया प्रकरण बहुतों को याद होगा। उसने कहा था कि अंबानी की जेब में 300 सांसद रहते हैं। अभी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद माधवी पुरी बुच का नाम अधिकांश लोग जान गये हैं, जो पहले सेबी (सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) की पूर्णकालिक समस्य थीं और अब अध्यक्ष हैं। अपने ऊपर लगे आरोपों के बाद अभी तक उन्होंने न इस्तीफ़ा दिया है और न उनसे इस्तीफे की माँग की गयी है।

वास्तविक रूप में हमारा देश क्या सचमुच हमारा अपना देश है? विपक्षी सांसद की ही नहीं, विपक्षी नेताओं का भी माइक कई बार संसद में बंद किया गया है। जब जनप्रतिनिधियों की आवाज ही नहीं सुनी जा रही हो, तो जन-जन की आवाज कैसे सुनी जाएगी? किस तरह से सुनी जाएगी? देश के जिन दस बड़े धनिकों के नाम- मुकेश अंबानी, गौतम अडानी, सावित्री जिंदल और परिवार, शिव नडार, दिलीप संघवी, साइरस पूनावाला, कुमार, बिड़ला, राधा किशन दमानी, कुशाल पाल सिंह, रवि जयपुरिया फोर्ब्स की सूची में आता है, उनमें हम सब केवल अम्बानी-अडानी के नाम से सुपरिचित हैं। इनके काम की सही और विस्तृत जानकारी इस क्षेत्र में कार्यरत बहुत कम लोगों को है। मुकेश अंबानी भारत के सबसे अधिक अमीर और दुनिया के 11 वें स्थान पर धनपति हैं। उनकी कुल निवल प्राप्ति (नेट वर्थ) 113.9 अरब डॉलर (9.3 लाख करोड़ रुपये) है। मुकेश अंबानी की कुल सम्पत्ति कब, कैसे कितनी बढ़ी, इसे उनके जीवनी-लेखक या फिर कॉरपोरेट अर्थशास्त्री अधिक जानते हैं। हमीश मैकडोनाल्ड की धीरूभाई अंबानी पर लिखित जीवनी ‘द पौलिस्टर प्रिंस’ पर भारत में प्रतिबन्ध लगाया गया था।

मुकेश अंबानी के बेटे अनंत अंबानी की शादी के पहले, शादी और शादी के बाद जिस तरह के आयोजन हुए और उनमें देश-विदेश की प्रमुख हस्तियों की जैसी उपस्थिति रही, उससे एक संदेश स्पष्ट था कि भारत जैसे देश में धन-दौलत और अपने रसूख के कारण आज सर्व प्रमुख व्यक्ति वही हैं। इस शादी समारोह में कौन व्यक्ति उपस्थित नहीं था? जिन्हें हम विशिष्ट जन और सेलिब्रेटी कहते हैं, वे सब वहाँ उपस्थित थे। यह शादी समारोह एक अर्थ में सत्ता-समारोह भी था कि जो वास्तविक सत्ता है, वह हमारे हाथ में है। क्या यह मानना उचित होगा कि वहाँ लगभग दो हजार जो उपस्थित थे, वे ही भारत के सर्वस्व हैं। क्या भारत इनके यहाँ बंधक नहीं है? इस शादी की चर्चा दुनिया की सबसे चर्चित और महंगी शादी के रूप में की गयी, नर्तकों और नर्तकियों ने नृत्य करने के लिए या अन्य ने अपने परफार्मेंस के लिए कितने करोड़ रुपये लिए, इसकी भी चर्चा हुई, पर इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं हुई कि 142 करोड़ की आबादी वाले भारत के वास्तविक स्वामी ये ही हैं।

वहाँ ‘सदी के महानायक’ के साथ भारत रत्न से विभूषित व्यक्ति भी उपस्थित थे। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मंत्री, सांसद सब वहाँ उपस्थित थे। उपस्थित जनों के आपस में जितने भी मतभेद थे, वे सब गायब थे। सब कॉरपोरेट के साथ थे। कांग्रेस के नेताओं की भी वहाँ उपस्थिति थी। बिहार और उत्तर प्रदेश के समाजवादियों की वहाँ उपस्थिति समाज‌वाद और पूँजीवाद या कॉरपोरेट सबको एक कर घाल मेल का एक अजीब दृश्य उपस्थित कर रही थी। उद्योगपतियों, व्यवसायियों, पूँजीपतियों और कॉरपोरेटों का वहाँ उपस्थित होना जायज था, अभिनेताओं अभिनेत्रियों और क्रिकेट खिलाड़ियों का संसार भिन्न है, यद्यपि सामान्य जन इन सब की आरती उतारते नहीं थकता। अनंत अंबानी की शादी में शंकराचार्य भी उपस्थित थे। केवल गांधी परिवार आमंत्रित होने के बाद भी वहाँ उपस्थित नहीं था। उस आयोजन में सरकार भी थी और सरकारी पुलिस भी। यह कॉरपोरेट और सर्वाधिक धनाढ्य व्यक्ति की वह ताकत है, जिसमें वे सब शामिल थे, जिनके हाथ में सत्ता है। ‘इंडिया अलायंस’ में शामिल अनेक दलों के नेताओं की वहाँ उपस्थिति यह बता रही थी कि हम सब एक दूसरे के सहयोगी हैं। वहाँ रामदेव भी नाच रहे थे। उस दृश्य को देखकर अगर किसी को ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी का आरम्भिक भाग याद आया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, उस जमावड़े का स्पष्ट संदेश और अर्थ है कि हम सब देश के निर्माता हैं।

टी. नागीरेड्डी ने अपनी प्रस्तक ‘इंडिया मार्टगेज्ड’ में तथ्यों, आँकड़ों और तर्कों के साथ यह प्रमाणित किया था कि भारत एक ‘बंधक राष्ट्र’ है। क्या अनंत अंबानी की शादी ने यह संदेश नहीं दिया है कि भारत एक ‘बंधक राष्ट्र’ है, जहाँ पूँजीपति के साथ समाजवादी है, शासक दल के नेताओं के साथ विरोधी दल के नेतागण हैं और भोग को महत्व देनेवालों के साथ योगगुरु भी हैं

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रविभूषण

लेखक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919431103960, ravibhushan1408@gmail.com
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