चतुर्दिकदेश

आजादी : सपना और हकीकत

 

जिस आजादी का सपना प्रेमचन्द (31.7.1880-8.10.1936), भगत सिंह (28.9.1907 – 23.3.1931), अशफाकुल्ला खान (22.10.1900 – 19.12.1927) और गणेश शंकर विद्यार्थी (26.10.1990 – 25.3.1931) सहित अन्य कइयों ने देखा था, वह आजादी भारत को नहीं मिली। 15 अगस्त 1947 की आजादी को उस समय ‘माउंटबेटन मार्का आजादी’ भी कहा गया था। राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के समय सामान्य जनता ने जो सपने देखे थे, वे कभी साकार नहीं हुए। उस समय एक साथ कई धाराएँ सक्रिय थी। आजादी का मतलब केवल राजनीतिक आजादी नहीं था। भगत सिंह ने साफ शब्दों में कहा था कि हमें वैसी आजादी नहीं चाहिए, जिसमें लॉर्ड इरविन (16.4.1881- 23.12.1959, भारत में 1926 से 1931 तक गवर्नर जनरल एवं वायसराय) के स्थान पर कोई भारतीय गद्दी पर बैठ जाए।

स्पष्ट था कि उनके लिए आजादी का अर्थ ‘सत्ता का हस्तान्तरण’ भर नहीं था। वे चाहते थे कि स्वराज्य किसानों, मजदूरों और श्रमिकों का हो, न कि पूँजीपतियों, अधिकारियों, जमीदारों, सामन्तों और उनके समर्थकों सहयोगियों का। प्रेमचन्द की कहानी आहुति’ (1930) की नीलमणि भी लगभग यही बात कहती है कि ‘जॉन’ के स्थान पर ‘गोविन्द’ के बैठने का अर्थ स्वराज्य नहीं है। प्रेमचंद  स्पष्ट शब्दों में आर्थिक स्वराज्य’ की बात कर रहे थे। भगत सिंह ने कहा था  “हमारा मतलब जनता की आर्थिक स्वतन्त्रता से है और इसी के लिए हम राजनीतिक ताकत हासिल करना चाहते हैं.. एक किसान को इससे क्या फर्क पड़ेगा, यदि लार्ड इरविन की जगह पर सर तेज बहादुर सप्रू (8.12.1875- 20.1.1949, सुप्रसिद्ध वकील और राजनेता, गोपाल कृष्ण गोखले, 9.5.1866-19.2.1915, की उदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाने वाले) आ जाएँ।” भगत सिंह और अशफाक उल्ला खान को फाँसी दी गयी, गणेश शंकर विद्यार्थी साम्प्रदायिक दंगे में मारे गये और प्रेमचन्द का निधन भारत की आजादी के ग्यारह वर्ष पहले हो गया।

 

भगत सिंह

राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन मात्र राजनीतिक आन्दोलन नहीं था, वह सांस्कृतिक आन्दोलन भी था। ठहरे हुए भारतीय समाज को बदलने का भी आन्दोलन था। उस आन्दोलन में कम और कभी-कभार ही सही आर्थिक सवाल जो किसानों और श्रमिकों के थे, भी प्रमुख थे। सामप्रदायिक शक्तियाँ जन्म ले चुकी थी, और आन्दोलन को कमजोर और विभाजित करने के लिए मचलने लगी थीं। 1920 के दशक में विभिन्न स्थानों पर हुए साम्प्रापयिक दंगे उदाहरण हैं। आर्य समाज (1875), भारत धर्म महामण्डल (1900) और हिन्दू महासभा (1915) के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (1925) का जन्म हुआ था। धीरे-धीरे राजनीतिक आन्दोलन प्रमुख हुआ और अन्य सारी परिवर्तनकामी शक्तियाँ हाशिये पर चली गयी।

एकमात्र मकसद हुआ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ भारत विभाजित हुआ, हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए और भारत पाकिस्तान की तरह आर्थिक राष्ट्र न बनकर ‘सेकुलर’ राष्ट्र बना। संविधान बना। 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारत प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ बना। संविधान के बयालीसवें संशोधन (1976) के बाद अब यह ‘समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ है। 1947 के बाद कवियों, कलाकारों, लेखकों और बुद्धि‌जीवियों ने भी इस आजादी पर सवाल उठाये। ऐसे लोगों की एक लम्बी सूची है। दिनकर ने लिखा- “अटका कहाँ स्वराज? / बोल दिल्ली ! तू क्या कहती है? / तू रानी बन गयी / वेदना जनता क्यों सहती है?” उर्दू-हिन्दी कविताओं की एक अच्छी खासी संख्या है, जो इस आजादी पर सवाल उठाती रही। राजनीतिक आजादी का स्वरूप भी भिन्न था।

माउंटबेटन (25.6.1900 – 27.8.1979) स्वतन्त्र भारतीय संघ के पहले गवर्नर-जनरल (1947-48) थे। अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के लिए जो सत्ता संरचना और शासन व्यवस्था कायम की थी, वह यथावत बनी रही। स्ट्रक्चर वही रहा, जिससे अंग्रेज शासन कर रहे थे और आजादी के बाद उसी स्ट्रक्चर के तहत सत्ताधीशों ने भारत पर शासन किया है। नतीजा सामने है, सब कुछ ध्वस्त-सा हो रहा है। आजादी के इस अमृत महोत्सव में हम इसे नहीं देखें, यह दूसरी बात है।

आज़ाद भारत में केन्द्र में जितनी सरकारें आयीं, किसी ने इस सत्ता-संरचना और शासन-व्यवस्था को बदलने के लिए कुछ नहीं किया। क्या इसके व्यवस्था के बिना भारत अपना विकास कर सका? आज भारत भीतर से खोखला हो रहा है और घर-घर तिरंगा फहराने को कहा जा रहा है। श्यामलाल गुप्त- पार्षद (9.9.1996-10.8.1997) ने गणेश शंकर विद्यार्थी के अनुरोध पर जिस झण्डा गीत’ (विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा) की रचना की, उस झण्डा या राष्ट्रीय ध्वज के अभिकल्पक तेलुगु भाषी पिंगली वैंकय्या (2.8.1876-4.7.1963) थे। इसके पहले तीन बार राष्ट्र ध्वज बना था। कांग्रेस के विजयवाड़ा अधिवेशन (1923) में पिंगली वेंकय्या ने दो रंगों – लाल और हरा, का बना जो झंडा गाँधी को दिखाया था, दिया था, उसमें लाल और हरा रंग भारत के दो प्रमुख समुदायों – हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्व करता है। गाँधी ने सुझाव दिया था कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी होनी चाहिए और राष्ट्र की प्रगति के संकेत के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए।

अब राष्ट्रीय ध्वज में केसरिया रंग देश की शक्ति और साहस का, सफेद शांति और सच्चाई का, हरी भूमि उर्वरता का प्रतीक है। अब अशोक चक्र ध्वज के केंद्र में है। आजादी के तुरन्त बाद आर एस ने इस तिरंगे की आलोचना की थी। 14.8.1947 के ‘आर्गनाइजर’ में हिन्दू राष्ट्र की बात कही गयी थी। और ‘तिरंगा’ पर सवाल उठाया गया था। यह कहा गया था कि हिन्दू इसका आदर नहीं करेंगे। ‘आर्गनाइजर’ ने संख्या 3 को बुरा माना था और इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव की बात कही थी। आजादी के पहले 17 जुलाई 1947 के ‘आर्गनाइजर’ में केवल केसरिया रंग की माँग की थी। अब प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी तिरंगे को घर-घर लगाने को कह रहे हैं।

आजादी से जुड़े जितने प्रतीक थे, वे सब विकृत किये जा चुके हैं ‘भारत माता की जय’ और वन्दे मातरम कहने वाले आजादी के दौर के राष्ट्रभक्तों के सर्वथा विपरीत हैं। जिसने आजादी के आन्दोलने में भाग नहीं लिया, आज वे ही आजादी की रट लगा रहे हैं। आजादी की लड़ाई हिन्दुओं की लड़ाई नहीं थी, स्वतन्त्रता की लड़ाई में शरीक लोगों-नेताओं के दिमाग में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना नहीं थी। आजादी के अमृत महोत्सव की और भारत में अघोषित आपातकाल, फासीवाद और हिन्दू राष्ट्र का है। इस समय के शासक वर्ग को लोकतन्त्र, संविधान, न्याय किसी से कोई मतलब नहीं है पर वह इसी की बातें कर सामान्य जन को भ्रमित कर रहा है। आजाद भारत में आजादी के सारे सपने चकनाचूर कर दिए गए। 1947 की आजादी के बाद यह स्वीकारा गया कि अब आजादी का प्रश्न गौण है। प्रग सामन्ती शक्तियाँ कायम रहीं, नये-नये सामन्त और जमींदार सामने आये, लोकतन्त्र मात्र रूप में रहा, अन्तर्वस्तु में नहीं, राजनैतिक दल जन-विमुख होते गये, संसद में करोड़पति और अपराधी बढ़ते गये, संविधान कागजी बनकर रह गया, अभिव्यक्ति को स्वतन्त्रता बाधित की गयी, संस्थाएं खोखली की गयी, असहमति और विरोध को राष्ट्रद्रोह समझा गया। इक्कीसवीं सदी के भारत में ही नौजवानों ने आजादी से जुड़े नारे लगाये।

कल्याणकारी लोकतन्त्र पूर्णत: कल्याणकारी नहीं था। आजादी के पहले का ‘बम्बई प्लान’ उद्योगपतियों के लिए था, उस समय का पब्लिक सेक्टर मुनाफा देने के बाद भी आज बेचा जा रहा है। आजादी के अमृत महोत्सव के समय यह जानना जरुरी है कि 75 वर्ष के स्वाधीन भारत में विष कब और किस तरह घोला? आजादी के समय अर्ध रात्रि में नेहरू ने ‘ट्रस्ट विद डेस्टिनी’ में जो भी कहा था, वैसा कुछ नहीं हुआ। वंशवाद की राजनीति बढ़ी। इन्दिरा गाँधी ने अपने शासन के आरम्भ में ही राजनीति से मूल्य आदर्श, सिद्धान्त, नैतिकता सबको बाहर कर दिया। सुविधा के लिए स्वाधीन भारत को हम 1964-67, 1967 से 1980-84, 1988-89 से 2014 और 2014 से अबतक के समय में विभाजित कर सकते हैं। इस विभाजन से किसी को आपत्ति हो सकती है, पर 1991 की नवउदारवादी कर्म व्यवस्था के बाद भारत को सर्वथा नये मार्ग पर ला दिया गया। राजीव गाँधी ने हिन्दू कार्ड को महत्व दिया, जिसे नेहरूवियन मॉडल कहा जाता है, वह अस्सी के दशक के मध्य से हिलने लगा और नब्बे के दशक में सब कुछ बदल गया।

अर्थ नीति के बदलने के साथ-साथ राजनीति का रुप-रंग बदलने लगा। परिवर्तनकामी राजनीति क्रमश: गायब होती गयी। समाजवादी, वामपंथी कमजोर पड़ते गये, राजनीति की संस्कृति बदली। धर्मान्ध और साम्प्रदायिक शक्तियाँ अचानक शक्तिशाली नहीं हुई, जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति पर अक्सर एक पक्षीय ढंग से विचार किया जाता है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और केन्द्र में कांग्रेस की। यह समय केवल बाबरी मस्जिद के ध्वंस का नहीं, लोकतन्त्र, संविधान और राज्य को ध्वंस का न सही, उसे दिये गये झटके का भी समय है। अक्सर इन्हें दिये गये धक्कों की कम चर्चा की जाती है। इसे रेखांकित करने की जरूरत है कि 1989 से तीस वर्ष तक भारतीय मतदाताओं ने किसी दल-विशेष को महत्व नहीं दिया था। उसे किसी भी राजनीतिक दल पर भरोसा नहीं था।

चुनाव सुधार

तीस वर्ष तक दलों से मतदाताओं का विश्वास का उठ जाना एक बड़ी घटना है। यहीं से गठबंधन की राजनीति आरंभ हुई। सिद्धान्त हवा हुए, जिनमें वैचारिक एकता नहीं थी, वे सब एकसाथ आए। 1984 में इन्दिरा गाँधी के निर्मात (हत्या) के बाद के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 400 से अधिक सीटें आयी थीं। अब वह औंधे मुँह गिरी हुई है। राजनीतिक दलों के विचार और व्यवहार में अन्तर रहा। उपलब्धियाँ कम नहीं हैं, पर वे किन्हें प्राप्त हुईं। 1990 के पहले कॉरपोरेट सामने नहीं था। हिन्दुत्व की बात भी जोर-शोर से नहीं की जा रही थी। दक्षिणपंथी ताकतों को आगे बढ़ाने में प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप में ही जयप्रकाश नारायण की कम भूमिका नहीं रही.

आज की हकीकत यह है कि भारत ‘कॉरपोरेट-हिन्दुत्व’ मैत्री के हवाले है। यह बिल्कुल न्यू ‘इंडिया’ है, जिसका सम्बन्ध पहले के भारत से नहीं है। भाजपा के बहुमत में आने और नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद आज का भारत मोदी का भारत है। (देखें क्रिस्टोफे जैफरलॉ की पुस्तक ‘मोदीज इन्डिया’ हिन्दू नेशनलिज्म एण्ड द राइज ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी, 2021)

‘मोदीमय भारत के खतरे’ हैं। सभी संस्थाएँ लगभग समाप्त हो चुकी हैं, उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न-चिह्न लग चुका है, आर्थिक असमानता की दृष्टि में दुनिया में भारत अव्वल है। अरबपतियों को संख्या बढ़ती गयी है। गरीबी मिटी नहीं है। भाजपा और नरेंद्र मोदी ने राजनीति की जो संस्कृति विकसित की है, ‘राष्ट्रवाद’ का जो शंख फूंका है, वह देश के लिए खतरनाक है। बहुसंख्यकवाद ने अल्प संख्यकों में भय और असुरक्षा को माहौल पैदा कर दिया है। मानवाधिकार सक्रियतावादियों को विरोधियों को विरोधियों के जेलों में डाला जा रहा है। यूनिवर्सिटियाँ दम तोड़ रही हैं। चारो और से घेराबन्दी कर दी गयी है। राजनीति, अर्थ-व्यवस्था, भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषाएँ सभी संकट ग्रस्त हैं। भारत एक संकटग्रस्त देश है। 2014 में डेमोक्रेसी इंडेक्स (लोकतन्त्र सूचकांक) में भारत दुनिया के देशों में 27 वें स्थान पर था। 2020 में वह 51 वें स्थान पर आ गया और अब त्रुटिपूर्ण लोकतन्त्र (फ्लावड डेमोक्रेसी) की सूची में है।

आजादी की लड़ाई

भारत की बहुसंख्यक जनता को आजादी का सुख नसीब नहीं हुआ है। भारत को इस दशा तक पहुँचाने में हिन्दी प्रदेश की बड़ी भूमिका है। धर्मान्ध राजनीति यहीं फूली-फली है। चुनाव में हिन्दी भाषी जनता ने ही भाजपा को बहुमत दिया है। 2014 के चुनाव में भाजपा को कुल 282 सीट प्राप्त हुई थी, जिसमें 190 सीट हिन्दी प्रदेश से मिली थी। वर्ल्ड इनइक्वैलिटी रिपोर्ट 2022 के अनुसार दस प्रतिशत भारतीयों की आय निचले स्तर की पचास प्रतिशत आबादी की आय से 96 प्रतिशत अधिक है और ऑक्सफेम इंटरनेशनल के अनुसार देश की कुल सम्पत्ति का 75 प्रतिशत से अधिक 1 प्रतिशत धनवालों के पास है। भारत का यह एक प्रतिशत कौन है? कॉरपोरेट, पूँजीपति, ब्यूरोक्रेट्स, सांसद विधायक, दलाल इस एक प्रतिशत में आते हैं। इनके हाथों में आज का भारत गिरवी है। विपक्ष सीन से गायब है। वह अधिक प्रभावशाली नहीं है। ईडी की छापेमारी जारी है। भारत मुट्ठी में बंद है या कैद है। सारी शक्तियाँ अन्यायियों के हाथों में है एक ‘हिन्दू भारत’ ‘बर्बर और हिंस्र भारत’ का निर्माण हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है। जितने नये कानून पिछले वर्षों में बने हैं, वे सामान्य जन के हित में नहीं है।

आजाद भारत की हकीकत यह है कि हम सब अंधी सुरंग में हैं। देश को कई रूपों में, कई स्तरों पर आंतरिक रूप से विभाजित कर दिया गया है, भारतीय संस्कृति के स्थान पर हिन्दुत्व संस्कृति, भारतीय समाज के स्थान पर हिन्दू समाज पर बल दिया गया है। हिन्दुत्व की राजनीति ने देश को पूरी तरह प्रभावित किया है। संस्थाएँ मौजूद हैं, ढाँचा बरकरार है, पर उसका एसेंस समाप्त कर दिया गया है। आगामी दो-तीन वर्ष (विजयादशमी 2025, आर.एस.एस. की जन्मशती) कैसे होंगे, हम नहीं जानते, अंधेरा घना है, पर रोशनियाँ गायब नहीं हुई हैं। अमृत महोत्सव एक सरकारी आयोजन है, आन्दोलनकारियों को आन्दोलनजीवी कहा गया है। छिटपुट आन्दोलन जारी रहेंगे, पर अभी दूर-दूर तक किसी बड़े आन्दोलन- राष्ट्रीय आन्दोलन के चिन्ह दिखाई नहीं दे रहे हैं। राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में सभी वर्ग, समुदाय और समूह के लोग शामिल थे। बाहरी शत्रु से लड़ा जा सकता है, पर आंतरिक शत्रुओं या विरोधियों से नहीं, अभी विरोधी एकता का अभाव है। हकीकत यह है कि भारत अघोषित आपातकाल, अघोषित फासीवाद और अघोषित हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ चुका है। समस्याओं का महाजाल है। यह समय विरोधी शक्तियों के एकजुट और इकट्ठे होने का समय है। चुनाव एकमात्र हल नहीं है और एक नया राष्ट्रीय आन्दोलन शायद गर्भावस्था में हो

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रविभूषण

लेखक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919431103960, ravibhushan1408@gmail.com
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