चतुर्दिक

धर्म, राजनीति और संस्कृति

 

हम सब एक भ्रष्ट और विकृत समय में जीने को अभिशप्त हैं। इस समय का निर्माण जिन शक्तियों ने (मुख्यत: आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक) किया है, उन शक्तियों की पहचान सबको है, ऐसा नहीं कहा जा सकता जिन्हें उनकी पहचान है भी, वे इस समय को बदलने के लिए सामूहिक रूप से शायद ही कृत संकल्प हैं। धर्म और राजनीति आज कहीं अधिक जीवन विरोधी, मानव विरोधी और सृजन विरोधी भूमिका में है। इन दोनों के गठबंधन ने अनेक प्रकार की समस्याएँ खड़ी कर दी है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था धर्म में नये सिरे से प्राण फूंक डाले हैं। अस्सी के दशक के पहले राम जन्मभूमि को लेकर वैसा कुछ नहीं था जैसा लाल कृष्ण आडवाणी की राम जन्मभूमि रथ यात्रा के बाद संभव हुआ। यह सब सत्ता प्राप्ति के लिए था। राम महज एक सीढ़ी थे, जिस पर चढ़कर भाजपा उस ऊँचाई पर पहुँची जिसकी उसने कभी कल्पना नहीं की थी। पहले धर्म का न बाजार था और न उसकी कोई राजनीति थी। वह व्यक्ति के चित्त और स्वभाव में, परिवार के धार्मिक आयोजनों तक अधिक सीमित था। धर्म का प्रदर्शन बाद की घटना है।

 संस्कृत की जिस ‘धृ’ धातु से धर्म’ उत्पन्न है, उसका अर्थ धारण करना या संभालना है। इस प्रकार धर्म का अर्थ टैंक बनकर किसी दूसरी वस्तु को रोकना है। यह शब्द सर्वप्रथम ऋवेद में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक साहित्य में ‘धर्म’ का शब्द का अर्थ उच्च है, व्यापक है। शब्द वही रहते हैं, पर समय के साथ-साथ उसके अर्थ का संकुचन और फैलाव होता जाता है, जिससे अर्थ-संकुचन और अर्थ-विस्तार होता है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि जो शब्द हमारे लिए सर्वाधिक अर्थवान-मूल्यवान थे, उन सब का अर्थ अब पूर्ववत नहीं है, वे अपना मूल और वास्तविक अर्थ खोकर संकीर्ण और मनोनुकूल धर्म ग्रहण कर चुके हैं।

‘धर्म’ शब्द के साथ भी ऐसा ही हुआ है। ‘धर्म’ शब्द की अर्थ-यात्रा पर विचार करने से यह स्पष्ट होगा कि इसके वास्तविक अर्थ का लोप कब, कैसे और क्यों हुआ? वे कौन-सी शक्तियाँ हैं, जो मूल्यवान शब्दों को अपने हित में इस्तेमाल कर रही हैं, उसका वास्तविक अर्थ बदल रही है। अगर धर्म का वास्तविक अर्थ प्रचलन में, व्यवहारादि में कायम होता तो वासुदेव शरण अग्रवाल को ‘धर्म’ का वास्तविक अर्थ शीर्षक से एक स्वतन्त्र लेख लिखने की आवश्यकता क्यों होती? डॉ. अग्रवाल इस शब्द की आयु ‘4000 वर्ष लम्बी’ मानते हैं और इसे एक ऐसे शब्द के रूप में देखते हैं, जिससे हमको पग-पग पर काम पड़ता है। “इसका अर्थ गहरा और विस्तृत है, ‘धर्म’ की अर्थ-यात्रा या विकास-यात्रा एक स्वतन्त्र लेख का विषय हो सकता है। आज ‘धर्म’ शब्द सुन कर क्या सचमुच किसी के मन में सही अर्थों में धार्मिक भाव का जागरण होता है।

विगत तीन-चार दशक में धर्म, नैतिकता, समाज, घर, परिवार, सम्बन्ध, मैत्री, अड़ोस-पड़ोस, कुटुम्ब, समाज, सामाजिकता, शिक्षा, प्रेम सबके अर्थ बदल चुके हैं, जो शब्द कभी खनखनाते थे, अब वे झनझनाते हैं। जो शब्द अपने साथ कभी प्राणवायु लाते थे, वे अब वैसे नहीं रहे। ‘धर्म’ शब्द के सम्बन्ध में वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है- “इस शब्द में अमृत भी है, जिससे आदमी जी उठता है और इसमें ऐसा विष भी है कि यदि उसका पलड़ा भारी पड़ जाए तो समाज के शरीर को मूर्च्छित भी कर सकता है। आज धर्म ने अधर्म का रूप धारण कर लिया है। धर्म का अधर्मी रूप विचार का विषय है क्योंकि मनुष्य के मन में जो ऊँची भावनाएँ हैं, उन्हीं को प्रकट करने का साधन धर्म था; लेकिन मनुष्य ने स्वयं ही इस पवित्र शब्द को अपने नारकीय जीवन का साधन भी बना डाला” आज जब धर्म का वास्तविक स्वरूप और अर्थ मिट चुका है, हमें उस वास्तविक स्वरूप और अर्थ को पुन: एक बार देखना चाहिए।

अथर्व वेद के ‘पृथिवी सूक्त’ में पृथ्वी को ‘धर्मजा घृता’ कहा गया है अर्थात वह धर्म से धारण की हुई है। आज पृथ्वी स्वयं संकट में है। आधुनिक पृथ्वी पुत्रों ने उसे कहीं का नहीं रहने दिया है। भारत एक बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय, बहुभाषी देश है, जिसे एक रंग में रंग देने की कोशिश जारी है। एक ध्रुवीय विश्व में भारत को एक रंग में रंग देने वालों का अमेरिका से गहरा रिश्ता है। एकध्रुवीय विश्व का कंसेप्ट अमेरिका का है। साम्प्रदायिक मत के लिए, धर्म का प्रयोग और हिन्दू को एक धर्म और सम्प्रदाय के रूप में देखने का सिलसिला बाद का है। हिन्दू धर्म का आरम्भ में जो व्यापक अर्थ था, उसे हिन्दुत्व के ‘कंसेप्ट’ से खत्म किया गया और हिन्दुत्व का एक नया अभिलक्षण प्रस्तुत किया गया। पहले अदालत के लिए ‘धर्मासन’ और न्याय करने वाले अधिकारी के लिए ‘धर्मस्थ’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते थे। सुप्रीम कोर्ट का ध्येय वाक्य (मोटो) महाभारत के स्लोक यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः से लिया गया है, जिसका अर्थ है, ‘जहाँ धर्म है, वहाँ जय (जीत) है- सुप्रीम कोर्ट के लोगों में अशोक चक के नीचे यतो धर्मः ततो जयः (या ‘यतो धर्मस्ततो जयः) लिखा हुआ है। भारतीय दर्शन में मनुष्य, समाज और सृष्टि की नीव में जिस एक सस की बात कही गयी है वही धर्म है। धर्म शब्द का आरम्भ में जो ‘नीतिमूलक उच्च अर्थ था, वह अब पूरी तरह मिट चुका है। धर्म के इस क्षणों में सत्य, संयम अक्रोध आदि हैं। आज झूठ का व्यापार करने वाले ही बढ़-चढ़कर धर्म और हिन्दू धर्म की बातें करते हैं।

धम्मं शरणं गच्छामि’ में धम्म’ शब्द का जो ऊँचा अर्थ इष्ट था, क्या उसका एक कण भी आज हम धर्मान्धों के यहाँ देख सकते हैं? आज धर्म का पताका फहराने वालों को वेदव्यास द्वारा धर्म शब्द की की गई व्याख्या समझनी चाहिए। इस व्याख्या को वासुदेव शरण अग्रवाल “सोने के हरूफ़ों में लिखने योग्य’ बताते हैं – “नमो धर्माय महते धर्मो धारयति प्रजा: यत् स्यात् धारण संयुक्तं स धर्म इत्युदाहृतः” अर्थात उस महान धर्म को प्रणाम है, जो सब मनुष्यों को धारण करता है। सबको धारण करने वाले जो नियम हैं वे धर्म हैं। राज्य और धर्म के जिस मेल की बात प्राचीन काल में की गयी थी, वह आज इन दोनों के कुमेल से बहुत भिन्न था। वह एक प्रकार से राज्य और धर्म का सुमेल था। उस समय का धर्ममूलक राज्य सत्य से जुड़ा था। आज भी भारत का ‘राष्ट्रीय आदर्श वाक्य’ ‘सत्यमेव जयते’ है जो  मूलत: मुण्डक उपनिषद् का मंत्र 3.1.6 है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। तब राज्य को सत्य की या धर्म की बुनियाद पर खड़ा माना गया था। धर्म का मतवाद, सम्प्रदायवाद या हिन्दूवाद से उस समय कोई सम्बन्ध नहीं था। महाभारत के अंत में व्यास जी ने भुजा उठा कर कहा था कि धर्म नित्य है, धर्म से ही अर्थ और काम मिलते हैं। व्यास जी की भुजा उसी तरह उठी हुई है, पर आज के दिन लोगों ने धन और काम के पीछे धर्म या सत्य को धता बता दिया है।

अधर्मी घर्म-धर्म की रट लगा रहे हैं। जो विवेकानन्द को माला जपते हैं, वे उनके कथनों पर ध्यान नहीं देते। विवेकानन्द ने धर्म को सम्पूर्ण मानव जीवन में परिव्याप्त माना था, केवल अतीत और वर्तमान में ही नहीं, भविष्य में भी। उनके अनुसार धर्म-शाश्वत आत्मा का शाश्वत ब्रह्म से शाश्वत सम्बन्ध है। (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 4 पृष्ठ 189) धर्म का सम्बन्ध पहले सत्य से था अब नहीं है। राजनीति अब समाज सेवा, जनसेवा न होकर एक व्यवसाय है, निवेश है। शब्दों के अर्थ छुटभैयों ने अपने कर्मों से, धत करमों से बदल डाले हैं। राज करने की, शासन करने की अपनी नीति हुआ करती थी। राजा से सर्वोपरि प्रजा थी, जनता थी। राजा उसी के निमित्त था। गाँधी धर्म और राजनीति का सम्बन्ध स्वीकारते थे पर उनकी इन दोनों की परिभाषा भिन्न थी, उनका कथन है कि जो लोग धर्म का राजनीति से सम्बन्ध नहीं मानते, वे नहीं जानते हैं कि धर्म क्या है? गाँधी के लिए समाज के अंतिम जन का महत्व था। उन्होंने राजनीति को साँप की कुण्डली की तरह देखकर साँप के साथ कुश्ती करने की बात कही है। उनके लिए वह हर शासक पराया था, जो जनमत की अवहेलना करता है।

आरम्भ में प्राकृतिक व्यापार और मनुष्य के आचार परस्पर संबद्ध होते थे। धर्म और सत्य प्रकृति के नियम थे। बाद में ये समाज के नियम बने। रामविलास शर्मा ने ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ खण्ड 1 में ‘धर्म और सत्य- प्रकृति के नियम एवं धर्म और सत्यः समाज के नियम’ पर विचार किया है। पहले धर्म और सत्य का सम्बन्ध था। अब न तो धर्म का वह रूप है और न उसका सम्बन्ध सत्य से है। जिस देश में धर्म, राजनीति एवं संस्कृति पर इतने मूल्यवान विचार रहे हों, उनका गायब होकर अपने निकृष्टतम रूपों में प्रस्तुत होने का सीधा अर्थ है कि भारत ने अब स्वयं अपना अर्थ (भा+रत – प्रकाश में रत) बदल दिया है। अब चारो ओर अंधकार है। स्वतन्त्र भारत के आरंभिक दौर में ही यह पतन आरम्भ हुआ, जो अब चरम पर है। इसे इस मुकाम तक पहुंचाने में आरएसएस एवं उसके राजनीतिक संगठन भाजपा की प्रमुख भूमिका है। उसने धर्म के वास्तविक अर्थ को समाप्त कर एक विकृत एवं मनोनुकूल अर्थ प्रदान किया है। हिन्दुत्व की संस्कृति और राजनीति में जो कुछ मूल्यवान था, सबमें पलीता लगा दिया है। धर्म और राजनीति के इस सहमेल ने एक अकल्याणकारी स्थिति उत्पन्न कर दी है। धर्म का सम्बन्ध सत्य से था न कि सत्ता से। राजनीति का सम्बन्ध सामान्य जन से था न कि पूंजीपति, उद्योगपति और कॉरपोरेट से। लोकतन्त्र लोक का तन्त्र था, न कि कॉरपोरेट का। इसके कारणों की तफसील में अभी जाया नहीं जा सकता, पर यह सब कल्याणकारी राज्य के विघटनकारी राज्य में बदलने, डेमोक्रेसी के कॉरपोरेटोक्रेसी में परिवर्तित होने के बाद हुआ है।

धर्म, राजनीति और संस्कृति का वर्तमान रूप कहीं से भी शुभ नहीं है। चुनावी राजनीति ने वोट प्राप्ति के लिए जनता को अनेक समूहों, समुदायों, जातियों उपजातियों, श्रेणियों में विभाजित कर डाला है। अंग्रेजों ने इस देश पर शासन करने के लिए बाँटो और राज करो’ (डिवाइड एण्ड कूल) को जो नीति अपनायी थी, हमारे देश के शासक वर्गों ने आगे भी वही नीति अपनायी है, जिसके परिणामस्वरूप देश भीतर से खंडित हो रहा है। संस्कृति को अपसंस्कृति में बदलने का कार्य ‘मार्केट कैपिटल’ ने किया है। समय-समय पर हम सब जिन सूक्तियों का उल्लेख करते हैं, जिन कल्याणकारी क्षेत्रों का जाप करते हैं, अब उन सब का कोई अर्थ नहीं है। धर्म, राजनीति और संस्कृति पर आज के संदर्भ में विचार इसलिए आवश्यक है कि जो धर्म का अर्थ नहीं जानते उनके कब्जे में धर्म है, राजनीति जिनके लिए, लूट-महालूट है, वे सत्ता पर काबिज हैं और जिनके लिए ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ ही सब कुछ है, वे हिंदुत्व की संस्कृति का महाराग अलाप कर भारतीय संस्कृति के मूल विचार-स्वभाव को नष्ट करने में लगे हैं।

इस समय धर्म और राजनीति ने मिलकर जिस एक नयी संस्कृति का विकास किया है, वह सत्ता-संस्कृति है। भारत, जो राष्ट्र से कहीं अधिक एक अइडिया था। उसे सुनियोजित ढंग से नष्ट किया जा रहा है। हत्या, भय, झूठ, अपराध और लूट की संस्कृति देश में विकसित हो रही है, ऊपर से सब कुछ लुभावन, मनमोहक और आकर्षक भले दिखाई दे रहा हो, पर समाज की चूलें हिल रही है। धर्म का उपयोग सत्ता प्राप्ति के लिए किया गया और सत्ता पाने के बाद बाद बहुसंख्यकवाद प्रभावी हो रहा है। इकबाल ने जिन कारणों से हमारी हस्ती के न मिटने की बात कही थी, अब उन कारणों को ही समाप्त किया जा रहा है। सावरकर एक सम्प्रदाय-समुदाय में गाँधी से बढ़कर हैं। गाँधी के हत्यारे गोडसे की मूर्ति स्थापित की जा रही है। धर्म, राजनीति और संस्कृति का ऐसा विकृत रूप पहले कभी नहीं था। राजनीति वोट में सिमट कर दम तोड़ रही है, धर्म अधर्मियों के हाथों अपना मूल स्वरूप नष्ट कर चुका है।

धर्म और संस्कृति को पर्याय मानकर एक धार्मिक संस्कृति आकार ले चुकी है। इन सबने मिलकर जीवन शैली और जीवन पद्धति को बदल डालने का अपना मुख्य कार्यभार बना डाला है। सच बोलने वालों को प्रताड़ित किया जा रहा है, उन पर एफ आई आर दर्ज किया जा रहा है। राजनीतिक पार्टियां केवल चुनाव लड़ने में लगी हुई हैं। श्रम-संस्कृति, सृजन संस्कृति पर हमले हो रहे हैं। फिर भी प्राचीन भारत की बातें दुहराई जा रही हैं। वर्तमान भारत का परिदृश्य असुन्दर ही नहीं, भयंकर है। अगर हमने धर्म, राजनीति और संस्कृति के वर्तमान रूप को बदल डाला, तो कुछ ठीक हो सकता है। मात्र अकादमिक स्तर पर इन पर विचार करने का यह अवसर नहीं है। यह अवसर है इन तीनों क्षेत्रों में आई विकृतियों को समाप्त करने का, जिसके लिए युद्ध स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है

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रविभूषण

लेखक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919431103960, ravibhushan1408@gmail.com
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