सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर के अनुसार स्टेन स्वामी (26.4.1937 – 5.7.2021) के खिलाफ आरोप लगाये बिना और बिना मुकदमे के उन्हें मौत की सजा सुना दी गयी है। संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधियों ने उनकी मृत्यु को ‘भयानक’ कहा है। समग्र राष्ट्र की मानवाधिकार समिति ने इस वर्ष के आरम्भ में ही भारत सरकार को भीमा-कोरेगाँव केस में गिरफ्तार 16 व्यक्तियों को रिहा करने को कहा था, कम से कम जमानत पर। आठ-नौ महीने में स्टेन स्वामी ने छह बार जमानत के लिए अर्जी दी थी। उन्हें जमानत नहीं दी गयी।
भीमा-कोरेगाँव की घटना के सात महीने बाद 28 अगस्त 2018 को महाराष्ट्र की पुलिस ने रांची के उनके बगइचा आवास पर ‘रेड’ किया था। 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के दलितों ने भीमा-कोरेगाँव के विजय-स्तम्भ तक पहुँचने के लिए, 200 वीं वर्षगाँठ मनाने के लिए यात्रा की थी। एक दिन पहले 31 दिसम्बर 2017 को पुणे के शनिवार वडा में एल्गार परिषद् का एक बड़ा राष्ट्रीय ‘इवेंट’ हुआ था। भीमा कोरेगाँव में हुए हमले में एक की मृत्यु हुई थी।
एक प्रत्यक्षदर्शी ने पुणे के पिम्परी पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिकी 2 जनवरी 2018 को दर्ज की, जिसमें हिंसा में शामिल संभाजी भिडे और मिलिन्द एकबोटे के साथ उनके समर्थकों के भी नाम थे। आज संभाजी भिडे और मिलिन्द एकबोटे के बारे में किसी को अधिक जानकारी नहीं है। एक सप्ताह बाद 8 जनवरी 2018 को एल्गार परिषद् इवेंट द्वारा साम्प्रदायिक असामंजस्य के कारण भीमा-कोरेगाँव की हिंसा को लेकर एक दूसरी प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गयी। पुणे पुलिस ने जाँच आरम्भ की।
जून-अगस्त 2018 में इस मामले में नौ व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। स्टेन स्वामी कभी भीमा कोरेगाँव नहीं गये। एल्गार परिषद के ‘इवेंट’ में भी वे नहीं थे पर पुणे पुलिस उनसे पूछताछ के लिए राँची पहुँच गयी। उस समय महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार थी और देवेन्द्र फडणवीस मुख्य मन्त्री थे। 2019 में दूसरी बार स्टेन स्वामी से पूछताछ की गयी। 28 अगस्त 2018 की जाँच और पूछताछ में स्टेन स्वामी को ‘संदिग्ध आरोपी’ कहा गया। यह ‘टर्म’ आपराधिक कानून में परिभाषित नहीं है।
मुम्बई में जब वरिष्ठ वकील मिहिर देसाई ने फादर स्टेन स्वामी के ऊपर लगाये गये आरोपों को खारिज करने के लिए रिट याचिका दायर की थी, पुणे पुलिस के अतिरिक्त/अपर कमिश्नर ने हाई कोर्ट को सूचित किया था कि स्टेन स्वामी को गिरफ्तार करने का उनका कोई इरादा नहीं है क्योंकि वे अभियुक्त नहीं है। बाद में महाराष्ट्र सरकार के बदलने के बाद केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने जनवरी 2020 में भीमा कोरेगाँव केस को एन आई ए (राष्ट्रीय जाँच एजेंसी) को ट्रांसफर किया।
25 जुलाई 2020 को राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के अफसरों ने स्टेन स्वामी के राँची आवास पर जाकर लगभग पन्द्रह घण्टे तक उनसे पूछताछ की। इसके पहले उनके आवास और कार्यालय की दो बार तलाशी ली जा चुकी थी। भीमा-कोरेगाँव घटना में पहली बार 15 नवम्बर 2018 को आरोप पत्र दायर किया गया था। 21 फरवरी 2019 को कुछ और व्यक्तियों के खिलाफ दूसरा आरोप पत्र दाखिल किया गया। पुणे पुलिस को स्टेन स्वामी के आवास और कार्यालय से कोई आपत्तिजनक सामग्री प्राप्त नहीं हुई थी।
25 जुलाई से 7 अगस्त 2020 के बीच उनसे कई घण्टों की पूछताछ की गयी थी। 30 सितम्बर 2020 को स्टेन स्वामी को मुम्बई में एन आई ए के कार्यालय में उपस्थित होने को कहा गया था। महामारी और वृद्धावस्था के कारण उन्होंने मुम्बई पहुंचने में असमर्थता प्रकट की। वे मुम्बई नहीं गये। इसके बाद एन आई ए के अधिकारी राँची पहुँचे और वहाँ 8 अक्टूबर 2020 को भीमा कोरेगाँव मामले में उन्हें गिरफ्तार किया।
9 अक्टूबर 2020 को स्टेन स्वामी को एन आई ए की स्पेशल कोर्ट में पेश किया गया और उन पर एक विशेष आरोप-पत्र (स्पेशल चार्जशीट) दाखिल किया गया। इसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 120(बी), 121, 121 (ए), 124 (ए) और 34 लगाई गयी और यू ए पी ए की धारा 13, 16, 18, 20,38 और 39 लगाई गयी। उन्हें मुम्बई के तलोजा में सेंट्रल जेल में भेज दिया गया। स्टेन स्वामी संभवतः देश के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति हैं, जिनपर आतंकवाद का आरोप लगाया गया था।
वे बी के 16 (भीमा कोरेगाँव 16) के अन्तिम व्यक्ति थे, जिन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। वे कभी भीमा-कोरेगाँव नहीं गये, एल्गार परिषद के आयोजन (इवेंट) में भी वे शामिल नहीं थे, पर एल्गार परिषद के केस में एन आई ए ने उन्हें गिरफ्तार किया। उनके विरुद्ध कोई ठोस सबूत नहीं था। स्टेन स्वामी सदैव सच और न्याय के पक्ष में खड़े रहे – अडिग – अविचल। ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार पर उनके विचार देखने चाहिए। उन्होंने विदेशी संस्थाओं से प्राप्त आर्थिक सहयोग के सम्बन्ध में भी अपनी बातें रखी थीं।
वे फादर थे, पर कई बार उन्होंने चर्च की भी आलोचना की थी। संविधान के दायरे में उन्होंने सारे काम किये। वे भारतीय लोकतन्त्र और भारतीय संविधान को महत्व देते रहे। वे अहिंसक थे। उन्होंने यह पूछा था कि उनका अपराध क्या है? भीमा-कोरेगाँव मामले में जिन 16 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया, वे सभी असाधारण व्यक्ति हैं। अभी तक उन पर लगाये गये आरोप प्रमाणित नहीं हुए हैं। स्टेन स्वामी पर राष्ट्रद्रोह, देश की एकता-अखंडता के बाधक, माओवादियों से सम्बन्धित जो भी आरोप लगाये गये थे, वे पुष्ट नहीं हुए हैं। उनकी मृत्यु स्वाभाविक मृत्यु नहीं है। मृत्यु प्रमाण-पत्र में हृदयाघात कारण भले हो, पर उनकी संस्थानिक हत्या हुई है। आठ-नौ महीने में छह बार उन्होंने जमानत की अर्जी दी थी, पर स्टेन स्वामी को जमानत नहीं मिली। न्यायिक हिरासत में हुई मृत्यु अपराध है या हत्या?
अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के (नोबेल पुरस्कार विजेता सहित) पचास विद्वानों ने, जिनमें नोम चोम्स्की, वोले सोयिंका, आशुतोष वार्ष्णेय और अनेक एकडेमिक्स, वकील के साथ कई यूरोपीय संस्थान और संस्थाएँ भी हैं, भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.बी.रमन, प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी, गृह मन्त्री अमित शाह, महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे और अन्य कई प्रमुख नेताओं-अधिकारियों से यह आग्रह किया था कि भारतीय जेलों में ट्रायल की प्रतीक्षा कर रहे बन्द राजनीतिक कैदियों को उनके स्वास्थ्य के आधार पर मुक्त करने के लिए अस्थायी प्रशासनिक आदेश दिया जाय। इन लोगों ने कोविड-19 के खतरे की बात कही थी, यह बताया गया कि इनमें कई वरिष्ठ नागरिक हैं। इनकी मांगों में भीमा-कोरेगाँव अभियुक्तों की शीघ्र रिहाई, सम्बन्धियों एवं रिश्तेदारों द्वारा उनकी देखभाल करने की अनुमति देना, राज्य द्वारा उनके उपचार की व्यवस्था भी थी। इन्हें संवैधानिक अधिकार है कि वे गरिमा पूर्ण जीवन जियें और मरें।
क्या स्टेन स्वामी की मृत्यु गरिमापूर्ण हुई है? 30 दिसम्बर 2020 को यूरोपियन यूनियन के 21 सांसदों और 1 जून को ह्यूमन राइट्स पॉलिसी और ह्युमनेटेरियन असिस्टेंस के जर्मन कमिश्नर बार्वेल कोफर ने स्टेन स्वामी की रिहाई की अपील की थी। उनकी रिहाई के लिए देश के विभिन्न शहरों में प्रदर्शन हुए पर सरकार ने किसी की नहीं सुनी। जिस राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एन आई ए) ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था, उस एजेंसी का गठन संप्रग सरकार के समय 2009 में आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए किया गया है, 2008 में मुम्बई हमले के बाद इस एजेंसी का गठन हुआ। यह एजेंसी “राज्यों से विशेष अनुमति के बिना राज्यों में आतंक सम्बन्धी अपराधों से निपटने के लिए सशक्त” है।
क्या स्टेन स्वामी आतंकवादी थे? क्या उनसे भारतीय राज्य को खतरा था? क्या वे संविधान के दायरे से बाहर जाकर कोई कार्य कर रहे थे? स्टेन स्वामी राज्य और सरकार की उन नीतियों के विरुद्ध थे जिनसे दलित और आदिवासी का जीवन प्रभावित होता है। वे कॉरपोरेट के खिलाफ और आदिवासियों के साथ थे। भूमि-अधिग्रहण, विस्थापन और बंधुआ मजदूरी के विरुद्ध थे। वे उन हजारों युवा आदिवासियों के साथ थे, जिन्हें नक्सली बता कर जेल में डाल दिया गया है। वे अन्याय के विरुद्ध थे। उनकी सभी लड़ाइयाँ लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं संवैधानिक उसूलों के साथ थीं।
उनकी कविता ‘प्रिजन लाइफ : अ ग्रेट लेवलर’ की पंक्तियाँ हैं – “कैदखाने में/ इतने नौजवान चेहरों को/ देखकर दिल अफसुर्दा होता है/ मैं पूछता हूँ/ तुम्हारा कसूर?” जेल जाने के पहले फादर स्टेन स्वामी चल-फिर सकते थे, पर जेल जाने के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। 28 दिनों तक उन्हें ‘सिपर’ और ‘स्ट्रा’ नहीं दिया गया। वे पार्किन्सन रोग से ग्रस्त थे। हाथ से गिलास तक नहीं उठा सकते थे। पानी पीने और तरल पदार्थ लेने के लिए उनकी जरूरतों पर जेल अधिकारियों ने ध्यान नहीं दिया। जेल में चार सप्ताह तक उन्हें किसी प्रकार की मेडिकल सुविधा नहीं दी गयी। उनके वकील मिहिर देसाई ने इसे एन आई ए और जेल अधिकारियों की लापरवाही और उपेक्षा कहा है।
उनकी हत्या के बाद भीमा कोरेगाँव के अभियुक्तों ने जेल अधीक्षक से अनुमति लेकर शोक-सभा की, दो मिनट का मौन रखा, उनकी मृत्यु के विरोध में 7 जुलाई को एक दिन का उपवास रखा, उनकी सांस्थानिक हत्या की न्यायिक जाँच की माँग की और भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अधीन एन आई ए के अधिकारियों और तलोजा जेल के पूर्व अधीक्षक के. कुर्लेकर के विरुद्ध केस दर्ज करने की माँग की। 95 प्रतिशत से कुछ अधिक यू ए पी ए (गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम) के तहत जेलों में बन्द हैं। 1967 में यह अधिनियम पारित हुआ था, जिसका संशोधन बिल अगस्त 2019 में संसद में पारित हुआ।
इसके बाद इस कानून को कहीं अधिक शक्ति प्राप्त हुई है, जिससे वह किसी भी व्यक्ति को जाँच के आधार पर आतंकवादी घोषित कर सकता है। अब इस कानून (यूएपीए) का दायरा कहीं अधिक व्यापक है। वैचारिक विरोधियों पर भी यह कानून मढ़ा जा सकता है। अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले 2 जुलाई 2011 को उन्होंने यू ए पी ए के कुछ भाग (सेक्शंस) को ‘चैलेंज’ किया था। उनके कंप्यूटर में वैसी सामग्री की खोज की गयी, जिसके होने से उन्होंने इन्कार किया था। अमरीकी डिजिटल फारेंसिक कम्पनी आर्सनल कंसल्टिंग ने अभी तक जो तीन खुलासे किये हैं, उनमें कम्प्यूटरों में घुसपैठ भी है। भीमा-कोरेगाँव हिंसा मामले में गिरफ्तार लोगों में से कइयों के कंप्यूटर में उन्हें आरोपी बताने वाले दस्तावेजों को हैकिंग के जरिये डाला गया था। 24 फाइलों में से 22 फाइलों को भीमा-कोरेगाँव हिंसा के बाद प्लांट किया गया।
स्टेन स्वामी को जिस तलोजा सेण्ट्रल जेल में डाला गया, उसे अप्रैल 2020 में ही भीड़ भाड़ वाला कहा गया था। तलोजा जेल में सामाजिक दूरी का निर्वाह असंभव था। वहाँ 2 हजार 124 कैदियों के रहने की व्यवस्था है, पर क्षमता से लगभग छह सौ अधिक कैदी वहाँ रह रहे थे। इस जेल में महाराष्ट्र राज्य के अन्य जेलों की तरह बुनियादी चिकित्सा सुविधाएँ नहीं हैं। 19 मई को स्टेन स्वामी के वकील ने हाईकोर्ट में जेल में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की बात कही थी। कोविड 19 से संक्रमित होने के खतरों की ओर भी ध्यान दिलाया था। उच्चतम न्यायालय ने 1996 में ही गिरफ्तार व्यक्ति के लिए चिकित्सा अनिवार्य मानी है।
एन आई ए ने स्टेन स्वामी की हिरासत की माँग न कर न्यायिक हिरासत में उन्हें भेजने को कहा। स्वास्थ्य के आधार पर अन्तरिम जमानत के लिए दिये गये उनके आवेदन को खारिज किया गया। ‘सिपर’ या ‘स्ट्रा’ की माँग वाले आवेदन के प्रति असंवेदनशील रवैया अपनाया गया। अभियोजन पक्ष ने जवाब देने के लिए जिस समय की मांग की थी क्या वह बेतुकी नहीं थी ? न्यायाधीश ने इसके लिए अभियोजन पक्ष को बीस दिन का समय दिया। ‘सिपर’ या ‘स्ट्रा’ की माँग का फैसला बीस दिन बाद? नियमित जमानत के लिए नवम्बर 2020 में अर्जी की गयी।
चार-पाँच महीने बाद इसे खारिज किया गया। स्टेन स्वामी के केस में न्यायपालिका और एन आई ए अब अनेक सवालों के कटघरे में हैं, जिनके जवाब उन्हें देने होंगे। किसी भी स्वस्थ लोकतन्त्र में मानवाधिकार सक्रियतावादियों की आवाज सुनी जानी चाहिए, उन्हें मान सम्मान दिया जाना चाहिए। फादर स्टेन स्वामी के निधन पर अन्तरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतन्त्रता के कार्यालय ने गहरा दुःख प्रकट किया है। स्टेन स्वामी को आधार कार्ड न रहने के कारण वैक्सीन नहीं लगा। एन आई ए ने उनकी जमानत का सदैव विरोध किया। भीमा-कोरेगाँव केस भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का केस कहलाता है। हकीकत कुछ और है।
स्टेन स्वामी देश में कानून, लोकतन्त्र और संविधान को महत्व देते थे।उन्होंने आदिवासियों के हित में जल, जंगल, जमीन की रक्षा की बात सदैव की। आदिवासियों के जीवन से जुड़े सभी मुद्दों को सामने ला कर उन्होंने केन्द्र और राज्य सरकारों की जनविरोधी नीतियों की आलोचना की। आदिवासी विरोधी सरकारी नीतियों की वैधता पर उन्होंने सवाल खड़े किये। संविधान की पाँचवी अनुसूची के कार्यान्वित न होने, पेसा कानून को ठण्ढे बस्ते में डाल देने, सुप्रीम कोर्ट के 1997 के समता निर्णय पर सरकार के चुप रहने, 2006 में बने वन अधिकार के कानून को लागू करने में सरकार के निष्क्रिय रहने, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ‘जिसकी जमीन उसका खनिज’ का सरकार द्वारा पालन न करने, भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में झारखण्ड सरकार द्वारा 2017 में संशोधन करने, सरकार द्वारा लैंड बैंक स्थापित करने और हजारों आदिवासियों को नक्सली कह कर जेल में डालने के विरोध में उन्होंने लड़ाई लड़ी। इसमें गलत क्या था?
सरकार न तो संविधान को मान रही थी और न सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को। तथ्यों, तर्कों, साक्ष्यों, न्यायालय के आदेशों और संविधान के मूल्यों आदि के आधार पर उन्होंने केन्द्र और राज्य सरकारों की नीयत और वास्तविकता उजागर की। उनके सवालों के उत्तर सरकार के पास नहीं थे। सरकार ने उन्हें चुप कराने, उनके सवालों को दरकिनार करने के लिए उन पर झूठा इल्जाम मढ़ कर जेल में डाल दिया। स्टेन स्वामी ने उच्च न्यायालय में झारखण्ड राज्य के विरुद्ध जनहित याचिका (पी आई एल) दायर की थी।
यह मांग की थी कि विचाराधीन कैदियों को निजी बॉण्ड पर, जमानत देकर रिहा किया जाय, अदालती मुकदमों का तेजी से निपटारा हो, जिससे फर्जी आरोपों से कैदी मुक्त हों। उन्होंने मुकदमे और उसकी प्रक्रिया को लम्बित रखे जाने के कारणों की जाँच के लिए न्यायिक आयोग के गठन की मांग की और यह भी मांग की कि पुलिस विचाराधीन कैदियों के विषय में मांगी गयी सभी जानकारियाँ यायिका कर्ता को उपलब्ध कराये। दो वर्ष बाद भी पुलिस ने विचाराधीन कैदियों के विषय में याचिकाकर्ता को कोई जानकारी नहीं दी। वे जानते थे कि शासन-व्यवस्था उन्हें रास्ते से हटायेगी। शासन-व्यवस्था और सरकार के लिए स्टेन स्वामी बाधा थे।
स्टेन स्वामी को जमानत नहीं मिली। वे 5 जुलाई को दिवंगत हुए और इसी दिन मुम्बई हाईकोर्ट उनकी जमानत पर सुनवाई कर रही थी। सरकार सबको भयमीत कर रही है। कानून का वह स्वयं पालन नहीं कर रही है। पूरी दुनिया देख रही है कि भारतीय न्यायपालिका आज कितनी सक्षम है! भारत एक असफल राज्य है। लोक तन्त्र और संविधान की धज्जियाँ उड़ रही हैं और इसकी रक्षा करने वालों पर झूठे आरोप मढ़े जा रहे हैं। स्टेन स्वामी के दिवंगत होने के बाद सवाल सामूहिक स्वर में और उठेंगे। उनकी शहादत को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
वे एक बड़े न्यायप्रिय, मानववादी, लोकतान्त्रिक और संवैधानिक मूल्यों में गहरी आस्था रखने वाले महान व्यक्ति थे। वे इस व्यवस्था के विरुद्ध थे, जो अपने शान्तिप्रिय नागरिकों को भी चैन से जीने नहीं देती। आदिवासियों की लड़ाई कॉरपोरेट और उसकी समर्थक सरकार से है। जल, जंगल, जमीन की रक्षा की लड़ाई कभी बन्द नहीं होगी। स्टेन स्वामी की हत्या के जिम्मेदार अब कठघरे में हैं। क्या भारतीय न्यायपालिका न्याय करेगी?