देश की राजधानी दिल्ली समस्याओं की भी राजधानी बनती जा रही है। तेजी से बढ़ती आबादी के साथ आए दिन एक नयी समस्या जन्म ले रही है। मनुष्य की लापरवाही और अवैध निर्माण के कारण 2019 में कुछ ऐसे हादसे हुए हैं जो यहाँ की व्यवस्था पर कई सवाल खड़े करते हैं। छोटी छोटी संकरी गलियों में 20-25 गज की जगह पर बने बहुमंजिला भवन, बिजली के खुले तार समस्या को और अधिक गम्भीर बना रहे हैं।
एक तरफ जहाँ आबादी बढ़ने की गति से शहर का विस्तार नहीं हो रहा है, वहीं घनी आबादी वाले क्षेत्रों में धड़ल्ले से हो रहे अवैध निर्माण की वजह से जब इन गलियों में कोई हादसा होता है तो मदद पहुँचने में इतनी देर हो जाती है कि जान माल की हानि का आँकड़ा बढ़ जाता है। मान लीजिये कहीं अगर आग लग जाती है तो अग्निशमन यन्त्र की गाड़ी को इन गलियों में जाने की जगह ही नहीं होती है।प्रशासन अवैध निर्माण को रोकने में नाकाम है।भ्रष्ट अधिकारियों की मिली भगत से बिल्डर मनमर्जी से अवैध मकान निर्मित करते जा रहे हैं।
दिल्ली के पुराने बसे इलाके-चाँदनी चौक,शाहदरा, कृष्णा नगर ,बटला हॉउस जैसे कई इलाकों में बहुत घनी आबादी है। यहाँ बहुत सुधार करने की गुंजाइश नहीं है। फिर भी सावधानी और जागरूकता से बहुत कुछ ठीक किया जा सकता है। लेकिन यहां तो उल्टा गलत तरीके से निर्माण चल रहे हैं। इन स्थानों पर आपदा की स्थिति में बचाव के लिए सुरक्षा दल तथा दमकल के वाहन तक जाने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। ऐसे में बेहतर बचाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है। जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने भी नाराज़गी जतायी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस समस्या पर जजों की पीठ भी बनायी थी। लेकिन वह प्रयास भी किसी प्रकार सार्थक होता नहीं दिखाई दे रहा है। बिल्डर एनजीटी के निर्माण कार्य से जुड़े निर्देशों का पूरा उल्लंघन कर रहे हैं। रात दिन चल रहे अवैध निर्माण पर कोई जवाबदेही नहीं है। कॉर्ट ने प्राधिकारियों से अवैध निर्माण वाली ऐसी कालोनियों को नियमित करने की मंशा के बारे में काफी सवाल किये और मास्टर प्लान में संशोधन करने पर लगी रोक हटाने से इंकार कर दिया। कॉर्ट ने कहा था कि सार्वजनिक मार्गों पर ढाबे या कोई भी मकान इत्यादि अतिक्रमण हटाया जाए। जहाँ घर बन सकते हैं वहीं पर बनने चाहिये।
डीडीए की स्थापना भारत सरकार ने 1957 में की। इसका मूल उद्देश्य दिल्ली के मास्टर प्लान का खाका खींचना और दिल्ली को इस तरह विकसित करना था जहाँ रिहाइश, कमर्शियल और मनोरंजन से जुड़ी जगहों की अच्छी व्यवस्था हो। डीडीए का काम था दिल्ली को ऐसा शहर बनाना जिसमें जरूरी बुनियादें ढाँचे हों।इसका मूल कार्य था इसे ठीक ढंग से पेश करना। परन्तु आज कुछ अलग ही स्थिति नज़र आती है।डीडीए अपने ही किये वायदों से पीछे जा रहा है। दिल्ली के झुग्गी झोपड़ियों को सँवारना डीडीए का काम है और कोई एजेंसी इतनी उपयोगी भूमिका अदा नहीं करती है।
डीडीए अधिक आय वाले व्यक्तियों के लिये तो उपयोगी साबित हुआ मगर निम्न आये वाला परिवार मुंगेरी लाल के हसीं सपनों में ही रह गया। आँकड़ों को पलटा जाए तो असफलता ही हाथ आएगी।शोध के मुताबिक पाया गया है कि दिल्ली में लगभग एक चौथाई लोग ही नियोजित कालोनियों में रहते हैं। डीडीए की किसी भी रिपोर्ट में उसने गरीबों के लिए आवास और शहर के अनियोजित हिस्सों को अपने अधिकार की जगह पर शामिल नहीं किया उनका कहीं जिक्र नहीं किया है।
राजधानी में डीडीए के मकानों के दाम इतने ज्यादा हैं कि एक आम व्यक्ति उसकी पहुँच से दूर है। डीडीए के मकानों को हासिल करना अपने आप में ही एक बहुत बड़ी चुनौती है। कभी उसके अधिकारी बात नहीं सुनते तो कभी सरकार।
भौगोलिक दृष्टि से देखें तो भूकम्प के लिहाज से दिल्ली संवेदनशील जोन चार के अंतर्गत आती है। लिहाजा यदि रिक्टर स्केल पर सात की तीव्रता से भूकम्प आता है तो ज्यादातर कॉलोनियाँ, काफी पहले बनी ऊँची इमारतें और पुराने भवन जमींदोज हो जाएँगे। ऐसे में यहाँ 26 जनवरी 2001 में गुजरात में आए भुज शहर से भी बड़ा हादसा हो सकता है। दिल्ली के मकानों की मियाद कमजोर ही बन रही है आज कल।
यह अवैध निर्माण बिना नक्शा पास कराए चल रहे हैं। बिल्डर बिना पक्की नींव डाले बहुमंजिला इमारत बना देते हैं। जो भूकम्प का एक छोटा झटका भी बहुत मुश्किल से झेल सकने लायक होती है।
अवैध निर्माण के कारण कुछ तात्कालिक समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं। उदहारण के लिए ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण। निर्माण जल्दी पूरा करने के चक्कर में जो मशीनें इस्तेमाल की जाती हैं उनका शोर इतना होता है कि आसपास बच्चों और बुजुर्ग लोगों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वायु प्रदूषण के चलते मिट्टी धूल उड़ती रहती है। जिससे साँस लेने में तकलीफ होती है। बाहर आने जाने में दिक्कत होती है। सड़क पर समान फैला रहता है जिससे ट्रैफिक हो जाता है।अवेध निर्माण के चलते पेड़ों कि लगातार कटाई की जा रही है। जितने बच जाते है उनमें बिजली के तार पेड़ों में ही उलझ जाते है, जिसके चलते पक्षियों की मौत भी हो जाती है।
इमारतें अपने मूल क्षेत्र से इतनी आगे बढ़ा कर बना दी जाती हैं कि सामने के मकान में आसानी से छज्जे से आ जा सकते हैं। इस से चोरी और हत्या जैसे संगीन जुर्म होते हैं और पुलिस को सुराग खोजना मुश्किल होता है।
2019 में ऐसी कई घटनाएँ हुईं जो कि अवैध निर्माण के चलते बहुत बडी़ बड़ी बन गयी।जैसे की दिल्ली में 8 दिसम्बर को रानी झाँसी रोड स्तिथ अनाज मण्डी में चार मंजिला इमारत में आग लग गयी।अग्निशमन यन्त्र के समय से ना पहुँच पाने के वजह से 10 लोगों की मौत हो गयी। इसी तरह बटला हाउस में भी 100 साल पुरानी इमारत गिर गयी। जहाँ एन डी आर एफ समय से नहीं पहुँच सकी क्योँकि वहाँ इतनी सँकरी गलियाँ है कि मदद पहुँच ही नहीं पाती।अवैध निर्माण के कारण लोगों के पास जगह ही नहीं बची कि वे अपनी गाड़ियाँ कहाँ खड़ी करें। इसलिये वे उसे सड़क पर ही छोड़ देते हैं जिससे सड़क जाम हो जाती है। इतने ऊँचे –ऊँचे मकानों में धूप भी नहीं आती। जिससे उनमें नमी आ जाती है और वे कमजोर हो जाते हैं।
चान्दनी चौक के आसपास के लोग बताते हैं कि अवैध निर्माण देर रात्रि में शुरू होता है और सुबह बन्द कर दिया जाता है। ताकि स्थानीय निवासी कोई सवाल ना उठाए। कोर्ट ने इस प्रोजेक्ट पर रोक भी लगायी थी। फिर भी यह आज भी चल रहा है।
परन्तु हालिया स्तिथि से लगता है कि बिल्डर पूरी राजधानी को माचिस के डिब्बे जैसे फ्लैटों में तबदिल कर मानेंगे।बच्चों के खेलने के लिए मैदान, जल संरक्षण के माध्यम, तालाब और बावड़ियाँ तक खत्म कर दिए गये हैं।खुले इलाकों में जगह-जगह अब सिर्फ इमारतें ही नज़र आती हैं।लोगों को बड़े-बड़े
झूठे सपने दिखा कर उनसे प्लाट ले लिया जाता है। उसकी जगह फ्लैट बना दिया जाता है। वहाँ न तो मूलभूत सुविधाएँ मिलती हैं न ही खुली हवा जहाँ रहा जा सके। ना उन मकानों की रजिस्ट्री होती है।सरकार ने सख्ती दिखाते हुए ऐसे निर्माण करने वालों पर जुर्माना भी लगाए हैं। लेकिन उससे कहीं व्यवस्था में सुधार होता नहीं दिखाई दे रहा।
अभी तक यह मियाद 31 दिसम्बर 2017 थी। ऐसे में, अवैध निर्माण बना कर रहने वाले नागरिकों में भय का माहौल पैदा हो गया था।यह सिफारिश केन्द्रीय शहरी विकास मन्त्रालय को भेजी जा रही है। हालांकि, हाल-फिलहाल में तैयार हो चुकी या हो रही इमारतों में यदि अवैध निर्माण होता है, तो उसके खिलाफ निगम को कार्रवाई करने का पूरा हक है। सरकार केवल कार्रवाई ही कर रही है या कहीं सरकार कच्ची कालोनियों को पक्का करने पर आतुर है। यह सबकी मिली भगत का काम है किसी अकेले की बस की बात नहीं है। इन कालोनियों को पक्का करने के नाम पर केवल राजनीति हो रही है। प्रशासन वोट के समय गूंगा बहरा हो जाता है सही गलत सब की एका हो जाती है।
बहरहाल दिल्ली कि इस गम्भीर समस्या से निदान पाना जल्द से जल्द बहुत जरूरी है।अनियन्त्रित निर्माण के चलते पूरी दिल्ली एक दिन केवल कंक्रीट के जंगल में बदल जाएगी। जहाँ न चलने की सड़क होगी, ना बैठने को गलियारा। वह दिन फिर दूर नहीं जब मकानों में से ही रास्ते निकलेंगे।
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