
महिलाओं को मुफ्त मैट्रो – प्रेमपाल शर्मा
- प्रेमपाल शर्मा
किसानों, मछुआरों, बुनकरो और ऐसे सभी गरीबों को जिंदा रहने के लिए कुछ राहत, धन देने की बात तो एक कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारियों के तहत समझ आती है लेकिन दिल्ली सरकार का यह फैसला कि मैट्रो-बसों में महिलाऔं को मुफ्त यात्रा की सुविधा दी जाएगी, समझ से परे है। पहले जबाव इस बात का कि किसानों के लिए ऐसी खैरात क्यों? चाहे यह पी एम- किसान के नाम पर हो या उड़ीसा की कालिया योजना या तेलंगाना की रैयतवाड़ी……। किसानों की कर्ज माफी या बिजली मुफ्त की शहरी मध्य वर्ग लगातार आलोचना करता रहा है। इसका जबाव सिर्फ यही है कि यदि किसान, मजदूर भूख से विलविलाता हुआ गांव छोड़कर शहरों, महानगरों में पहुंचने को विवश हो गया तो शहरी मध्य वर्ग की विकास और मौज की सारी मस्ती हवा हो जायेगी। शहरों पर अभी भी ग्रामीण पलायन का बहुत दबाव है। इसलिए किसानों को जितनी भी रियायतो दी जा सके दी जानी चाहिए। विशेषकर जब पिछले दो दशकों में दस लाख किसानो की आत्महत्या की खबरें सुनने को मिल रही हों। वैसे किसानों को वजाये ऐसा पैसा देने को यदि उनकी फसल, सब्जी फल के उचित दाम मिले, बिचौलिये आढ़ती उनकी अशिक्षा, गरीबी का शोषण न करे तो इस देश का किसान, प्रेमचंद के गोदान का होरी कभी भी भीख या दान की बदौलत जिंदा नहीं रहना चाहता। नयी सरकार को दूसरे विकल्प पर ध्यान देने की जरूरत है। यदि किसान को बाजिव दाम मिले दो उनके साथ काम करन वाले मजदूरों को भी सही मजदूरी संभव होगी. एक स्वाबलम्बी कृषि व्यवस्था धीरे धीरे पनपने लगेगी।
लेकिन वोट की होड़ में दिल्ली की महिलाओं को मुफ्त यात्रा पास सरासर गलत विचार है। इसमें यदि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली महिला, बच्चियाँ शामिल हो तो एक बार बात समझ में आती है, लेकिन दिल्ली की केन्द्र सरकार, उपक्रमों बैंक, स्कूल, कालिजों में कार्यरत और अच्छा वेतन/पेंशन पा रही लगभग महिलाओं को यह खैरात क्यों? जो वर्ग लम्बी विदेशी गाड़ियों में घूमता हो, घर दफ्तर वातानुकूलित कक्षों में रहने का आदी हो, बच्चों को विदेश में पढ़ाता हो और हर वर्ष यूरोप और सिंगापुर घुमाता हो उससे तो और ज्यादा वसूला जाना चाहिए। जैसे विश्व स्तर पर भारत जैसे गरीब देशों के मुकाबले अमेरिका जैसे देश अपनी भकोसी प्रवृत्ति के कारण पर्यावरण का ज्यादा नुकसान कर रहे हैं, हमारे महानगरों के अमीर भी इतने ही दोषी हैं। मुफ्त यात्रा जैसे अनैतिक असमानताओ को और बढ़ावा देंगे।
दिल्ली जैसे महानगर में मुफ्तखोरी के ऐसे और भी कई कार्यक्रम पिछले दो-तीन दशक से पनपे हैं। मयूर विहार जैसे इलाके में भी सौ घरों की सरकारी आवासीय कॉलोनी को बीच में पार्क के रखरखाब के लिये हर साल एकाध लाख रूपये सरकार देती है। है न आश्चर्य। और वर्षों से यह चल रहा है। तथाकथित प्रबंधन समितियों के सदस्यों के चेहरे ऐसे पैसे से खिल उठते हैं। ये वही लोग हैं जो हर सरकारी स्कूल में मुफ्त शिक्षा, मिड-डे मील, ड्रेस पर सरकार के साथ साथ गरीबों को भी गाली देते हैं। आश्चर्य की बात की इन सोसइटियों में वह सेक्यूलर बुद्धिजीवी भी रहता है जो गरीबों को लिए सबसे ज्यादा टसुए वहाता है। सरकार को लूटने के लिए ऐसे कई मुखौटे इस शहर में ईजाद किए गये हैं जैसे सीनियर सिटीजन, क्लब, मंच, सांस्कृतिक दस्ता आदि। सार्वजनिक पार्क में वातानुकूलित कमरे में योग, ताश, खेलने का अड्डा आदि भी। सरकारी मध्यवर्ग की सबसे आसान नेतागिरी। आवासीय कॉलोनियों को यदि पैसा दिया जा रहा है तो उन्हें ग्राउंड वाटर और सूर्य ऊर्जा की शुरूआत के लिए प्रोत्साहित किया जाए। एक नियमित कड़े निरीक्षण के तहत। बरना ऐसा पैसा इनको परजीवी बना रहा है।
प्रश्न उठता है कि क्या देश इतना अमीर हो गया है जो पैसा उसकी तिजोरियों से फटकर बाहर निकला जा रहा है? देश की जनता तो यह ही सुनती आ रही है कि विश्वबैंक, अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष, एशियन बैंक से लिए कर्ज का ब्याज भी लाखों करोड़ों में भारत को चुकाना पड़ता है। फोर्ड फांउडेशन वैफेट, विल गेटस के अनुदान-दान अलग। जिस सत्ता को यह पैसा दिख रहा है उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की लगभग बीस प्रतिशत आबादी को केवल एक वक्त खाना भी नसीब हो पाता है। देश की गरीबी के ऐसे ऐसे विवरण कि आत्मा कांप उठे। क्या भूल गये उड़ीसा के उन लोगों को जो आम की गुठलियों को खाकर मर गये थे। जमीन में दबी यह गुठलियाँ जहरीली हो गयी थीं। ऐसा ही एक 11 बर्षीय बच्ची का बयान था कि उसने कभी कोई सब्जी नहीं खायी। नमक चावल या चावल के पानी से जीवन चलता रहा है।
मेरे देश के कर्णधारों नगर, महानगरों से बाहर भी देश है। यदि कुछ पैसा है तो गांव-गांव में असपताल बनाओ, टूटे स्कूलों की मरम्मत कराओ, उन सड़कों दगड़ो को ठीक करो जिन पर चलना मुश्किल है। शहरी मध्यवर्ग की अनन्त अतृप्त लिप्ताओं, लालसाओं को चलते बार-बार उन्हीं के आसपास की सड़कों को ठीक करने के नाम पर ठेकेदार को, जनता का पैसा मत लुटाओ। देश के अधिकांश हिस्सों में शुद्ध पीने का पानी नहीं है और ये राजा दिल्ली में ही रेवड़ियाँ बांट रहे हैं। दिल्ली में गरीब बस्तियाँ कम नहीं हैं और न गरीब कम। स्कूल-कॉलेजों की भी उतनी ही कमी है। इन सब के बीच मुफ्त पास यात्रा का तो ख्वाब भी अनैतिक है।
यदि वाकई आधी आबादी यानि कि महिलाओं को प्रति राजा संवेदनशील हैं तो उन्हें चाहिए सुरक्षा। बलात्कार, लूटमारी से। हर तरह के शोषण से। निर्भया कांड से लेकर अब तक कई कानून तो बने हैं लेकिन दिल्ली महिलाओं के लिय़े दुनिया में सबसे असुरक्षित शहर माना जाता है। पुलिस के समानांतर भी कोई व्यवस्था करनी पड़े तो कीजिये। हर सर्वे में दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता के मुकाबले हर मापदंड पर पीछे है। बावजूद इसके कि इसकी प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से तीन गुना और देश में सबसे ज्यादा है। इसके बढ़ते राजस्व का कारण अनेक प्रकार के भू-संपदा कर, राष्ट्रीय राजधानी को मिलने वाली रियायतें और बिक्री कर आदि हैं। लेकिन यह सब ऐसे उड़ाने के लिये नहीं है।
लेखक पुर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय और जाने माने शिक्षाविद है|
सम्पर्क- +919971399046 , ppsharmarly@gmail.com
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