जीवन में सार्थकता की तलाश में…
कभी कभार जीवन की कोई भूल या गलती जीवन को इतना उलझा देती है, हम उससे निकलने का जितना प्रयास करते हैं उतने ही डूबते चले जाते हैं और हमें ये एहसास होता है कि दरअसल हम जिंदगी को नहीं जी रहे बल्कि जिंदगी हमें जी रही है.
और जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी भी यही है. जहां हम स्वयं तमाशा भी बन रहे हों, उसे देख भी रहे हों और उसे देख भी रहे हों. जीवन में भी इतिहास की तरह सहयोग और द्वंद्व के दौर आते हैं. जिंदगी का पता भी उसी उदासी और द्वंद्व के दौर में होता है.
इसी बेचैनी और तनाव की स्थिति में हम जीवन की सार्थकता की खोज में निकलते हैं या यूं कहें हम स्वयं को तलाशते हैं. जीवन के मायनों की तलाश करते हैं. उन बिंदुओं की तलाश करते हैं जो हमे इस यात्रा में निरंतर रोशनी प्रदान करते हैं. उन रिश्तों की तलाश करते हैं जो हमें जीवन की खूबसूरती, प्रेम और सौंदर्य का एहसास करवाते रहे हैं. जो हमारी ताकत रहे हैं. जब उन यादों की गुलक खोलकर देखते हैं तो जीवन में हमे बीते दिनों के उन लम्हों की याद दिलाते हैं और उनकी महक आज भी बाकी है.
इसी तलाश में हम अपने बीते जीवन को तोलते हैं कि मेरा जीवन घाटे का सौदा निकला या लाभ का.
मैंने जीवन को किस रूप में जीया ? क्या जीवन में सफलता ही सब कुछ है या जीवन की सार्थकता भी कुछ मायने रखती है. हम यही मानकर चलते हैं कि सफलता पाना ज्यादा मायने रखता है बजाय सार्थकता के कि हमने कितने लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन किया. उनके चेहरों पर खुशी लाएं. कितने लोगों के दर्द के साथ अपने आप को जोड़ा ? यही जीवन की सार्थकता है.
जीवन में हम सफलता को ज्यादा महत्व दे रहें हैं क्योंकि हमने अपने जीवन के आदर्शों को बदल लिया है. आज हमारे आदर्श बड़ा नाम, पैसा, पद, ताकत और प्रतिष्ठा हो गए हैं. हमने ये देखना ही छोड़ दिया है कि अमुक व्यक्ति कितना जिंदादिल इंसान है ? उसने कितने लोगों के दर्द को अपना दर्द बनाया है. क्योंकि आदर्श तो उन टिमटिमाते हुए सितारों की तरह होते हैं जो न केवल हमे रोशनी दिखाते हैं, हमारा मार्गदर्शन करते हैं बल्कि विषम परिस्थितियों से जूझना भी सिखाते हैं. हमें जिंदा होने का एहसास करवाते हैं. लेकिन जब वो ही बदल जाएंगे तो व्यवहार तो बदलेगा ही.
हम अपने व्यक्तिगत जीवन में इतने विरोधाभाषी हो गए हैं कि हम ये चाहते तो हैं कि भगतसिंह और गांधी हो लेकिन वो पड़ोस के घर में हो. सादगी और सरलता देखने में तो अच्छी लगती है लेकिन उसको धारण करने वाले व्यक्ति को कमजोर और मूर्ख समझा जाता है.
हम व्यक्ति के संघर्षों को उसके आदर्शों को नहीं देखते. केवल उसकी चकाचौंध को देखना पसंद करते हैं.
जीवन तो निरंतरता में बह रहा है न, लेकिन हम उसे एक ठहरे हुए पानी की तरह देखना चाहते हैं. जैसे नदी बहती जाती है. मोड़ दर मोड़. कभी किसी किनारे को तोड़ा. कभी किसी को पीछे छोड़ा. कुछ साथी मिलते हैं. कुछ बिछुड़ते हैं. कुछ दूर चले जाते हैं. कुछ खटी-मिट्ठी याद बनकर रह जाते हैं.
यही रिश्ते और आदर्श हमारे सार्थक जीवन के आधार स्तंभ होते हैं. यही हमारे सम्पूर्ण जीवन की जमापूंजी होते हैं और इन रिश्तों की बुनियाद होते हैं प्रेम, सम्मान और विश्वास.
अगर इनमें से जरा भी गड़बड़ हुई तो उस रिश्ते का टूटना तय है. अगर झूठ की बुनियाद पर कोई रिश्ता बनेगा तो उसकी नियति में ही टूटना रहेगा. उस इमारत का गिरना तय है. उस समय ये मायने नहीं रखता कि झूठ सोच समझकर बोला गया है या केवल दिखावे या अनजाने में बोला गया है और क्या इससे कुछ हासिल हुआ.
क्या कोई व्यक्ति सम्पूर्ण हो सकता है? क्या जीवन के विषाद को हटाकर एक नया जीवन शुरू किया जा सकता है? क्या ऐसा हो सकता है कि अब तक की जो जीवन की गलतियां रहीं, झूठ बोला उनको मिटाकर सोच और चिंतन के स्तर पर जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो सकता है.
क्या ऐसा हो सकता है कि अब तक का मेरा जीवन एक रफ कॉपी था. अब मैं इसको भुलाकर जैसे एक साफ कॉपी तैयार कर रहा हूँ. अब तक के जीवन में मैंने समाज को क्या दिया?
इन्हीं सब प्रश्नो का जवाब तलाशने के लिए हम स्वयं की यात्रा पर निकलते हैं. क्योंकि जिंदगी आपको दूसरा मौका नहीं देती. न ही पश्चाताप का. और न ही पछतावे का. और जब ये एहसास होता है उस समय जिंदगी बहुत आगे निकल चुकी होती है. जीवन की कोई एक भूल सम्पूर्ण जीवन को अंधकार से भर देती है. और उस समय उसको सुलझाने के प्रयास के क्रम में उसे और उलझा देते हैं और जीवन की सारी गांठें दिखाई देती हैं.
जीवन बहुत ही महीन धागों से बना होता है. उसकी बारीकियां उस जीवन की सलवटें सब दिखाई देने लगती हैं.
मेरे गुरु एवं आदर्श डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम और प्रो. यशपाल जी से मिलना मेरे जीवन का एक अहम मोड़ रहा. उनसे मिलने के बाद मैं अपने जीवन को तलाशना शुरू किया. और अपने लिए कुछ आदर्श और सिद्धान्त गढ़े. उनपर लगातार चला भी. उनको जीवन में उतारा भी. जीवन में ऐसे बहुत से मौके आये लेकिन मैंने अपने आप को बनाये रखा लेकिन व्यक्तिगत जीवन की कोई एक भूल और उसको संभालने के क्रम में अगली भूल आपको ये सोचने पर मजबूर कर देती है कि हम सार्थक जीवन जी रहे हैं या सफल जीवन.
आज सच्चाई यही है कि हम अपनी प्रकृति को भूल गए हैं. हम उससे कट गए हैं. हम सब लोग एक दिखावे की जिंदगी जी रहे हैं. जो जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा है, वो उतना ही शोषण कर रहा है. झूठी संवेदना प्रकट कर रहा है. ज्यादा होता है तो थोड़ी देर के लिए मन में संवेदनाएं लाकर हम ये दिखाना चाहते हैं कि हमारा मन कितना उद्वेलित है. हम दो-तीन लोगों से फ़ोन पर बात करते हैं और संवेदनाएं समाप्त हो जाती हैं.
जब हकीकत में कुछ करेंगे तो कुछ समय लगाना पड़ेगा और वो हम करेंगे तो व्यक्तिगत जीवन के कुछ सुखों के लिए समय कम मिलेगा.
इन जंगलों, झरनों, नदियों, पहाड़ों को देखकर लगता है जैसे यही दुनिया है. जो यहां रहने वाले वनवासियों की निरंतरता की गाथा सुना रहे हैं. कुछ समय के लिए तो हमारा मन यहां की प्रकृति की गोद में आकर स्थिर सा हो जाता है और चिंतन के स्तर पर एक अलग सा परिवर्तन उमड़ आता है, जिस मानसिक शांति, जीवन और उसकी सार्थकता की हम बात करते हैं क्या ये वो ही तो नहीं है? इसको लेकर केवल कुछ लोगों से बात करने से या उनसे केवल बात कर लेने से नहीं होगा. उनके संघर्ष को समझना है. जीवन के प्रति उनकी सोच और चिंतन को समझना है तो हमें वही जीवन जीना पड़ेगा. उनके दर्द से खुशी से जुड़ना पड़ेगा. अपने आप को पहले तोड़ना पड़ेगा. तब कहीं जाकर हम उनको समझ पाएंगे.
जंगल में मेरी पहली रात एक मुरिया समुदाय के वनवासी के घर में, जो कहने को घर था. मिट्टी की दीवार. छत पर खपरैल. घर में 4-5 सामान – खाना पकाने की हांडी, पत्ते से बनी खाने की पत्तल, एक चूल्हा मिट्टी का, एक लुंगी और महिला के तन पर कहने को एक साड़ी.
एक तरफ तो वो व्यक्ति है जो पूरी दुनियां में घूमा है. एक तरफ वो व्यक्ति है जो कभी दंतेवाड़ा से बाहर नहीं गया. उनका जीवन और उसकी सार्थकता के बारे में, सोच में बहुत अंतर है. जब मुरिया समुदाय के करीब 85-90 वर्ष के उस व्यक्ति से बात की तो जो उसने जीवन की अवधारणा समझी, शायद वो ही हकीकत भी है.
उत्तर- येई माटी, डोंगरी, नंदी, रुक ची जीव आय (यही मिट्टी, पहाड़, नदी और पेड़ मेरे लिए जीवन है)
प्रश्न- तुई कहा-कहा बुललिसिस (आप कहाँ-कहाँ घूमे हो ?)
उत्तर- मैं मोचो सपाय जीवन ने दंतेवाड़ा ले बाहरी केबई नि गेलेसे (मैं अपने पूरे जीवन में कभी दंतेवाड़ा से बाहर नहीं गया हूँ)
प्रश्न- तुके जीवन ले काई दुख आय (आपको जीवन से कोई दुख है ?)
उत्तर- ये जोन माटी, रुक, डोंगरी आरु नंदी सरते जायसे हुँचीई काजे मके दुखी लागेसे मोचो सपाय जीवन ने केबई कोचीई संगे काई झुआ – झगड़ नि होउ रए मान्तर ऐबे डोकरा होतो दाय खूबे झुआ – झगड़ होयसे (ये जो मिट्टी, पहाड़, पेड़ और नदी लगातार समाप्त होते जा रहे हैं, इसी का मुझे दुख है. मेरे पूरे जीवन में कभी किसी के साथ झगड़ा नहीं हुआ. लेकिन अभी बुढ़ापे के समय में खूब झगड़ा हो रहा है.
इनसे बात करके मुझे ये अहसास हुआ कि वनवासियों में रिश्तों का महत्व केवल औपचारिक मात्र नहीं है, बल्कि भावनाओं के साथ गहन और मजबूत है. जब उनके घर जाते हैं तो वो उसे एक खास दिन के तौर पर मनाते हैं. इनका साप्ताहिक बाजार केवल अपने उत्पादों को आदान-प्रदान करने का स्थान भर नहीं है, बल्कि एक उत्सव के रूप में देखते है और अपने सगे संबंधियों से मिलने का दिन समझते हैं.
जब उनके बच्चों से बात करेंगे तो उनकी आंखों में चमक, दिल में हौसला और कुछ करने की ललक दिखाई देगी. ये बच्चे कम उम्र से ही अपने घर के प्रति जिम्मेवारी बड़े ही संजीदगीपूर्वक निभा रहे हैं. इससे न केवल उनमें आत्मसम्मान का भाव पैदा होता है, बल्कि अपने घर के प्रति अनुराग भी बनाता है तथा प्रकृति के साथ सामंजस्य से रहना सिखाता है. वो बच्चे प्रायः वे सभी काम करते हैं जो हमारे यहां स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं. इससे उनमें कभी भी स्त्री-पुरुष में असमानता का भाव पैदा ही नहीं होता. बल्कि यहां महिलाओं की स्थिति ज्यादा महत्वपूर्ण है. लड़की के जन्म को बड़े उत्सव के रूप में मनाया जाता है.
जब आप उनके बाजार में जाएंगे तो वहां महुवा, लांदा बेचती वृद्ध महिलाएं, उसके सुरूर में डूब जाने को आपको आमंत्रित करती है और आप भी बेखौफ होकर उसका निमंत्रण हाथों-हाथ लपक लेने को आतुर रहते हैं.
जरा ठहरकर इस जंगल से बात कीजिये. और इसकी धड़कनों को सुनिए इसके अंदाज़ को समझने का थोड़ा-सा ही सही, मगर जतन जरूर कीजिये. डोकरा के उम्दा नमूने आपको दंग कर देंगे. अगर आप स्त्री भी हैं तो उस तथाकथित सभ्य समाज से कहीं ज्यादा आप सुरक्षित हैं. यहां न तो आपको किसी की नजरें बींधती है न जिस्म को टटोलते किरदार और न ही जबरदस्ती नजदीक आने को आतुर चेहरे.
अगले कुछ दिन एक कुम्हार का काम कर रहे वनवासी के घर रहा. उसकी चेहरे की छाप मुझे अभी भी एक अजीब से सन्नाटे से भरे हुए है. जो इस जीवन को और उसकी सार्थकता को सही से बयान करती है. वो दिव्यांग है और दिन भर में 3-4 घड़े तराशने का कार्य करता है. मैं उसके आत्मविश्वाश को सीख रहा था. उसे देखे जा रहा था. कुछ शब्द समझने का प्रयास कर रहा था. करीब 1 घंटे के बाद एक महिला आई. वो कुछ आपस में बात करने लगे. तब मुझे ये पता चला कि वो भी दिव्यांग है तो मैं अंदर से हिल गया.
जीवन में इतना संघर्ष और चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं, मेरी जुबान लड़खड़ाने लगी. मेरी आँखें बंद हो रही थी. वो अपनी जीवन यात्रा को बता रहे थे. लेकिन जैसे मेरे कान कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे. मैं चुपचाप वहां से उठकर चला आया. मुझे जीवन और उसकी सार्थकता का शायद जवाब मिल चुका था.
असल में ये बेजुबान (वनवासी) न केवल हमें जीवन का सलीका सिखाते हैं, बल्कि विषम से विषम परिस्थितियों में भी कैसे अपनी मूल प्रकृति के साथ रहना है. प्रेम और सौहार्द्र, न्यूनतम जरूरतों के साथ जीवन जीना है. यहां से अच्छी जिंदगी की कोई पाठशाला नहीं हो सकती.
जो निर्णय दिल से लेते हैं दिमाग से नहीं, लेकिन आज हम दिमाग से निर्णय करने वाले लोगों को ही पसंद करते हैं जबकि जीवन को दिल से जीया जाता है. दिमाग से केवल सौदा हो सकता है. रिश्ते नहीं बन सकते. अगर व्यक्ति का परिचय ही रिश्ते का आधार है तो वो ज्यादा समय तक नहीं चल सकता. वनवासी प्रेम दिल से करते हैं, जबकि हम लोग दिमाग से प्रेम करते हैं.
वनवासी रिश्ते दिल से बनाते हैं. हम लाभ-हानि के आधार पर रिश्ते बनाते हैं.
हम जीवन को मैनेज करने की सोचते हैं. जबकि वनवासी जीवन को जीते हैं. वनवासी का प्रेम कालजयी होता है. हम मौसमी प्रेम करते हैं.
उनकी जेबों में पैसे शायद बहुत कम है, लेकिन जीने का उत्साह और अर्थ हमसे ज्यादा है. जबकि हमारे पास जेब में पैसे भरे हैं, लेकिन वो उमंग और जीने का उत्साह और जिंदादिली शायद गाड़ी बंगले की चाह में दब गयी है.
आज तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों ने टुच्चे सपने देखने शुरू कर दिए हैं. कुछ बड़ा करने का न सपना बचा है न कोई उमंग. किसी को बड़ी गाड़ी चाहिए. किसी को बड़ा बंगला. किसी को बड़ा नाम चाहिए. किसी को पावर.
दुनिया उन्हीं लोगों ने बदली जो अलग रास्ते पर चले. अकेले होने पर कभी घबराए नहीं. बाहर से पहले अपने आप को अंदर से तोड़ना पड़ता है. तब कहीं जाकर हम कुछ सोच पाते हैं.
हमें जीवन के संदर्भ की तलाश करनी होगी. आखिर हमने समाज को क्या दिया ? बस जैसे-तैसे जीवन को काट रहे हैं या उसे जी रहे हैं.
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक व्यक्ति या एक परिवार किसी अभावग्रस्त बच्चे को आत्मसम्मान के साथ जीने का एक मौका दें ?
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ लोग मिलकर एक समूह बनाकर एक गाँव या मुहल्ले के अभावग्रस्त लोगों के लिए शिक्षा में या उनके रोजगार के कोई अवसर दे?
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सप्ताह में किसी ऐसे व्यक्ति या परिवार को भी खुशियों के साथी बनाएं, उनके साथ कुछ समय बिताएं ?
ऐसा नहीं हो सकता कि किसी दिन कोई अच्छी पुस्तक लेकर किसी सरकारी स्कूल में जाकर बच्चों को कुछ जीवन का सलीका सिखाएं. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पहले तो हम कम से कम अपनी दुनिया से निकलकर अन्य लोगों से बात करना शुरू करें. कुछ ऐसे साथी बनाएं जो हमे ताकत दें. हौसला दें. और जीवन को सार्थक बनाएं.
अश्वनी कबीर
Mob- +919899061748
लेखक सेन्टर फ़ॉर डायलॉग के निदेशक, रायपुर पुलिस ट्रेनिंग अकादमी और ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी, अहमदाबाद में विजिटिंग फैकल्टी हैं.
दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा में आदिवासियों के बीच काम कर रहे हैं.
.