मध्यप्रदेश

चुटका परमाणु परियोजना पर उठते सवाल और विकल्प

 

वर्ष 2020 के आंकड़ों के अनुसार भारत में स्थापित बिजली क्षमता 3 लाख 71 हजार 054 मेगावाट था। जिसमें नवीकरणीय (पवन/सौर) उर्जा की हिस्सेदारी 87 हजार 699 मेगावाट अर्थात कुल विधुत उत्पादन का 23.60 प्रतिशत। परन्तु 1964 से शुरू हुआ परमाणु उर्जा संयंत्र से अबतक मात्र 6780 मेगावाट ही स्थापित क्षमता विकसित हो पाया है। अर्थात कुल बिजली उत्पादन का 1.80 प्रतिशत है। भारत सरकार द्वारा नवीकरणीय उर्जा क्षमता 2022 तक 1लाख 75 हजार मेगावाट से बढाकर 2030 तक 4 लाख 50 हजार मेगावाट करने का लक्ष्य रखा गया है।

मध्यप्रदेश में 22 हजार 500 मेगावाट बिजली की उपलब्धता है जबकि अधिकतम बिजली डिमांड 12 हजार 680 मेगावाट है। मध्यप्रदेश में इस समय नवीकरणीय उर्जा का उत्पादन 4537 मेगावाट है। जबकि 5000 मेगावाट की 6 सौर परियोजनाओं पर कार्य जारी है। 16 हजार 500 करोड़ रुपए की चुटका परियोजना से 1 मेगावाट बिजली उत्पादन की लागत लगभग 12 करोड़ रुपए आएगी। जबकि सौर उर्जा से 1 मेगावाट बिजली उत्पादन की लागत लगभग 4 करोड़ रुपए आएगी। सौर उर्जा संयंत्र 2 वर्ष के अंदर उत्पादन शुरू कर देगा वहीं परमाणु बिजलीघर बनने में 10 वर्ष लगेंगे।

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, दिल्ली की रिपोर्ट के अनुसार परमाणु बिजली की लागत 9 से 12 रुपए प्रति यूनिट आएगी। चालीस वर्ष तक चलने वाली परमाणु संयंत्र की “डी- कमिशनिंग” (बंद करना) आवश्यक होगी। जिसका खर्च स्थापना खर्च के बराबर होगा। अगर इस खर्च को भी जोड़ा जाएगा तो बिजली उत्पादन की लागत लगभग 20 रुपए प्रति यूनिट आएगी। वहीं मध्यप्रदेश में रीवा की 750 मेगावाट सौर विधुत 2.97 रुपए प्रति यूनिट की दर से बेची जा रही है।

 बिजली उत्पादन के स्थान से उपभोक्ताओं तक बिजली पहुंचाने में 30 प्रतिशत बिजली बर्बाद होता है। जितना पैसा और ध्यान परमाणु बिजली कार्यक्रम पर लगाया जा रहा है, उसका आधा पैसा पारेषण-वितरण में होने वाली बर्बादी को कम करने पर लगाया जाए तो यह बिजली उत्पादन बढाने जैसा ही होगा। परमाणु उर्जा संयंत्रों के इतिहास की तीन भीषण दुर्घटनाओं थ्री माइल आइस लैंड (अमेरिका), चेर्नोबिल (युक्रेन) और फुकुशिमा (जापान) ने बार-बार हमें यह चेताया है कि यह एक ऐसी तकनीक है जिस पर इंसानी नियंत्रण नहीं है।

फुकुशिमा में आसपास के 20 किलोमीटर दायरे में 3 करोड़ टन रेडियोएक्टिव कचरा जमा है। इस कचरा को हटाने में जापान सरकार ने 94 हजार करोड़ खर्च कर चुकी है। विकिरण को पुरी तरह साफ करने में 30 साल लगेगें।

परमाणु उर्जा स्वच्छ नहीं है। इसके विकिरण के खतरे सर्वविदित है। वहीं परमाणु संयंत्र से निकलने वाली रेडियोधर्मी कचरा का निस्तारण करने की सुरक्षित विधी विज्ञान के पास भी नहीं है। ऐसी दशा में 2.4 लाख वर्ष तक रेडियोधर्मी कचरा जैवविविधता को नुकसान पहुंचाता रहेगा। अध्ययन में यह बात भी सामने आया है कि परियोजना के आसपास निवास करने वाले लोंगों के बीच विकलांगता, कैंसर और महिलाओं में गर्भपात एवं बांझपन की मात्रा बढ़ जाती है।

इसलिए अमेरिका और ज्यादातर पश्चिम यूरोप के देशों में पिछले 35 वर्षो में रिएक्टर नहीं लगाए गए हैं। दरअसल परमाणु बिजली उधोग में जबरदस्त मंदी है। इसलिए अमेरीका, फ्रांस और रूस आदि की कम्पनियां भारत में इसके ठेके और आर्डर पाने के लिए बेचैन है।

चुटका परियोजना हेतू 54.46 हेक्टेयर आरक्षित वन तथा 65 हेक्टेयर राजस्व वन कुल 119.460 हेक्टेयर जंगल खत्म होगा। जबकि बरगी बांध में पहले ही लगभग 8500 हेक्टेयर घना जंगल डूब चुका है। जिससे इस क्षेत्र का पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ेगा।

बरगी बांध से 4.37 लाख हेक्टेयर सिंचाई होना प्रस्तावित है। परन्तु 30 साल बाद अभी मात्र 70 हजार हेक्टेयर में ही सिंचाई हो पा रहा है। जबकि वर्तमान में झाबुआ पावर प्लांट को बरगी जलाशय से 230 लाख घनमीटर पानी प्रति वर्ष दिया जा रहा है। चुटका परियोजना के लिए भी 788.4 लाख घनमीटर पानी प्रतिवर्ष दिया जाना प्रस्तावित है। जिससे सिंचाई व्यवस्था पर विपरीत असर पड़ेगा। चुटका संयंत्र से बाहर निकलने वाली पानी का तापमान समुद्र के तापमान से लगभग 5 डिग्री अधिक होगा। जो जलाशय में मौजूद जीव-जन्तुओं का खात्मा कर सकती है।

परमाणु संयंत्र से भारी मात्रा में गर्मी लगभग (3400 डिग्रीसेंटीग्रेड) पैदा होगा। जिसे ठंडा करने में भारी मात्रा में पानी का इस्तेमाल होगा जो काफी मात्रा में भाप बनकर खत्म हो जाएगा तथा जो पानी बचेगा वो विकिरण युक्त होकर नर्मदा नदी को प्रदूषित करेगा। विकिरण युक्त इस जल का दुष्प्रभाव जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, बड़वानी सहित नदी किनारे बसे अनेक शहर और ग्राम वासियों पर पड़ेगा। क्योंकि वहाँ की जलापूर्ति नर्मदा नदी से होता है।

चुटका के आसपास के क्षेत्रों में सुरक्षा कारणों से बरगी जलाशय में मत्स्याखेट तथा डूब से खुलने वाली भूमि पर खेती प्रतिबंधित कर दिया जाएगा। जिससे हजारों मछुआरा तथा किसान परिवारों की आजीवका खत्म हो जाएगी। ज्ञात हो कि बरगी जलाश्य से खुलने वाली 260 हेक्टेयर भूमि को चुटका परियोजना को देने का निर्णय मध्यप्रदेश मंत्रीमंडल ने 13 जुलाई 2017 को ले लिया है। जबकि इस डूब की जमीन पर विस्थापित परिवार खेती करते हैं।

आपदा प्रबंधन संस्थान, भोपाल की एक रिपोर्ट के अनुसार मंडला जिले की टिकरिया (नारायणगंज) भूकंप संवेदी क्षेत्रों की सूची में दर्शाया गया है। वर्ष 1997 में नर्मदा किनारे के इस क्षेत्र में 6.4 रेक्टर स्केल का विनाशकारी भूकंप आ चुका है।

बरगी जलग्रहण क्षेत्र में भारी मात्रा में मिट्टी (गाद) से जलाशय भर रहा है। बांध का अनुमानित उम्र 100 वर्ष माना जाता है। परन्तु गाद भराव के कारण 30 वर्ष कम होने का अनुमान है। जबकि नर्मदा में पानी की मात्रा लगातार घट रहा है। प्रश्न यह है कि अधिकतर समुद्र किनारे लगने वाली परियोजना को नदी किनारे लगाने की जल्दबाजी प्रदेश को गहरे संकट में तो नहीं डालेगा? प्रदेश में दूसरा भोपाल गैस कांड की पुनरावृत्ति तो नहीं होगी?

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राजकुमार सिन्हा

लेखक बरगी बाँध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं तथा विस्थापन, आदिवासी अधिकार और ऊर्जा एवं पानी के विषयों पर कार्य करते हैं। सम्पर्क-+9194243 85139, rajkumarbargi@gmail.com
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