जब जनतंत्र में अपने विरोधी को दुश्मन समझा जाने लगे तो हमें सचेत होना चाहिए। स्टीवन लेविट्स्की एवं ऐंटोनीओ जिब्लाट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डिमॉक्रेसी डाइज़’ में यह चिंता व्यक्त की है कि शायद अमेरिकी जनतंत्र पहली बार गम्भीर ख़तरे से गुज़र रहा है। उनका मानना है कि यदि राजनीति में विरोधी दुश्मन दिखने लगे तो समझना चाहिए कि जनतंत्र ख़तरे में है। यह बात भारत में भी लागू होती है। पिछले कुछ चुनावों से हमारे राजनीतिज्ञ भाषा की मर्यादा भूलते जा रहे हैं। सांकेतिक रूप में ही सही कभी अपने विरोधियों को कुत्ता, तो कभी कुत्ते का पिल्ला कहा जा रहा है।
शीर्ष नेता भी कभी किसी को चोर तो किसी को चोर का कुत्ता कह देते हैं। इसी तरह बाप, माँ, नाना, नानी आदि सबको चुनाव के मैदान में गाली-गलौच कर दिया जा रहा है। ऐसा क्यों होता है? क्या ऐसा करना ज़रूरी है?
जब नेता अमर्यादित भाषा बोलने लगें तो समझना चाहिए कि उनके पास जनता को देने के लिए कुछ भी नहीं है। जनता को भी बात समझ में आ गयी है कि वादे केवल जुमले हैं और शायद जनता उससे आकर्षित भी नहीं होती है। फिर उन्हें आकर्षित कैसे करें? इसके लिए शुरू में तो बार-बालाओं और सिनेमा के दिग्गजों को भी मैदान में उतारा जाने लगा, लेकिन अब जनता उससे भी ऊब चुकी है।
दरअसल अब गालियाँ मनोरंजन उद्योग में साधन के रूप में उपयोग हो रही हैं। लोकप्रिय सिनेमा या सीरियलों में इनकी बानगी देखी जा सकती है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर की व्यावसायिक सफलता के बाद से बॉलीवुड के निर्देशक निर्माता यह समझ गये हैं कि जनता का मनोरंजन हिंसा और गालियों से भी किया जा सकता है।
अभी नेटफ़्लिक्स पर सबसे लोकप्रिय हो रहे सीरीयल सेक्रेड गेम्स में हर तरह की गालियाँ सुनी जा सकती हैं। अमेज़ोन पर दूसरा सीरियल ‘मिर्ज़ापुर’ भी गाली और हिंसा से भरा हुआ है।
निर्देशकों ने फार्मूला पकड़ लिया है। खूब सारी हिंसा, उसका ग्राफ़िक डिटेल, सेक्स और सबसे ज़्यादा गालियाँ। एक और मनोरंजन का साधन आजकल प्रचलित हो रहा है जिसे ‘स्टैंड अप कमेडी’ कहा जा रहा है। बस कुछ नक़ल, कुछ अकल और ज़्यादा गालियाँ।
अब यदि गालियाँ ही हमारे मनोरंजन के लिए ज़रूरी हैं तो फिर नेता कैसे पीछे रह जाएँगे। आख़िर चुनाव का महत्व ही यही है कि उसमें कुछ मनोरंजन हो जाए क्योंकि गम्भीर बातें तो उनके लिये हैं ही नहीं। ज़ोर से चिल्लाएँ, दूसरे की नक़ल मारें और उन्हें कुछ गालियाँ दे दें। काम ख़त्म।
गालियों का एक और महत्व है कि हमारे ख़बरिया चैनल उसे ही न्यूज़ मानते हैं। नेता ने गाली दी और चैनल में चलना शुरू हो गया। उससे काम नहीं चला तो फिर कुछ लोगों को शाम में बुला लिया और प्रायोजित ढंग से गलियों पर बातचीत के बहाने फिर गालियाँ शुरू हो गईं।
यह एक खतरनाक ट्रेंड हैं। गालियों को न्यूज़ और भाषण में परोसा जाने लगे तो जनतंत्र को सुरक्षित समझना सही नहीं होगा। भाषा की मर्यादा जनतंत्र की पहली शर्त है। यह कह देना कि यदि हम सत्ता में आये तो किसी को राज्य या देश छोड़ कर भागना होगा, गाली से भी ख़तरनाक है। इसका क्षणिक महत्व समर्थकों के मनोरंजन के लिए तो हो सकता है, लेकिन समुदायों के बीच के रिश्ते हमेशा के लिए ख़राब हो सकते हैं।
मणीन्द्र नाथ ठाकुर
लेखक प्रसिद्ध समाजशास्त्री और जेएनयू में प्राध्यापक हैं।
+919968406430
Related articles

दिशाहीनता काँग्रेस को ले डूबेगी
अजय तिवारीAug 26, 2022
कब जीतेगा बंगाल
किशन कालजयीFeb 07, 2021
आपको कौन लालू याद आ रहे हैं?
सबलोगJun 11, 2020डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
