साहित्य

नेहरू मॉडल और एक श्रावणी दोपहरी की धूप (भाग-3)

 

  • मृत्युंजय पाण्डेय

 

नेहरू मॉडल और एक श्रावणी दोपहरी की धूप (भाग-1)

नेहरू मॉडल और एक श्रावणी दोपहरी की धूप (भाग-2)

 

‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप’ कहानी को एक और दृष्टि से भी पढ़ा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो इस कहानी को झरना की नजर से भी देखा जाना चाहिए। यानी एक स्त्री की दृष्टि से। इस दृष्टि से देखने के लिए आपको थोड़ा-सा स्त्री होना पड़ेगा। प्रेमचन्द की भाषा में कहें तो आप जैसे ही थोड़ा-सा स्त्री होंगे आप देवता हो जाएँगे। आपमें देवत्व का वास हो जाएगा। लेकिन मेरा अनुरोध है कि आप देवता नहीं एक सहृदय मनुष्य बनकर इस पक्ष को देखिए। क्या पता देवता बनते ही आप उसे पत्थर बना दें या पत्थर बनी स्त्री को एक-दो लात ही लगा दें!जिंदगी की राहें: स्टोपर्स

      झरना अपूर्व सुन्दरी है और उसे इस बात का अहसास भी है। उसकी सुन्दरता पर मोहित होकर ही पंकज ने उससे विवाह किया था। पंकज को भी यह बात पता है कि उसकी पत्नी बहुत सुन्दर है और उसी के चलते उसके सहकर्मी उससे जलते हैं। उसे तरह-तरह से हतोत्साहित करते हैं। जैसे— आज के जमाने में सती-साध्वी या सावित्री जैसी स्त्रियाँ मिलनी मुश्किल हैं या ‘लव-मैरेज करनेवालों को यदि मौका मिले, तो सारा जीवन ‘लव’ और ‘मैरेज’ करने में ही गुजार’ दें या ‘मुहर्रमबाग की कौन-सी ऐसी कुमारी लड़की है जो रमणीमोहन की गाड़ी पर चढ़कर मनेर-डाकबंगले में पिकनिक करने नहीं गयी होगी’। ये सभी बाते पंकज को चुभती हैं। इसे सुन वह विचलित हो जाता है। इन बातों से निजात पाने के लिए वह अपने दोस्तों का संग-साथ छोड़ देता है। दरअसल पंकज इन बातों को सुनकर दुविधा की स्थिति में आ जाता है। झरना उसे अपने हाथों से, जीवन से जाती हुई प्रतीत होती है। संशय की यह स्थिति झरना के साथ भी उत्पन्न होती है। जब पंकज उसकी बातों को अनसुनी करना शुरू करता है, झरना अपने अस्तित्व को लेकर दुविधा में पड़ जाती है। उसे लगता है कि पंकज के जीवन में अब उसका कोई महत्त्व नहीं रहा। वह उसके लिए दाल-भात की तरह हो गयी है। शायद इसीलिए वह तरह-तरह की कहानियाँ रचती है, जिससे पंकज उसकी ओर आकृष्ट होता रहे। उसकी छोटी-छोटी बातों में पड़कर पंकज अब तक पचास लोगों से झगड़ा मोल चुका है। पंकज जब उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लेता। तब उसे लगता है कि उसके हमसफर का हाथ उससे छूट रहा है। उसकी पहचान खो रही है। वह गुजरे हुए वक्त की तुलना वर्तमान समय से करती है। विडम्बना यह कि उसका वर्तमान अतीत पर भरी पड़ता है। उसे वही सच लगने लगता है, जो वास्तव में सच नहीं है। गली-मोहल्ले के जो लोग उसे देखते हैं या जो उसे सुनाकर गाना गाते हैं, वे उससे प्रेम नहीं करते, वह अपना सिर्फ दिल बहलाते हैं और इसी चीज को वह सच मान बैठती है। उसके प्यार पर गाड़ीवाला दादा की आवाज भारी पड़ती है। वह उसे रिझाने के लिए मेकअप करती है और नयी धुली हुई साड़ी पहनती है। गाड़ीवाला दादा की अभद्र बातें उसे अच्छी लगती हैं, बल्कि वह उसी तरह की बातें सुनना भी चाहती है।3 Different Types Of Loves That All Humans Experience Explained ...

      एक कुशल शिकारी की तरह गाड़ीवाला दादा उसे अपनी गिरफ्त में ले लेता है और वह उसकी जाल में स्वेच्छा में फँस जाती है। वह झरना की पतली कमर को एक हाथ से आवेष्ठित करते हुए अपने सर को उसकी छाती पर टिकाने की कोशिश करता है। और झरना दबी हुई आवाज में सिर्फ यह कहती है कि ‘कोई देख लेगा’। यानी यदि किसी के देखने का डर न रहता तो गाड़ीवाला दादा से पहली मुलाक़ात में ही वह सम्बन्ध बना लेती। दादा को ‘अधर सुधा-रस’ का पान कराने में उसे जरा भी संकोच न होता। वह दादा और पारुल के गुप्त सम्बन्ध के बारे में जानना चाहती है, शायद उन जैसा कोई गुप्त सम्बन्ध भी बनाना चाहती है। वह बेझिझक, बल्कि कुछ ठसक से ही गाड़ीवाला दादा की गाड़ी में बैठकर बाहर जाती है। पर भीड़ भरे रास्ते में उसे पंकज दिख जाता है। वह झरना के लिए दूधिया भुट्टा खरीद रहा था। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि पंकज उससे प्रेम नहीं करता या उसका प्रेम कम हो गया है। उसकी गलती सिर्फ इतनी है कि वह अपने प्रेम को जताता नहीं है। दिखाता नहीं है। वह भूल चुका है कि जिस समाज और जिस समय में वह रह रहा है वहाँ करने से अधिक दिखाने की जरूरत है। दिखावे की इसी प्रवृत्ति की वजह से झरना को मुहल्ले के लड़के और गाड़ीवाला दादा अच्छे लगते हैं। एक तरह से देखें तो पंकज का प्रेम ज्यादा मजबूत है, झरना के प्रेम से। तनिक देर में ही उसे अपने प्रेम पर से विश्वास उठ जाता है। वह कहीं और प्रेम तलाशने लगती है। इसके विपरीत पंकज उसे सीता और सावित्री की श्रेणी में रखता है। कुछ स्त्रीवादी लेखिकाएँ रेणु पर या पंकज पर नाराज भी हो सकती हैं कि वे एक स्त्री को सीता या सावित्री के रूप में क्यों देखना चाहते हैं! वह उस रूप में देखना नहीं चाहता, बल्कि वह उन लोगों की तरह झरना की भी इज्जत करता है। झरना के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा है। लेकिन वह इन सब चीजों को नहीं समझ पाती। वह एक दिखावे की दुनिया में विचरती है।ठेस

      यद्यपि कहानी के अन्त में हम देखते हैं कि भीड़ भरे बाजार में, गाड़ीवाला दादा के साथ जाते हुए, गाड़ी से पंकज को भुट्टा खरीदते देख उसे अपने दाम्पत्य के मधुर दायित्व का तीव्र बोध होता है और वह गाड़ी से उतरकर पंकज के साथ हो लेती है। लेकिन इस कहानी में यह भी संकेत हैं कि ऐसे प्रेम सम्बन्ध बहुत दिनों तक नहीं चल सकते। झरना भले ही आज गाड़ी से उतर गयी हो, पर एक-न-एक दिन वह गाड़ीवाले दादा के साथ जरूर जाएगी। जिस दिन काम के बोझ के चलते वह भुट्टा खरीदना भूल जाएगा, उस दिन झरना भी उससे दूर हो जाएगी। जैसे-जैसे भुट्टे की मिठास कम होती जाएगी, वैसे-वैसे दादा की अश्लील बातें उसे और अच्छी लगने लगेंगी। वह चाहेगी दादा सबके सामने उसकी छाती पर अपना सर रखे। वह भी अन्य लड़कियों की तरह उसके साथ मनेर डाकबंगले में पिकनिक मनाने जाएगी। एक दिन पंकज सावन की बारिश में सड़क पर अकेला खड़ा भींग रहा होगा और उसकी झरना गाड़ीवाला दादा के साथ जा रही होगी। वह उसकी गोद में नहीं, दादा की गोद में बैठी होगी।

लेखक देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार से सम्मानित युवा आलोचक एवं सुरेन्द्रनाथ कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।  

सम्पर्क- +919681510596, pmrityunjayasha@gmail.com   

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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