साहित्य

भविष्य के गर्भ में दबा मुक्ति का इतिहास

 

  •  अरविन्द कुमार 

 

‘फाँस’ कथाकार संजीव का उपन्यास है जिसका रचनाकाल 2011-12 है और यह वर्धा के महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्री हिन्दी विश्वविद्यालय में अतिथि लेखक के रूप में रहकर लिखा गया है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र के कई वैसे गाँव हैं जहाँ सूखा या जलसंकट के अन्य कारणों या फिर अतिवृष्टि या ओले की वारिश के चलते किसानों के खेत बंजर हो गये हैं और उससे उबरने का कोई रास्ता उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है। जाहिर है कि ऐसे किसान इस दवाब को झेल नहीं पाने के कारण जीवन से पलायन कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति  उनके भीतर जन्मजात नहीं है पर सरकारी योजनाओं की विफलता या उनमें व्याप्त बेईमानी उनके भीतर हार के बीज डाल रही हैं।

फांस : एक सच्चा बहुजन उपन्यास ...

   उपन्यास बनगाँव के एक शेतकरी परिवार से शुरू होता है जिसमें चार आदमी रहा करते हैं -शिबू, शकुन तथा उनकी दो बेटियाँ सरस्वती तथा कलावती। बनगाँव पहाड़ी की ढलान पर बसा हुआ गाँव है। बारिश हुई तो ऊपर का पानी पहाड़ी ढलानों पर रिस-रिसकर नीचे उतरता है। यह संयोग है या कोई चालाकी कि ऊँचास पर स्थित दलित, पिछड़े और मामूली जोत के किसानों के खेतों के कंठ भी नहीं भींगते कि पानी नीचे ढुलक जाता है।

पिछड़ों की किसानी व कम्युनिस्ट धारा

नीचे अगड़े या ब्राह्मण, राजपूत तथा कुछ एक मराठा परिवारों के खेत और बाग-बगीचे हैं, सन्तरे, अनार के बाग हैं। पानी रिस-रिसकर उतर के एक बाग में जमा होता है। जाहिर है कि मामूली जोत के किसान अपने खेतों में ढंग से कुछ उगा ही नहीं पाते और नीचे रहनेवाले बड़े किसानों के खेतों में फसल लहलहाती होती। यानी खुद के द्वारा निर्मित सुविधा की व्यवस्था। छोटे किसान जो ऊपर थे, कुछ कर ही नहीं सकते थे।

Piyant Parmar (@PiyantP) | Twitter

पर उसी महाराष्ट्र में एक ऐसा गाँव भी था- मेंडालेखा जहाँ असमानता जैसी कोई चीज थी ही नहीं। उपन्यास के शुरू में इसकी चर्चा उपन्यासकार इसलिए कर देता है क्योंकि वह ऐसी ही व्यवस्था या ऐसा ही समाज हर जगह चाहता है। उपन्यास की नायिका कलावती जब स्कूल के एक कैम्प में ‘मेंडालेखा’ जाती है तो वह चकित रह जाती है। यह गाँव  अपने तमाम गँवईपन के बावजूद उसके लिए किसी आश्चर्यलोक से कम नहीं था।

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बाँस के जंगल और पुराने पेड़ों से भरा एक ऐसा गाँव जहाँ कोई जाति नहीं, कोई भेदभाव नहीं, जंगल पर सबका समान अधिकार। जहाँ गाय, भैंस  पालते तो सब हैं  पर उनका दूध कोई नहीं पीता। दूध बछड़े और पाड़े के लिए होता है। हल्या खेत जोतने के काम आता है। गाँव और जंगल की उपज सब यहाँ सामुहिक। यहाँ कोई राजा नहीं, कोई मालिक नहीं। जाहिर है, यह व्यवस्था उसके अपने गाँव ‘वनगाँव’ से बिल्कुल भिन्न थी। शायद यही सब चीजें उसके भीतर एक विद्रोह का भाव भरती हैं और उसे नायकत्व की ओर ले जाती हैं।

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शकुन इस उपन्यास की दूसरी मजबूत कड़ी है जो अन्याय और विभेद से लड़ती रहती है और अन्ततः हिन्दू धर्म या समाज छोड़कर बौद्ध हो जाती है। शिबू जब तक उपन्यास में मौजूद  रहता है दुविधा में रहता है और अपनी मर्यादा को बचाए रखने की झूठी जिद पर अड़ा रहता है। उसकी आत्महत्या एक शेतकरी की आत्महत्या नहीं है बल्कि एक दुविधाग्रस्त मन की पराजय का एक हिस्सा है। यहाँ होरी और धनिया की याद आती है। होरी इसी आत्मसम्मान को बचाए रखने के झूठे कुचक्र  में फँसकर हार जाता है पर धनिया अन्त-अन्त तक लड़ती रहती है। जो स्थितियाँ है, वे तो बदलेंगी नहीं, उन्हीं में जीवन का रास्ता तलाशना है। शकुन ऐसा ही करती है। वह कला को पूरी शिक्षा देना चाहती है, उसे सामाजिक बन्दिशों  से बाहर निकालना चाहती है और इसमें वह कला के हर नये कदम  के साथ है।

हिन्दी की हिन्दुत्ववादी आलोचना

आगे चलकर शकुन के लिए कला परिवतन और संघर्ष की एक मशाल बन जाती है। वह कहती है- ‘सदियों के थोपे गये इन मूल्यों के तले दबकर रह गया है हमारा सहजबोध, जैसे ये ऋणवादी मूल्य। शास्त्रों में बवाव बनाया जाता है कि कर्ज अदा किये बिना मरे तो मुक्ति नहीं होगी।’ …हिन्दू से बौद्ध बनने के सवाल पर शिबू यही तो कहता है- ‘हिन्दू रहकर कर्ज लिया है, हिन्दू होकर उतार दूँ। हो जाऊँगा तब।’

दरअसल यह  कर्ज ही किसान के गले की फाँस है जो धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और एक दिन उसे अन्त की ओर ले जाता है।

Farmer suicides by debt| city News in Hindi | कर्ज से ...

 माधव सूदखोर महाजन और बिचैलिए के कुचक्र में ऐसा फँसता है कि उसे अपनी मृत्यु के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता। ऊस की फसल से लाखों कमा लेने का लालच उसे मरीचिका की तरह जकड़ लेता है। ऊस की कितनी मिठास थी और सपनों की कितनी ऊँची उड़ान! मिठास और उड़ान के बीच की यह मौत चकित कर देने वाली थी।….‘अलग हूँ मैं। इसीलिए अस्वाभाविक है मेरी जिन्दगी। मेरी मौत चकित कर देगी तुम्हें। बेमौसम बारिश की तरह।’…उपन्यास में शेतकरी की ऐसी कितनी मौतें चकित करती हैं।

जाहिर है, ऐसी ही स्थितियों से तंग आकर उन किसानों  ने यह मान लिया था कि मरना एक मुक्ति है। आखिर क्यों बंजर हो जाता है आदमी का मन? इस मरण के खिलाफ उठकर खड़े होने की कोशिश में बार-बार क्यों लड़खड़ाकर गिरता है आदमी!

आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना स्त्री स्वतन्त्र नहीं

कलावती या कला या छोटी मुलगी इस उपन्यास की एक बेलौस या बिन्दास  चरित्र है जो जिन्दगी अपनी शर्तों पर जीती है। चाहे वह अशोक के लिए प्यार की बात हो या विजयेन्द्र के लिए दैहिक समर्पण का दृष्टान्त या फिर अपने विवाहित जीवन में अपने पति को छोड़कर एक नये सबेरे के लिए प्रस्थान का संकल्प। इस उपन्यास में कलावती का होना उस सुनहरे प्रतीति के बोध का होना है जहाँ आप थम जाते हैं और कुछ बटोरने लगते हैं। इस बात को अशोक भी मानता है और विजयेन्द्र भी।

कलावती अपने नवरा सुभाष का घर छोड़कर उन लक्ष्मण रेखाओं का अतिक्रमण कर लौट गयी अपने लोगों के बीच  जहाँ बहुत सारी सम्भावनाएँ उसका इन्तजार कर रही थीं।  पर लौटकर वह कहीं और नहीं जाती, विजयेन्द्र के घर जाती है। वही विजयेन्द्र जो उसके सपनों का नायक था और जिसे छोड़कर उसे बाँसौड़ा जाना पड़ा था। विजयेन्द्र के सपनों में वह अब भी है, यह उसे पता था। कला ने विजयेन्द्र से पूछा- ‘आप अमेरिका जा रहे हो?’ उसकी आँखें छलछला आयीं- ‘मैं तुमसे बराबर कहती आयी, आज भी कह रही हूँ, अमेरिका जाओ, इजिप्ट जाओ, चाँद पर जाओ या कही और, जहाँ भी संजीवनी मिले, ढूँढ़कर लाओ।’

स्त्री विमर्श के प्रचलित मिथ

…वह कहती रही- ‘तेजाब की बूँद-बूँद बनकर गिरती और गलाती रही मेरे बाप की मौत मुझे। उस फाँस से उबरना था और इस फाँस से भी। मैं चली आयी उन लक्ष्मण रेखाओं का अतिक्रमण कर। संसार का दरवाजा तो हमेशा के लिए बन्द  कर आयी।’ हालाँकि बाद में अमरावती के बोडुरा गाँव जाने पर विजयेन्द्र को इस बात का पता चल जाता है कि कीटनाशक और आर्सेनिक के ज्यादा प्रयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति समाप्त होती जा रही है। उपन्यासकार उपन्यास में इसका उल्लेख भी करता है, जो आनेवाली भयावहता का संकेत है।

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इतालवी चिन्तक समाजशास्त्री फ्रैंको बिफो बेरार्की अपनी पुस्तक ‘हीरोज: मास मर्डर एण्ड सुसाइड’ (2015) में कहते हैं कि ‘ये घटनाएँ नव-उदारवादी वित्तीय पूँजीवाद की विनाशकारी व्यवस्था और उसकी आत्मघाती प्रवृतियों की बेहद चिन्ताजनक सच्चाइयों का खुलासा करती हैं। ये लोगों को घबराहट और हिंसक प्रवृतियों की ओर ले जा रही हैं। ये घटनाएँ अब मानसिक असन्तुलन की अपवाद या हाशिए की घटनाएँ नहीं रह गयी हैं बल्कि ये हमारे दौर के राजनैतिक इतिहास की बड़ी सच्चाई बनकर उभर रही हैं।’…इसीलिए फिलहाल तो उसका हुलास लौटनेवाला नहीं दिखता। उसकी किसी भी मुक्ति का इतिहास भविष्य  के गर्भ में दबा पड़ा है। दरअसल किसान इतना सरल होता है कि वह मौसम की और मनुष्य संचालित शक्तियों की भी  मार  झेल लेता है पर कहीं भी सीधा प्रतिकार नहीं करता।

आन्दोलन की राह पर भारत के किसान

वह अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने में भी  विश्वास नहीं करता। उपन्यास में इसका अभाव है। सिर्फ अतीत के बैलबंडी आन्दोलन  की चर्चा के अतिरिक्त इसमें कहीं कुछ नहीं। न ही इसमें महाजन से कोई दूराव है, न बिचैलियों से, न ही नौकरशाहों से, राजनेता और पूँजीपति तो इन शेतकारियों की पहुँच से बहुत दूर की चीज हैं। यहाँ तक कि विजयेन्द्र की हत्या के प्रयास के बाद भी किसानों का कोई सामूहिक प्रतिरोध दिखाई नहीं देता। अशोक और कला के बच्चे तो भविष्य की सन्ताने  हैं पर वर्तमान न तो गढ़चिरौली से आता है न ही चन्द्रपुर से। तो क्या उपन्यासकार इस परिवर्तन को वर्धा के गाँधीवादी विमर्श से जोड़कर देखा जा रहा है? और क्या यही उसका गन्तव्य है?…

लेखक तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के  पूर्व विभागाध्यक्ष हैं।

सम्पर्क- +919934665938, arvind.kr.bgp@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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