
हाल में मैंने कुछ मित्रों के साथ मिथिला की यात्रा की थी। ख़ासकर हमलोग आयाची मिश्र के गाँव एक सेमिनार और उनकी प्रतिमा के अनावरण के सिलसिले में गये थे। हमने जो कुछ वहाँ देखा और समझा उसकी चर्चा आपको ज़्यादा रोचक लगेगी यदि इसकी थोड़ी पृष्ठभूमि मिल जाए। लगभग तेरह वर्षों पहले हमलोगों ने पहली बार मिथिला के गाँव में एक ‘दार्शनिक यात्रा’ की थी। इस दल में मेरे साथ हिडेलबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी की एवेलिन हुस्ट, दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी की शिक्षिका सुक्रिता पॉल कुमार और ‘बिहार रीसर्च सोसायटी’ के शिव कुमार मिश्र थे। पूरी टीम को लेकर हिडेलबर्ग विश्वविद्यालय के दिल्ली शाखा के पारस नाथ चौधरी थे। मुख्य शोधप्रश्न था कि क्या भारतीय दर्शन अभी भी जन मानस का हिस्सा है? यदि यह जनमानस का हिस्सा अभी भी है तो क्या आधुनिकता और भारतीय दर्शन में कोई संघर्ष है? यदि यह संघर्ष है तो लोग किस तरह से उसका समाधान करते हैं? क्या आधुनिकता और पारम्परिक दर्शनों के संगम से कुछ नया बन पा रहा है?
हमारी पहली यात्रा ने मिथिला में भी एक विमर्श का बीज बोया था। कुछ लोग ही सही, यह बात करने लगे थे कि ज्ञान परम्पराओं को भी इस तरह से देखा जा सकता है। संयोग से पिछले कुछ वर्षों में बहुत से लोगों का ध्यान इस ओर गया है। ख़ास कर अमर्त्य सेन की पुस्तक ‘आर्ग्युमेंटटिव इंडीयन’ के बाद इस पर चर्चा ज़्यादा होने लगी। फिर कोलंबीया विश्वविद्यालय के शेल्डन पुलोक के शोध प्रोजेक्ट ‘डेथ ऑफ संस्कृत’ ने इसे काफ़ी महत्त्व दिया। लेकिन अभी भी एक बात हमें इस शोधों से अलग करती है। हम लोगों का यह मानना था कि जिन समाजों में इन दर्शनों की उत्पत्ति हुई और जहाँ इन का पोषण हुआ बिना उनको समझे हमारी समझ पूर्ण नहीं हो सकती है। दूसरे शब्दों में केवल इनके ग्रंथों को पढ़कर हम इन दर्शनों के मर्म को पूरी तरह नहीं समझ सकते हैं।
इसी बीच जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की सहायता से हमें इस प्रोजेक्ट को दुबारा शुरू करने का मौक़ा मिला। इस बार कुछ नये लोग भी इस में जुड़ गये। अब इसमें राजनीति शास्त्र, दर्शनशास्त्र, संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी और समाजशास्त्र के कई शिक्षक जुड़ गये थे। हमने अपना फलक भी मिथिला से बढ़ा कर पूरा भारत कर लिया है। अभी तो हम लोग मूलतः एक आकलन कर रहे हैं कि भारत और ऐशियायी समाज में विभिन्न ज्ञान परम्पराओं का सामाजिक विस्तार कैसा था और उनमें से अभी भी समाज में कौन-कौन सी ज्ञान परम्पराएँ जीवन्त हैं। अपने क्षेत्र को विस्तृत करने का एक तरीक़ा हमने यह भी अपनाया है कि विभिन्न क्षेत्रों में इसी तरह के काम करने वाले कई संस्थाओं को जोड़ना शुरू किया है।
इस यात्रा में ‘सेंटर फ़ोर स्टडी ओफ़ नॉलेज ट्रेडिसन’ के अमित आनंद, और सविता झा खान जो दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं, पानी की समस्या पर काम करनेवाले और ‘वाटर मैन ओफ़ इंडिया’ के नाम से प्रसिद्ध राजेंद्र सिंह के संगठन से जुड़े पंकज कुमार, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से प्रोफ़ेसर अख़लाक़ अहमद हमारे साथ थे। इस कार्यक्रम का आयोजन सरिसबपाही गाँव की संस्था ‘अयाची डीह विकास समिति’ ने किया था। भारतीय दर्शनों के प्रसिद्ध विद्वान पंडित किशोर नाथ झा इसके अध्यक्ष थे और पंडित अमल कुमार झा संयोजक। लेकिन कार्यक्रम की परिकल्पना से उसके सफल आयोजन तक में मधुबनी शहर के लोकप्रिय व्यापारी और सामाजिक कार्यकर्ता नवीन जायसवाल जी का बड़ा हाथ रहा। इस बात का ज़िक्र करना ठीक होगा कि तेरह वर्षों से जिस संकल्प को हम लोग साथ लेकर चल रहे थे उसमें नवीन जी भी बराबर के सहभागी रहे हैं। हमारी पहली यात्रा ने उनके मन में इस विचार का बीज़ारोपन किया था और वे लगातार इस पर चिंतन किया करते थे।
इस पूरे कार्यक्रम में गाँववालों का बड़ा योगदान रहा। संचार की सुविधा के माध्यम से लगभग तीन सौ लोगों का एक ग्रुप बन गया और उसमें दनादन वार्तालाप शुरू हो गया। मेरे आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रह जब मैंने देखा कि लाखों रुपए चंदे के रूप में जमा हो गए। लोगों ने अपने पैसे से टिकट ले कर गाँव आने की घोषणा कर दी। कोई दिल्ली से, कोई सूरत से कोई गया से, न जाने कितने लोग ‘चलो चले गाँव की ओर’ के नारे के साथ चल पड़े। हम समाजशास्त्री यह सोचने लगे हैं कि आने वाले युग में शायद गाँव ख़त्म हो जाएगा। लेकिन इस उत्साह को देखकर लगा कि जब तक यह भावना ज़िंदा है, गाँव भी ज़िंदा रहेगा, शहरों में भी गाँव बना रहेगा।
सरिसबपाही मिथिला का एक प्रसिद्ध गाँव है। कई सौ वर्षों का इसका बौद्धिक इतिहास है। सैकड़ों ग्रंथ यहाँ लिखे गए। पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों ने भारतीय दर्शनों का अध्ययन और अध्यापन किया। अयाची मिश्र, शंकर मिश्र से लेकर, सर गंगा नाथ झा, चेतकर झा और हेतुकर झा जैसे बड़े विद्वान इसी गाँव से आते थे। यह कार्यक्रम अयाची मिश्र की एक कहानी से जुड़ा हुआ था। उनका असली नाम भावनाथ मिश्र था। उन्हें अयाची इसलिय कहा जाता था कि उनका प्रण था कि किसी से कभी कुछ लेंगे नहीं। लगभग हज़ार छात्रों का उनका आश्रम चलता था। गुरुदक्षिणा इतना कि हर छात्र दूसरे दस को पढ़ाएँ। अयाची कुछ लिखते नहीं थे। लिखने का काम उनके पुत्र शंकर मिश्र ने किया। लगभग पच्चीस किताबों में उन्होंने अलग-अलग विषय पर लिखते समय यह ज़िक्र किया है कि ये विचार अयाची के हैं।
हमारे लिए यह सवाल था कि क्या इस दर्शन को केवल पुस्तकों से समझा जा सकता है? हमारे प्रोजेक्ट की स्थापना यह है कि ये जीवन्त दर्शन थे। इन दार्शनिकों में यह मान्यता थी कि दर्शन और जीवन का अन्योन्याश्रय सम्बंध है; उसे अपने जीवन में उतरने का प्रयास किया करते थे। अतः, यह कहना सही होगा कि इन दर्शनों को समझने के लिय हमें पुस्तकों के अलावा उन समाजों का अध्ययन करना ज़रूरी है जहाँ इनका जन्म और संवर्धन हुआ है। लेकिन यह भी सही है कि ये समाज बदल गये हैं। इनका न तो ठीक से कोई इतिहास लिखा गया है और न ही इन लोगों ने आत्मकथाएँ लिखी हैं। फिर इसके बारे में हमें ठीक से कैसे पता चल सकता है? लेकिन इन समाजों में एक ख़ास बात है। यह समाज अपने इतिहास को इन कहानियों, गीतों, चुटकुलों में याद रखता है और उसे आसानी से अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करता है। हो सकता है इतिहास लिखने के लिय इन श्रोतों को मान्यता न मिले लेकिन समाज की गति को समझने के लिय ये अमूल्य निधि हैं।
उदाहरण के लिय इनमें से एक प्रसिद्ध कहानी को देखें।अयाची के पुत्र शंकर को जब अपने बाल काल में ही राजा ने उसकी विद्वता से खुश हो कर एक बहुमूल्य हार पारितोषिक के रूप में दिया, तो बालक की माँ ने उससे कहा कि यह बालक की पहली आमदनी है और इस पर उस महिला का अधिकार है जिसने शंकर के प्रसव में उसकी सहायता की थे। गाँव में प्रसव सहायिका को ‘चमैन’ कहा जाता था। हार उसे दे दिया गया। उस महिला ने पहले तो इसे लेने से इंकार कर दिया। उसका तर्क था कि मैं न तो इसे पहन सकती हूँ और न ही इसे रख सकती हूँ। लेकिन वापस करना तो सम्भव ही नहीं था। फिर उसने उस हार को बेच कर एक विशाल पोखर बनाया। पोखर गाँव में आज भी है और लोग उसे पवित्र मानते हैं। इस कहानी से इस ज्ञान परम्परा का वह आयाम सामने आता है जिसके बारे में कहीं किताबों में कुछ नहीं लिखा है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ में यह सवाल उठाया है कि क्या भारतीय दर्शन परम्परा का मूल उद्देश्य लोक कल्याण था? इस उपन्यास के मुख्य पात्र ‘रैक्व’ यह घोषणा करता है कि यदि ज्ञान जनहित में नहीं हो, मुक्तिदायिनी नहीं हो तो उसका कोई मतलब ही नहीं है। अयाची की इस कहानी से लगता है यही उसके दर्शन का मूल स्वर है।
एक और कहानी सुनें। इस क्षेत्र में शिव की उपासना के लिय सूलतानगंज से गंगा जल लेकर पैदल देवघर जाकर शिवलिंग पर चढ़ाने की परम्परा रही है है। शंकर की माँ ने से ऐसा करने का आदेश दिया। शंकर जल लेकर चला तो सही लेकिन रास्ते में उसने एक प्यासे गधे को उसे पिला दिया और वापस आ गया। माँ तो नाराज़ हुई लेकिन पिता बहुत ख़ुश हुए। पिता ने ख़ूब सराहना की और इसे ही शिव भक्ति बताया। इस कहानी से न्याय दर्शन के यथार्थवादी स्वरूप का परिचय होता है।
इसी तरह इन दर्शनिकों और समाज के बीच के सम्बन्धों के बारे में ग्रंथों में कुछ मिलता नहीं है। लेकिन कहानियाँ बहुत कहती हैं। एक बार जब इस गाँव से आक्रमणकारियों ने ग्रंथों को छीन कर ले जाने का प्रयास किया था तो एक नर्तकी ने उन्हें बचाया था। उनलोंग ने ग्रंथों को एक संदूक में भर का रखा था। रात में नाच-गाने के बाद जब सब सो गए तो, मनकी नाम की नाचनेवाली ने उस संदूक से पुस्तकों को निकाल कर लोगों को वापस पहुँचा दिया और स्वयं उसमें बैठ गई। ताकि इसके भार के कारण ले जानेवाले संदूक को पुस्तकों से भरा समझे।
आज दुनिया भर में दर्शन का संकट है जिसके कारण बहुत से दार्शनिक मनाने लगे हैं कि मानवता संकट में है। बहुत से दार्शनिक समधान के लिय भारतीय ज्ञान परम्परा की ओर उत्सुकता से देख रहे हैं। दुनिया के कई बड़े विश्वविद्यालयों में हाल में इन दर्शनों की पढ़ाई शुरू हुई है। लेकिन इन विश्वविद्यालयों को यह समझना होगा कि समाज से इसे जोड़े बिना इसके बारे में सही समझ बनाना मुश्किल है।
इस बार के कार्यक्रम का एक आकर्षण था अयाची और चमैन की काल्पनिक प्रतिमा का मुख्यमंत्री के द्वारा अनावरण किया जाना। बिहार के मुख्यमंत्री को भी यह बात जँची और उन्होंने इस काम को बख़ूबी किया। अपने भाषण में उन्होंने इस बात का बार-बार ज़िक्र किया कि राज्य की ऐसी परम्पराओं को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मुख्यमंत्री का पूरा ध्यान केवल बौद्ध केंद्रों पर टिका है। बिहार के मगध में यदि बौद्दों की ज्ञान सम्पदा का इतिहास रहा है तो मिथिला में नैय्यायिकों का। यदि बिहार सरकार राज्य के सॉफ़्ट पावर के बारे में गंभीर है तो उसे दोनों पर विचार करना होगा। इस कार्यक्रम की एक बड़ी सफलता तो यह रही कि इसने लोगों का ध्यान मिथिला की मुक्तिकामी ज्ञान परम्परा ओर आकर्षित किया।
कार्यक्रम का दूसरा बड़ा आकर्षण था, अनेक बुद्धिजवियों का गाँव में जमा होना और गम्भीर संवाद में संलग्न होना। शंकर के ग्रंथों का अनुशीलन, न्याय की परम्परा की समिचीनता और इन सबका लोक कल्याणकारी स्वरूप, इन सब पर ख़ूब चर्चा हुई। कई नये ग्रंथों का भी पता चला। मसलन, दरभंगा राज के पहले महाराजा महेश ठाकुर के द्वारा लिखा अकबरनामा। शायद अगली कुछ यात्राओं में और ग्रंथों की खोज कर पाएँगे और कुछ कहानियों को जमा करेंगे। हमने दरभंगा के कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को भी देखा। इसके पास मौलिक पांडुलिपियों का अंबार है। बहुत से पुराने तैल चित्र भी हैं। इनके रखरखाव पर और ध्यान देने की ज़रूरत है। इस संग्रहालय में एक नारी शरीर का एक ख़ूबसूरत नग्न तैलचित्र भी है। जिसके आधे हिस्से को कपड़े से ढक कर रखा गया था। यह केवल इस बात को दिखाता है कि हम पिछली पीढ़ी से आगे निकलने के बदले शायद पीछे चल पड़े हैं। पुस्तकालयों और संग्रहालयों में भी शायद सामान्य भावना से ऊपर उठ पाने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। सबसे हताश हुए हम मिथिला रीसर्च इन्स्टिटूट से। सौ एकड़ का कैंपस है और वह सबकुछ इसके पास है जो इसे अंतरराष्ट्रीय महत्व की संस्था बना सके, लेकिन बिहार सरकार इसकी देखरेख करने में सक्षम नहीं है। इसमें लगभग एक हज़ार पाली भाषा की पांडुलिपियाँ पड़ी हैं। इसके निदेशक कर्मठता से काम में जुटे हैं लेकिन जबतक राज्य या केंद्र सरकार इसका ठीक से देखभाल न करे, इसका कल्याण सम्भव नहीं है।
हमने इस पर भी विमर्श किया कि इस ज्ञान परम्परा के संवर्धन के लिय आगे क्या करना चाहिये। तय यह हुआ है कि इस गाँव के अनेक बुद्धिजीवी जो अब गाँव से बाहर रहते हैं उन्हें जोड़ा जाए। जिस भी क्षेत्र में उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया है उसके लिये न्याय दर्शन के उपादेयता पर चिन्तन करने की प्रक्रिया चलाई जानी चाहिए। उदाहरण के लिय कई जगहों पर न्याय का सम्बन्ध न्यूरोलोजी, मनोविज्ञान और आर्टीफिसीयल इंटेलीजेंस से जोड़ कर देखा जाना शुरू हुआ है। क़ानून के क्षेत्र में भी इसकी बेहद उपयोगिता हो सकती है।
एक कहानी के अनुसार जब याज्ञवल्क्य ने सामाजिक रतिरिवाजों और सम्पत्ति के उत्तरधिकार को संचालित करने के लिए संहिता लिखा तो इसे चिन्ता हुई कि आम लोग इसके सही अर्थ को समझ कैसे पाएँगे। उनके अनुरोध पर गौतम ने न्यायसूत्र लिखा। ज्ञातव्य है कि आज भी हिन्दुओं के उत्तराधिकार का क़ानून याज्ञवल्क्य संहिता के दायभाग और मिताक्षरा व्याख्या पर टिका है। लेकिन इसके अर्थ निष्पादन के लिय मैक्स्वेल के नियमों का सहारा लेना पड़ता है। कई वकीलों का मानना है कि यदि इसमें न्याय और मीमांसा का उपयोग किया जाए तो फ़ैसला बेहतर होगा। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश काटजू ने कई मुक़द्दमें में ऐसा कर लोगों को चौका दिया था।
इसलिए एक काम तो यह करना होगा कि इस ज्ञान परम्परा को संग्रहालय की चीज़ बनाने की जगह इसे जीवन्त बनाना पड़ेगा। सतत ज्ञान सृजन की धारा इतिहास में कहीं रुक गई है उसे फिर से प्रवाहित करने के लिय आधुनिक ज्ञान और वर्तमान समस्याओं से जोड़ कर देखना होगा। ज्ञान संवाद तीन स्तरों पर होना चाहिए। एक तो उस विधा के विशेषज्ञों के बीच ताकि उसके सूक्षमतम तत्त्वों को खोजा जा सके। दूसरा, अन्य विषयों के विशेषज्ञों के साथ ताकि ज्ञान को पूर्णता प्रदान किया जा सके और तीसरा, जनता के साथ। किसी ज्ञान का उपयोग यदि आम लोगों के लिय नहीं हो पाएगा तो उसका जीवन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता है। ज़रूरत है तीसरे तरह के संवाद की सम्भावना पर शोध करने की। हमने अपनी पहली यात्रा में ही यह पाया था कि न्याय दर्शन के विशेषज्ञों का इस समाज में एक काम तो विवादों को सुलझाना भी था। मेरे पास ऐसी कई कहानियाँ हैं जिससे यह पता चलता है कि नैय्यायिक लोगों के बीच झगड़े का फ़ैसला तो करते ही थे, ग्रंथों के समीचीन अर्थ लगा कर सामाजिक रतिरिवाजों में भी सुधार भी किया करते थे।इसी तरह व्यक्तिगत दुविधाओं से निकलने में भी लोगों की सहायता करते थे। एक मायने में वे मनोविश्लेषक की भूमिका भी निभाते थे।
हमारे लिए अब शोध के नए प्रश्न हैं और उम्मीद है कि इस समाज से सहयोग से हम उनके उत्तर भी खोजने में सक्षम होंगे। हमारी यात्रा विभिन्न रूपों में जारी रहेगी। हमें ऐसी ही यात्रा देश के अन्य हिस्सों में करनी है।
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