देश

जनतन्त्र का पर्व और जनतन्त्र का संकट

 

संसदीय चुनाव 2024 केवल केन्द्र की सत्ता का निर्णय नहीं करेगा बल्कि भारतीय जनतन्त्र का भविष्य भी निर्धारित करेंगे। अपनी कहूँ तो अपेक्षा है सत्ता में परिवर्तन की लेकिन आशंका है अनापेक्षित के घटित होने की। अभी पूर्वी उत्तर प्रदेश की यात्रा में इस बात का स्पष्ट अनुभव हुआ। जैसे पहले कहा जाता था कि बंगाल जो आज  सोचता है बाकि देश उसे कल सोचता है। वैसे ही अब यह स्थापित है कि केन्द्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। अफ़सोस की बात यह है कि उत्तर प्रदेश की जनता पर चाहे धार्मिक विश्वास के कारण हो या राशन के मुफ्त वितरण की कार्रवाई, इस समय किसी भी राजनीतिक दल, किसी भी सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे से ऊपर “मोदी” के लिए समर्थन की लहर है। यह समर्थन राममंदिर के निर्माण के कारण ही नहीं, ‘मुस्लिम आतंक’ से छुटकारा दिलाने के कारण भी है! जनमानस में साम्प्रदायिक विद्वेष इस तरह व्याप्त है कि कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं है। यह स्थिति अन्यत्र भी है। खुद मोदी के गुजरात में ‘हिन्दुत्व की प्रयोगशाला’ इतनी सफल हुई कि आज नमाजियों को पुलिस सड़क पर बूटों की ठोकर मारती है और विरोध की बात छोड़, जनता का मौन समर्थन मिलता है।

समाज का यह ध्रुवीकरण जनतन्त्र और स्वयं देश के भविष्य के लिए हितकर नहीं है। लेकिन वस्तुस्थिति यही है। सच पूछिए तो यथार्थ वही नहीं होता जो प्रत्यक्ष दिखता  है, यथार्थ वह भी होता है जो लोगों के मानस में विद्यमान होता है और चुनाव जैसी जनतान्त्रिक परिघटना के माध्यम से देश की शासन प्रणाली का निर्णय करता है। समस्या यह है कि 2002 के बाद गैर-भाजपा विपक्ष ने मोदी की निंदा में श्रम किया उतना शासन में रहने पर वैकल्पिक राजनीति के विकास में या विपक्ष में रहने पर वैकल्पिक संस्कृति के प्रोत्साहन में नहीं किया। यह बात सर्वविदित है कि विभाजनकारी एक राजनीति का विकल्प दूसरी विभाजनकारी राजनीति नहीं हो सकती। गुजरात में भीषण साम्प्रदायिक उत्पात के बाद वहाँ उपस्थित एकमात्र राजनीतिक विकल्प कॉंग्रेस ने मानो हथियार दाल दिये और विशाल हिन्दी प्रदेश में जाति आधारित राजनीति ने धर्मनिरपेक्ष राजनितिक विकल्पों को पंगु बना दिया। जिस वामपन्थ को वैकल्पिक नीतियों से एक राष्ट्रीय ‘नैरेटिव’ बनाना था, वे खुद अपनी मूल विचारधारा से दूर जाकर ‘सामाजिक न्याय’ के नामपर जाति की राजनीति के पीछे चलने लगे।

हम 2019 में देख चुके हैं कि लाखों लोगों की मौत और करोड़ों लोगों के दरबदर होने की पीड़ा भी बड़े साम्प्रदायिक ‘नैरेटिव’ और छोटे लाभों के चक्र में तिरोहित हो गयी और खुद प्रधानमन्त्री द्वारा गढ़े गये मुहावरे ‘मोदी के नमक’ पर लोग एकतरफा झुक गये। बेशक, यह परिस्थित उत्तर भारत में थी लेकिन संसदीय चुनाव में उत्तर भारत ही निर्णायक होता है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी चुनावी बिसात उत्तर भारत के लिए बिछायी है हालाँकि दक्षिण में पाँव फ़ैलाने की कोशिशें जारी हैं और इस बात को इसीसे लक्षित किया जा सकता है कि सत्तापक्ष बड़े सोचे-समझे ढंग से विपक्ष पर देश को उत्तर-दक्षिण में बाँटने का आरोप लगा रहा है। भारत से पहले जर्मनी में या इटली में इतिहास गवाह है कि निरंकुश सत्ता की और बढ़ते हुए शासक समूह अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिए वाही आरोप लगते हैं जिसका आचरण खुद करते हैं। यह दो ज़बानों में में बोलना पूँजीवादी राजनीति का गुण है। विपक्ष पर उत्तर-दक्षिण विभाजन के आरोप का सारतत्त्व यह है कि भाजपा, संघ और मोदी देश की एकता चाहते हैं, विपक्ष इस एकता को तोडना चाहता है। इस तरह, यह उनके ‘राष्ट्रीय’ परिप्रेक्ष्य का द्योतक है। समस्या यह है कि कोई भी राष्ट्रीय स्तर का वृत्तान्त वामपक्ष खड़ा कर सकता है लेकिन उसका सरोकार पहले बंगाल पर केन्द्रित था, अब केरल तक केन्द्रित है। यही स्थिति रही तो जिस दिन केरल से वामपन्थ हटेगा उस दिन क्या होगा?

इसे केवल कल्पना नहीं माना जा सकता। मुख्य विपक्षी दल कॉंग्रेस को पिछले चुनाव में केरल से बड़ी जित मिली थी। इस बार मोदी को हटाने के लिए विपक्ष ने ‘इंडिया’ गठबंधन बनाया लेकिन उसके दो सशक्त हिस्सेदार माकपा और कॉंग्रेस केरल में आपस में लड़ेंगे। मोदी को हटाने के मोर्चे की अवधारणा में ही दोष है। एक तो यह परिप्रेक्ष्य इस बात को मानकर चलता है कि मोदी प्रतिस्पर्धा से ऊपर हैं, उनकी छवि काफी विराट है। यह बात नहीं कि विराट छवि का मुकाबला कि उन्हें सत्ता से अपदस्थ किया जा सकता है। लेकिन एक तो ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के बिखरे हुए तंतुओं को जोड़कर जयप्रकाश  नारायण ने एक मंच—यिक पार्टी—में संगठित किया, दूसरे उन दलों के अन्तर्विरोध सत्ता में आने के बाद उभरना शुरू हुए। अज स्थिति यह है कि ‘इंडिया’ के बनने की प्रक्रिया में ही असंख्य बाधाएँ आयीं, बनने के बाद भी विभिन्न दलों में समझ और सामंजस्य की कमी दिखाई देती है। जिसे देखो, वही प्रधानमन्त्री बनने को आतुर है। नतीजा, एक तरफ सोची-समझी रणनीति के साथ निर्मित मोदी की ‘अवतारी छवि’ दूसरी तरफ क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं में विभाजित  क्षेत्रीय विपक्ष—यह आरम्भ से ही एक बेमेल लड़ाई है।

मोदी ‘कल्कि’ अवतार हैं, उन्होंने मुस्लिम अत्याचार से समाज को राहत दिलायी है, आपदा के समय उन्होंने अस्सी करोड़ लोगों को खाना-पीना सुलभ किया था, फिर उन सबको ‘खैरात’ के अपमान से ग्रस्त न करके ‘लाभार्थी’ की सम्मानजनक उपाधि देकर अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से परस्पर जोड़ा। दान और लाभ में केवल पदावली का अन्तर नहीं है। दान भीख का परिष्कृत रूप है, लाभ अधिकार की प्राप्ति है। यह सब करके अब इन सबका लाभ स्वयं लेने का अवसर आया है। यह सोचने को लोग तैयार नहीं हैं कि उन्हें कुछ सौ का ‘लाभ’ पहुँचाकर केन्द्र की मोदी सरकार अपने चहेते कोर्पोरेट को अरबों-खरबों का लाभ पहुँचा रही है, उनके कर्जे माफ़ करके सारा बोझ जनता पर डाल रही है, एक-से-एक बेईमान व्यापारियों को चोर दरवाज़े से विदेश निकल भागने में सहायता करती रही है। आश्चर्य की बात यह है कि जनमत बनाने वाले लोगों को इन बातों से कोई खास मतलब नहीं है। इसीलिए यह चुनाव मुद्दों पर आधारित नहीं है, किसी वृत्तान्त (नैरेटिव) पर भी आधारित नहीं है; जो है वह एक ओर विराट छवि वाले नायक और दूसरी ओर सत्ता-लोलुपता का उदहारण पेश करते बिखरे हुए विपक्ष के बीच असन्तुलित शक्ति परिक्षण है। हैरानी की बात यह है कि इसपर भी सत्तापक्ष को भरोसा नहीं है—या कहिये सन्तोष नहीं है; वह साम-दाम-दंड-भेद से इस बिखरे हुए विपक्ष को भी नेस्तनाबूद करने पर लगा है। झारखंड के मुख्यमन्त्री के बाद दिल्ली के मुल्ख्यमन्त्री को पद पर रहते गिरफ्तार करके उसने यह संकेत दे दिया है कि मत-वैभिन्य और असहमति के लोकतन्त्र में उसका विश्वास नहीं है। इसलिए आगामी चुनाव भारत में जनतन्त्र के भविष्य के लिए निर्णायक होने जा रहा है। अगर जनतन्त्र पर संकट आया तो एक तरफ मोदी सरकार की कोर्पोरेट-परस्त, साम्राज्य परस्त नीतियाँ ज़िम्मेदार होंगी, दूसरी तरफ इन नीतियों का विकल्प निर्मित न करने वाले, क्षुद्र राजनीतिक जोड़-तोड़ से सत्ता पाने का सपना पालने वाले विपक्ष की भी उतनी ही ज़िम्मेदारी होगी। अन्त में यह कह देना आवश्यक है कि छवि का जो चुनाव उपस्थित है, उसमें मोदी की ‘विराट’ छवि भी जनतन्त्र के लिए घातक है क्योंकि छवियों के मायाजाल में समस्याएँ, मुद्दे और आवश्यकताएँ ओझल हो जाती हैं। तानाशाहों ने अन्यत्र भी यही नुस्खा आज़माया है।

 

Show More

अजय तिवारी

लेखक हिन्दी के प्रसिद्द आलोचक हैं। सम्पर्क +919717170693, tiwari.ajay.du@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x