पर्यावरण

पर्यावरण हलचल : समुदाय के बिना नही बुझाई जा सकती हिमालय की यह आग

 

एमआई 17 हेलीकॉप्टरों की मदद से उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग बुझाई जा रही है। जंगलों में आग मुख्यतः जमीन पर गिरी सूखी घास-पत्तियों से फ़ैलती है। उत्तराखण्ड के पहाड़ों में चीड़ के पेड़ों की अधिकता यहाँ के पहाड़ों में आग फैलने का मुख्य कारण है। चीड़ की पत्तियां जिन्हें पिरूल भी कहा जाता है अपनी अधिक ज्वलनशीलता की वजह से हिमालय की बहुमूल्य वन सम्पदा खत्म कर रही हैं।

यूकेफॉरेस्ट वेबसाइट के अनुसार वर्ष 2021 में अब तक जंगल में आग लगने की 1635 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। जिस वजह से 4 लोगों की मौत के साथ ही 17 जानवरों की मौत भी हुई है। जंगल में आग लगने की वजह से 6158047.5 रुपए की वन सम्पदा जल कर ख़ाक हो गयी।

https://forest.uk.gov.in/contents/view/6/53/75-forest-fire-info
इसी वेबसाइट पर आप जंगल में आग से प्रभावित स्थानों की लाइव जानकारी भी ले सकते हैं।

3 मई 2016 में टाइम्स ऑफ इंडिया में विनीत उपाध्याय की छपी एक रिपोर्ट के अनुसार जंगल की आग से निकला स्मॉग और राख ‘ब्लैक कार्बन’ बना रहा है जो ग्लेशियरों को कवर कर रहा है, जिससे उन्हें पिघलने का खतरा है। गंगोत्री, मिलम, सुंदरडुंगा, नयाला और चेपा जैसे अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियर सबसे अधिक खतरे में हैं और यही ग्लेशियर बहुत सी नदियों के स्रोत भी हैं। इस आग की वज़ह से पहले ही उत्तर भारत के तापमान में 0.2 डिग्री सेल्सियस की छलांग से मानसून पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है।Environment Day Special: वनाग्नि के लिए ज़िम्मेदार नहीं चीड़... बांज के जंगलों की आग होती है ज़्यादा ख़तरनाक - Environment Day Special: Pine isnt responsible for forest fire... fire of ...

चीड़ के पेड़ हिमालय में आग फ़ैलाने के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी तो हैं पर उन्हें काट देना ही आग रोकने का समाधान नही है। चीड़ के बहुत से फायदे भी हैं उसे कई रोगों के इलाज में उपयोगी पाया गया है जैसे इसकी लकड़ियां, छाल आदि मुंह और कान के रोगों को ठीक करने के अलावा अन्य कई समस्याओं में भी उपयोगी हैं। चीड़ की पत्तियों से कोयला बना और बिजली उत्पादन कर आजीविका भी चलाई जा सकती है।

ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) के जैवविविधता विशेषज्ञ डॉ.योगेश गोखले चीड़ के जंगलों में हर वर्ष लगने वाली आग की समस्या पर कहते हैं कि पिरूल के बढ़ने से आग लगने का ख़तरा भी बढ़ जाता है। नमी की वज़ह से आग को फैलने से रोका जा सकता है। जलती बीड़ी जंगलों में फेंक देना भी जंगल की आग के लिए उत्तरदायी है।

चीड़ के जंगल से पर्यावरण को पहुँच रहे नुकसान पर डॉ गोखले कहते हैं अक्सर यह माना जाता है कि जहाँ चीड़ होगा वहाँ पानी सूख जाता है और देवदार के पेड़ों वाली जगह पानी के स्रोत मिलते हैं। चीड़ की वजह से जंगल में आग लगने से कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ जाती है।

आग लगने की वजह से पर्यावरण को जो नुकसान पहुँच रहा है उसे बचाने के लिए डॉ गोखले पिरूल के अधिक से अधिक इस्तेमाल को बढ़ावा देना चाहते हैं क्योंकि पिरूल हटने से बाकि वनस्पतियों का विकास होगा और मिश्रित जंगल बनने की वज़ह से भविष्य में आग लगने की घटनाओं में भी कमी आएगी। पालतू जानवरों के लिए चारा उपलब्ध होगा तो ग्रामीण इसके लिए पिरूल के जंगलों में आग भी नही लगाएंगे।

आईएफएस एडिशनल प्रिंसिपल, चीफ़ कनसर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट उत्तराखण्ड डॉ. एस डी सिंह से जब यह पूछा गया कि चीड़ के जंगलों में आग न लगे सरकार इसके लिए क्या कदम उठा रही है तो उन्होंने बताया कि इसके लिए हर वर्ष कार्य योजना बनाई जाती है। फ़रवरी और मार्च में ही तय कर लिया जाता है कि कहाँ पर फ़ायर क्रू स्टेशन बनाए जाने हैं और साथ में ही संचार साधन भी दुरस्त कर लिए जाते हैं।

यह भी पढ़ें – धधक रहे हैं उत्तराखण्ड के जंगल

जंगल मे फ़ायर लाइन बनाते रहते हैं और झाड़ी नही होने देते। किसानों को भी साथ लेकर पत्तियां इकट्ठा की जाती हैं और खेतों के किनारे सफ़ाई की जाती है ताकि आग खेतों तक न फैले। पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी आग की घटनाओं को नैनीताल हाईकोर्ट ने गंभीरता से लिया है। कोर्ट ने इसके स्थाई समाधान के लिए जंगलों में पहले से चाल व खाल बनाने के निर्देश दिए हैं।

उत्तराखण्ड में पारंपरिक रूप से पानी रोकने के लिए बनाए जाने वाले तालाबों को चाल व खाल कहते हैं, इनकी वज़ह से जमीन में नमी बनी रहती है और आग कम फ़ैलती है। भारत में औपनिवेशिक काल से पहले लोग वनों का उपभोग भी करते थे और रक्षा भी। अंग्रेज़ों ने आते ही वनों की कीमत को समझा, जनता के वन पर अधिकारों में कटौती की और वनों का दोहन शुरू किया।

जनता के अधिकारों में कटौती की व्यापक प्रतिक्रिया हुई और समस्त कुमाऊँ में व्यापक स्तर पर आन्दोलन शुरू हो गये। शासन ने दमन नीति अपनाते हुए प्रारम्भ में कड़े कानून लागू किए, परन्तु लोगों ने इन कानूनों की अवहेलना करते हुए यहाँ के जंगलों को आग के हवाले करना आरम्भ किया। फलस्वरूप शासन ने समझौता करते हुए एक समिति का गठन किया।

1921 में गठित कुमाऊँ फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी का अध्यक्ष तत्कालीन आयुक्त पी.विंढम को चुना गया तथा इसमें तीन अन्य सदस्यों को शामिल किया गया। समिति ने एक वर्ष तक पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण किया। समिति द्वारा यह सुझाया गया कि ग्रामीणों की निजी नाप भूमि से लगी हुई समस्त सरकारी भूमि को वन विभाग के नियंत्रण से हटा लिया जाए।

यह भी पढ़ें – वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत 

स्वतन्त्र भारत में वनों को लेकर बहुत से नये-नये नियम कानून बनाए गये। वर्तमान समय में उत्तराखण्ड की वन पंचायत जो पंचायती वनों का संरक्षण और संवर्धन खुद करती है उन्हें अधिक शक्ति दिए जाने की आवश्यकता है। डाउन टू अर्थ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में आदिवासी बहुल क्षेत्र सबसे कम कार्बन उत्सर्जित करते हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि समुदाय के पास जंगल का नियंत्रण रहने से वहाँ आग भी कम लगती है क्योंकि वह ही जंगल की रक्षा भी करते हैं।

जंगल में लग रही इस आग के समाधान पर वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरणविद राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं कि उत्तराखण्ड के गांवों की चार किलोमीटर परिधि में जंगलों से सरकारी कब्ज़ा हटा कर उन्हें ग्राम समुदाय के सुपुर्द किया जाना चाहिए। मई-जून की गर्मियों में उत्तराखण्ड के जंगलों में आग सबसे ज्यादा फैलेगी और हेलीकॉप्टर से पानी गिरा आग बुझाना इस समस्या का स्थाई समाधान नही है। न ही चीड़ के पेड़ों को काट-काट कर हम अपने कृत्यों से लगी इस आग को रोक सकते हैं। समुदाय ने मिल कर ही मानव जाति का निर्माण किया है और वह ही इसे और अपने पर्यावरण को बचा भी सकता है।

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नुपुर कुलश्रेष्ठ

लेखिका स्वतन्त्र पत्रकार एवं ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में ब्रॉडकास्टर हैं। सम्पर्क nupurkulshrestha88@gmail.com
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