पर्यावरण

नदी के पुनर्जीवन से जिन्दगी हुई आसान

 

छतरपुर जिले से करीब 65 किलोमीटर दूर राजनगर तहसील का ढाई सौ आबादी वाला एक छोटा सा गाँव मऊ मसानिया में प्रवेश करते ही शहनाई की मीठी तान कानों में घुलने लगी। एक अजीब सा सुकून महसूस हुआ। आई तो थी यहाँ ग्रागीणों के प्रयास से किए गये पुनर्जीवित खडूर नदी देखने  लेकिन यहाँ की प्राकृतिक छटा देखकर लगा थोड़ी देर यहीं ठहर लिया जाए। खडूर नदी के किनारे चारों ओर मिट्टी के दीए जल रहे थे, महिलाएँ गीत गा रही थीं और शहनाई की गूंज कानों से होते हुए भीतर तक उतर रही थी। आपाधापी के बीच सब कुछ शान्त था।

आखिर पूछ ही लिया कि इतने घरों से शहनाई की धुन? कोई खास बात ? 28 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता अजय ने बताया कि गाँव में 11 शादियाँ हैं। उसने बताया कभी एक साथ इतनी बड़ी संख्या में शादियाँ इस गाँव ने नहीं देखी थीं। अजय ने कहा इस नदी के पुर्नजीवन से पहले यह क्या इसके आस पास के कई गाँव सूखे से प्रभावित था। रोजगार के लिए ग्रामीण पलायन पर जाते थे, उनके साथ बच्चे भी दिल्ली, जम्मू सहित कई बड़े शहरों में मजदूरी करने चले जाते थे। पूरे गाँव में केवल बुजुर्ग ही दिखाई देते थे। यहाँ तक कि लड़कों की शादी भी नहीं होती थी। अजय ने कहा हमारी भी 27 की उम्र में शादी हुई, जबकि अमूमन गाँव में 20 के बाद ही लड़कों की शादी हो जाती है। रोजगार नहीं था, इसलिए कोई लड़की देने को तैयार नहीं था। जबकि हमारे पास 11 हेक्टेयर जमीन है। परन्तु सिंचाई के अभाव में उस जमीन पर कुछ भी उगा नहीं पा रहे थे।

यह सिलसिला लम्बे समय से चल रहा था। बड़े शहरों में कभी काम मिल जाता था, कभी नहीं भी मिलता था। कभी सिक्युरिटी गार्ड का काम किया। कभी कपड़े की दुकान में। जब जो काम मिल जाए, वहीं करना पड़ता था। शहरों में पन्नियाँ जोड़कर झुग्गी बनाकर रहते थे। कभी स्थानीय सरकार की नजर पड़ जाए तो वे झुग्गी भी तोड़ देते थे। बहुत ही नारकीय जीवन जीते थे।

इस बीच एक सामाजिक संस्था के कुछ पदाधिकारी गाँव आये। वे पर्यावरण और नदियों को पुनर्जीवित करने का काम करते हैं। उनसे मेरा सामना हुआ। उनके कहने पर मैंने गाँव के नौजवानों को इकट्ठा किया और खडूर नदी को पुनर्जीवित करने के काम में जुट गये। परमार्थ समाज सेवी संस्था ने तकनीक के साथ-साथ आर्थिक सहायता भी मुहैया करवायी।खूडर नदी

दरअसल खूडर नदी बुन्देलखण्ड की एक छोटी नदी है जो मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के राजनगर तहसील के 55 गाँवों से होकर गुजरती है। यह नदी हतना,सतना और कुटिया गाँव से उद्गमित है। खूडर नदी राजनगर तहसील के बेनीगंज, बमनौरा, मऊ मसानिया, धवाड के मध्य से होते हुए 44.14 किलोमीटर का सफर तय करती है। और अन्त में नदी धौगुवां गाँव में स्थित रेन फॉल के पास केन नदी में मिल जाती है।

खूडर नदी के उद्गम स्थल के आसपास के क्षेत्र में प्राकृतिक सौन्दर्य भी भरपूर है, जो पर्यटन के लिए भी आकर्षक है और यहाँ बड़ी संख्या में पर्यटक नदी के पास शान्ति पाने की उम्मीद से आते रहे हैं।

परमार्थ समाज सेवी संस्थान के डॉ. संजय सिंह बताते हैं कि इस नदी की स्थिति कुछ साल पहले तक ऐसी थी कि नदी में 2 महीने ही पानी रहता था। नदी का ज्यादातर पानी बहकर निकल जाता था। स्थानीय किसानों का कहना है कि रबी की फसल में एक पानी लगाने के बाद नदी का ज्यादातर पानी खत्म हो जाता था। नदी में पत्थरों के सिवाय कुछ नहीं बचता था। यह बच्चों के लिए खेलने की जगह के अलावा कुछ नहीं था। नदी के आस-पास 200 से 250 हेक्टेयर में खेती नहीं हो पाती थी। गाँव के सभी कुएँ सूख जाते थे जिसकी वजह से गाँव में जल संकट बना रहता था।

खूडर नदी के मृतप्राय होने का मुख्य कारण नदी में पानी का नियमित रूप से ठहराव न होना पाया गया था। यह नदी का क्षेत्र ढलान क्षेत्र था, जिसके कारण नदी का पानी बहकर निकल जाता था। इस समस्या का समाधान करने के लिए, बेनीसागर डैम एवं रनगुवां डैम से होने वाली एक नहर गाँव के पास से होकर गुजरती थी। यह नहर नदी में मिल जाती थी, जिससे नदी में पानी की पर्याप्त मात्रा बनी रहती थी। ग्रामीणों को इस पानी को रोक कर रखने की विधि बतानी थी, जिससे वे नदी के पानी को गाँव में रोक सकें। दरअसल एक नाला गाँव के बाहर से गुजरता था, जिसकी वजह से ज्यादातर पानी बह जाता था। इसके अलावा, क्लाइमेटिक तथा वातावरणीय परिवर्तन भी नदी के लिए संकट बनकर आया। किसी भी नदी के लिए मौसम का अनुकूल होना अति आवश्यक है। इसका प्रभाव नदी के पानी की मात्रा पर होता है, जिससे नदी का उपयोगकर्ताओं के लिए उपयुक्त होने लगता है।

गौरतलब है कि नदी के पुनर्जीवन के लिए बुन्देलखण्ड में जल संरक्षण,संवर्धन एवं प्रबन्धन के लिए कार्य कर रही संस्था परमार्थ समाज सेवी संस्थान का अतुलनीय योगदान है। खूडर नदी के जीर्णोद्धार के लिए परमार्थ संस्था ने बीड़ा ठाया और ग्राम पंचायतों के साथ बैठकें की। इसके बाद खूडर नदी जीर्णोंद्धार के लिए ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर कार्ययोजना तैयार की। लेकिन संस्था के प्रयासों के बावजूद नदी को बचाने के लिए पंचायत स्तर पर कोई काम नहीं हुआ। तब संस्था ने समुदाय के साथ मिलकर नदी के पानी को रोकने के लिए प्रयास शुरू किये। संस्था ने समुदाय को विश्वास में लेकर 3 फीट चैड़ाई एवं 8 फीट ऊँचाई के 12 स्टापगेट बनवाये। इसमें गाँव के जल योद्धाओं ने श्रमदान किया। हालाँकि गेटों के छोटे होने के कारण पानी तो ठहरने लगा लेकिन ज्यादा पानी होने की वजह से कुछ समय बाद पानी गेट के ऊपर से पुनः बहने लगा। इससे समस्या का समाधान तो हुआ लेकिन इसके साथ ही एक नयी समस्या ने जन्म ले लिया। कुछ दिनों बाद ही संस्था ने गेट के ऊपर एक-एक फुट के एक और गेट लगवाये, जिससे अब वर्ष पर्यन्त पानी का ठहराव होने लगा।

इतनी कामयाबी के बाद पंचायत स्तर पर ग्राम पंचायत की ओर से नदी में घाट का निर्माण करवाया गया। घाट में गाँव की महिलाएँ कपडे धुलने एवं जानवर पानी पीने आते हैं। स्थानीय समुदाय घाट में स्नान करने आते हैं। इस तरह परमार्थ संस्था ने तकनीक के उपयोग एवं गेटों के जरिए नदी को पुनर्जीवित करने में आखिरकार सफलता हासिल की। अब नदी में पानी होने से गाँव के किसान तीनों फसलें (रबी, खरीफ एवं जायद) लेने लगे हैं। गाँव के किसान दीपक सिंह बताते हैं कि गाँव में नदी के किनारे अब कई किसान जायद की बुवाई कर लाखों का मुनाफा कमा रहे हैं। खेती में 400 एकड़ तक का रकबा बढ़ा है। पहले गाँव की आधी फसल सूखी बंजर रहती थी लेकिन अब 4-4 पानी मिलने से खेती में दोगुना फायदा हुआ है। जमीन की उर्वर क्षमता में भी वृद्धि हुई है। नदी के आस पास के गाँवों के लोगों का पलायन रुक गया है तथा उनके आजीविका और जीवन स्तर में सुधार आया है।

नदी के साथ-साथ, पर्यावरण संरक्षण का ध्यान भी रखा जाने लगा, ताकि नदी की स्थिति और प्रदूषण न केवल सुधारा जाए, बल्कि इसके संरक्षण और विकास को सुनिश्चित किया जा सके। आज गाँव की सूरत बदल चुकी है। मिश्रित आबादी वाले इस गाँव के सभी बच्चे सरकारी या फिर निजी स्कूलों में पढ़ने जा रहे हैं। विशेष कर अनुसूचित और आदिवासी घरों के बच्चे। उनके आँखों में बड़े बड़े सपने हैं। कुछ परिवार तो अपने बच्चों को शहरों के बड़े स्कूलों में भेजने लगे हैं। अब ग्रामीण साल में तीन फसल लेने लगे हैं। अजय ने बताया कि रबी में गेहूँ, चना व सरसों और खरीफ में उरद, तीली, मूंग की खेती करते हैं। अब बहुत कमाई हो रही है। गाँव का दीपक बताता है कि पहले साहूकारों से 2 या 4 रुपए प्रति सैंकड़ा उधार लेना पड़ता था। जो कभी चुकता ही नहीं था और हम ब्याज पर ब्याज दिए जाते थे। अब उधार भी नहीं लेना पड़ता है।

बहरहाल एक नदी के पुनर्जीवन से अगर गाँव में इतनी खुशहाली आ सकती है कि उनका जीवन ही बदल कर रख दे तो फिर सरकार नदी को पुनर्जीवित करने का बीड़ा क्यों नहीं उठाती। हर घर में नल से जल तभी सम्भव होगा, जब छोटी नदियों को पुनर्जीवित किया जाए। इसके लिए समुदाय को साथ लेकर काम करने जरूरत हैं, क्योंकि जो देशज ज्ञान उनके पास है, वह शायद बड़े -बड़े वैज्ञानिकों के पास नहीं है

.

Show More

रूबी सरकार

लेखिका भोपाल स्थित पत्रकार हैं। विकास और ग्राम्य मामलों की रिपोर्टिंग में उन्हें कई सम्मान मिल चुके हैं। सम्पर्क +919630875936, ruby.journalist@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x