{Featured in IMDb Critics Reviews}
भूतिया फिल्मों या भुतहा जगहों पर जाने से डर लगना चाहिए कि नहीं मित्रों? भूतिया फिल्मों में भूत डराने वाले होने चाहिए कि नहीं मित्रों? ऐसे ही भूतिया जगहों पर भी जाने में डर लगना चाहिए कि नहीं मित्रों? अगर आपका जवाब हां में है तो इस डि-बुक को मत पढ़िएगा। ओह सॉरी! मत देखिएगा।
हिंदी सिनेमा में अब तक देखा जाए तो दो-चार फिल्में ही ऐसी आईं है जिन्हें देखते हुए हमें डर लगा हो। कुछ समय पहले आई तुम्बाड़ को ही फिर से देख लेना इसे देखने से बेहतर। खास करके हॉरर जॉनर पसन्द करने वाले लोगों को यह निराश करती है। यह ‘डि-बुक’ साल 2017 में आई एक मलयालम फिल्म ‘एजरा’ का रीमेक है।
एक तो यह समझ नहीं आता इन भूतिया फिल्मों में प्रेम कहानियां हर बार जरूरी होती हैं क्या सुनानी? और चलो सुना भी तो जब हीरो, हिरोइनी को मालूम है कि वह जगह जहां वे रह रहे हैं वो हॉनटेड है तो भी वहां जबर्दस्ती रहते हैं? जबर्दस्ती उन चीजों को छेड़ते-खोलते, देखते, उलटते-पलटते हैं जहां से कोई भी किसी भी तरह का बस भूत हो निकल कर सामने आ जाए। और हम उसके साथ कबड्डी या जूडो-कराते करने लगें।
इस फ़िल्म के साथ भी यही हुआ है। हालांकि कहानी अच्छी लिखी गई है लेकिन बस उसमें भूतिया मसालों की कमी शिद्दत से महसूस होती है और यही कमी बार-बार अखरती भी है। एक-दो सीन छोड़ दें तो कहीं भी ऐसा नहीं होता कि आप अपने हाथों को एकदम से डरके मारे खुल जाने वाले मुंह पर रख सकें।
16वीं सदी में कुछ ज्यूरिश लोग एक अनुष्ठान करते थे। जिसमें वे उन अतृप्त आत्माओं को एक बॉक्स में कैद कर देते थे जिसे डिबुक कहा जाता था। मॉरीशस के एक बड़े व्यापारी का यहूदी लड़का इब्राहिम इजरा और ईसाई लड़की नोराह को आपस में प्यार में हुआ। लेकिन उनका बाप याकूब जो मॉरीशस के यहूदियों की पहली पीढ़ी में से था जो दूसरे विश्वयुद्ध के समय फ्रांस से शह लेने आया था। बाद में अपना कारोबार फैलाया और वहीं उसने तांत्रिक विद्या में भी महारत हासिल की। बेटे के मरने पर उसने उस डिबुक को बनाया जिसमें कई सारी बातें लिखी हुई हैं। इस बुक में लिखा है कि आखरी यहूदी के मरने पर यह डिबुक ऐसे उस शरीर को काबू कर लेगी जो पूरी दुनिया को तबाह, बर्बाद करने में काबिल होगी।
अब यह डिबुक में बन्द आत्मा किस तरह के आदमी के शरीर में अपना निवास करेगी? क्या यह दुनिया तबाह, बर्बाद हो जाएगी? बस ऐसे ही कुछ सवाल आप अमेजन प्राइम भईया की अनुमति लेकर ओह सॉरी! मेम्बरशिप लेकर जान सकेंगे।
इस फ़िल्म में स्टार कास्ट की भरमार भी नजर आती है लेकिन एक्टिंग में इमरान हाशमी, मानव कौल, डेंजिल स्मिथ, अनिल जॉर्ज का अभिनय ही कुछ अच्छा लगता है। वहीं निकिता दत्ता कुछ खास प्रभावित नहीं कर पाती। काश कि वे थोड़ी खूबसूरत हीरोइन के रूप में ही दिख जातीं। सहायक भूमिकाओं में आने वाले अपना काम तसल्ली से करते जाते हैं बस इस बात का सुकून है। डायरेक्शन ठीक, एडिटिंग चुस्त, बैकग्राउंड दुरुस्त, म्यूजिक बढ़िया, सिनेमेटोग्राफी अच्छी, लोकेशन्स, फ़िल्म का लुक, फ़िल्म में कलरिंग का इस्तेमाल भी सही रहा।
ऐसी फिल्मों की कहानियां पढ़ने में ज्यादा अच्छी लगती। लेकिन जब उन्हें स्क्रिप्ट के रूप में ढाल कर फिल्माया जाता है तो उसमें उन कहानियों के मुताबिक जरूरी मसाले खास करके डर पैदा करने वाले होने चाहिए। यह फ़िल्म रोमांच का अनुभव तो कराती है लेकिन भय उस स्तर का पैदा नहीं कर पाती जिसे देखते हुए आप के भीतर एक ख़ौफ़ तारी हो जाए।
अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार/ ढाई स्टार
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com

Related articles

फिल्मी संवादों सी ‘जिंदगी यू टर्न’ सी
तेजस पूनियांDec 09, 2022
दुख भरे राग सुनाता ‘रेडुआ’ सुनो
तेजस पूनियांDec 07, 2022
गहरे अवसाद में ले जाती ‘मट्टो की साइकिल’
तेजस पूनियांSep 22, 2022
जाटों की अस्मिता का ‘चीर हरण’
तेजस पूनियांSep 20, 2022डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
