
लुभावै, सुहावै, उम्मीद जगावै ‘सरपंच’ री राजनीति
राजस्थान के जोधपुर का एक गाँव हिंगोलपुर। युवाओं में नशे की बढ़ती समस्याओं से परेशान गाँव के अधेड़ उम्र के लोग और उनके माँ-बाप। नशे पर होने लगी गाँव में राजनीति। एक पक्ष उन्हें नशे में लिप्त रखना चाहता है तो दूसरा उससे गाँव को मुक्ति दिलाना चाहता है। जीतेगा कौन? जाहिर है जो नशे से बचाएगा! या जो गाँव में विकास और युवाओं में रोजगार की आस बढ़ाएगा!
लेकिन नशे और सरपंच के चुनावों की राजनीति में उलझी इस कहानी के किरदार किस तरह निपटते हैं? वह तो आपको स्टेज एप्प पर राजस्थानी भाषा के कॉलम में नजर आएगी। पहले एपिसोड के साथ धीमी रफ़्तार से शुरू हुई इस कहानी के आगे के एपिसोड जब आप देखने लगते हैं तो कहानी आपको अपने साथ बहाती हुई ले चलती है। आप भी कहानी के साथ कदम बढ़ाते हुए जब चलने लगते हैं तो आपको भी यह जानने की इच्छा जागृत होती जाती है कि क्या नशे से मुक्त होगा यह गाँव? क्या राजनीति के फेर में होगा कुछ कठपुतली का खेल? क्या नारी शक्ति का सहारा लिया जाएगा? या जनता जनार्दन खुद ही निपटेगी इस राजनीति से?
नशे की राजनीति और राजनीति में नशा ये सब, अब तक हिंदी सिनेमा में गाहे-बगाहे आप और हम देखते आये हैं। अब वही सब राजस्थानी भाषा में कुछ अप्रत्याशित तरीके से पहली बार नजर आये तो उसके सहारे उम्मीद तो जगती ही है, एक अलग सिनेमा के तौर पर राजस्थानी भाषा में। साथ ही यह धीरे-धीरे लुभाती, सुहाती भी जाती है तो अपनी कहानी और उसके कहन के तरीके से। ऐसी कहानियां चाहे स्टेज एप्प लेकर आये या कोई दूसरा उद्धार तो राजस्थानी सिनेमा का ही होना है।
स्टेज एप्प निर्मित और ‘पंकज सिंह तवंर’ निर्देशित तथा ‘हैदर अली’ व स्वयं निर्देशक लिखित इस सीरीज को देखते हुए यह तो अहसास होता है कि अब राजस्थानी सिनेमा अपने राह को तलाश चुका है। इसी तरह की अलग अंदाज में कहानियां आती रहीं तो राजस्थानी सिनेमा का उद्धार एक दिन हो ही जाएगा। राजस्थानी भाषा में बनी इस सीरीज के संवादों को जिस तरह ‘नेमीचंद’ ने बदला है वह काबिले तारीफ़ है। बतौर ‘ओम सिंह’ के किरदार में भी ‘नेमीचंद’ ने सबसे ज्यादा निखरा हुआ काम किया है। कुछ समय पहले कुछ एक फिल्म फेस्टिवल्स में दिखाई गई ‘तनुज व्यास’ निर्देशित राजस्थानी फिल्म ‘नमक’ में अपने किरदार से जो उम्मीदें उन्होंने दिखाई थीं उसका भी भरपूर फायदा उन्होंने इस सीरीज में उठाया है।
‘सरपंच’ कलाकारों की टीम में ‘शैलेन्द्र व्यास’, ‘योगेश परिहार’, ‘अविनाश कुमार’, ‘जितेन्द्र सिंह राजपुरोहित’, ‘अनिल दाधीच’, ‘भरत वैष्णव’, ‘अर्पिता सिंह’ अपने पूरे दमखम के साथ नजर आये। इनके इतर कहीं कुछ साथी किरदारों का हल्का अभिनय सीरीज को कमजोर तो करता है लेकिन इतना नहीं। कायदे से जब कहानी और उसी के अनुरूप स्क्रिप्ट को लेखक, निर्देशक लगभग पकड़े रखे तो आधा काम तो वहीं पूरा हो जाता है।
किसी बड़े ओ.टी.टी प्लेटफॉर्म सरीखा बैकग्राउंड जब कोई क्षेत्रीय सिनेमा (वो भी जो अब तक सूखा, बंजर, पिछड़ा सा हो क्षेत्र विशेष में) देने लगे तो भी उम्मीदें जगती हैं। लिरिक्स के मामले में ‘राजनीति’ थीम सोंग दरअसल वह काम कर जाता है कि बहुत सी बातें इसमें भी छुपने लगती हैं। मेकअप, बैकग्राउंड स्कोर से लुभावनी, कॉस्टयूम से सुहावनी बन पड़ी इस सीरीज को पर्दे पर उतारते समय एडिटर द्वारा कैंची जरा तेज धार से इस्तेमाल लाई जाती और डी.ओ.पी करते समय उस कैंची के सहारे कैमरा का इस्तेमाल जिन खूबसूरत जगहों को दिखाता है उन्हें शेष हल्की-फुल्की जगह भी उसी तरह से बरकरार रखा जाता तो यह सीरीज पूरे नम्बर और बहुमत से पास हो पाती। साथ ही एक जगह पोस्टर में ‘पुलिस थाना’ को मराठी भाषा की तरह ‘पोलिस थाना’ लिखे हुए नजर आना अखरता है। जब आपके पास पूरे क्षेत्रीय सिनेमा की टीम खड़ी है तो ऐसे में ऐसी छोटी सी कमी भी आंख में रड़क सी पैदा करती है कुछ समय के लिए।
स्टेज एप्प पर आई इस सीरीज को देखते हुए इसके दूसरे सीजन में इसे बहुमत मिलने के आसार मजबूती से नजर आते हैं। यह सीरीज केवल नशे और राजनीति को लेकर ही नहीं चलती बल्कि साथ ही इसमें और कई कहानियां भी हल्के-हल्के रूप से नजर आती हैं जिससे यह राजस्थान के केवल जोधपुर या गाँव विशेष की न होकर पूरे राजस्थान की लगने लगती है।
विशेष नोट – राजस्थानी सिनेमा पर लम्बे समय से लगातार लिखते समय एक बार किसी पाठक ने सवाल किया था कि राजस्थानी भाषा में वेब सीरीज कब बनेगी? तो तमाम दर्शकों और पाठकों के लिए नए साल के तीसरे दिन रिलीज हुई स्टेज एप्प की यह सीरीज पुख्ता तौर पर सबूत है कि राजस्थानी सिनेमा में वेब सीरीज बन चुकी है, वह भी एक मजबूत तरीके से।