साहित्य

डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र की दरवेशी दृष्टि

 

लेखक तीन तरह के होते हैं। एक वे जो लिखते हैं, मगर लेखक नहीं होते। दूसरे वे जो एक्टिविस्ट होते हैं और लिखते हैं। तीसरे तरह के विरल लेखक वे होते हैं जो लिखते हैं और लेखक होने के बोध के साथ लिखते हैं। वे अपनी लेखकीय गरिमा बनाए रखते हैं और उसका मान भी बढ़ाते हैं। ऐसे लेखकों की सूची में डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र का नाम गौरव से लिया जाता है।

हिन्दी के शोधग्रन्थों के प्रारब्ध में प्रायः अमरत्व का सौभाग्य नहीं बनता है। हिन्दी के शोधकर्ताओं की पहचान भी उनके शोधग्रन्थ से कदाचित ही बनती है। डॉ. मिश्र का शोधग्रन्थ अपने विषय का प्रथम और अन्तिम होने का गौरव अर्जित करता है। यह शोधग्रन्थ कृष्ण बिहारी को मात्र डॉक्टरेट की उपाधि नहीं देता है, अपितु अमरत्व देता है।

हिन्दी शोधग्रन्थों के इतिहास का यह एक अमूल्य अध्याय है,- हिन्दी पत्रकारिता : जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण भूमि’। इसे उन्नीस सौ अड़सठ में भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया था। इस शोधकर्म से वे हिन्दी पत्रकारिता के पण्डित माने गए। कालान्तर में उन्होंने इस क्षेत्र में और भी कई कृतियां दीं। डॉ. मिश्र ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कौस्तुभ जयन्ती पर्व पर महाकवि निराला के पत्रकारीय योगदान पर विशद व्याख्यान दिया। यहाँ यह उल्लेख्य है कि पत्रकारिता डॉ. मिश्र की साहित्यिक रुचि का विषय नहीं था, जैसे वह महाकवि निराला की रचनात्मक अभिरुचि के अनुरूप नहीं था। मगर साधकद्वय ने अपनी मेधा, अनुशासन और संपूर्ण सामर्थ्य से इस पर्व का शिखर संस्पर्श किया। विभूतिद्वय शिखर संत के रूप में समादृत हुए।

उन्नीस सौ छत्तीस में जन्मे कृष्ण बिहारी की आरम्भिक पढ़ाई लिखाई गोरखपुर के एक मिशन स्कूल में हुई। पढ़ाई लिखाई की व्यवस्था उनके बाबा ने की थी। बाबा के पास कई गाँवों की जमीन्दारी थी। वे गाँव के मालिक कहलाते थे। पिता कलकत्ता में व्यवसाय करते थे। बालू सुरखी का व्यवसाय।

पं. अम्बिका प्रसाद बाजपेयी ने सन बासठ में शोधार्थी कृष्ण बिहारी मिश्र को उसके एक पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड से दिया था, उससे पता चलता है कि इनके पिता की दुकान बेलियाघाटा मेन रोड पर थी। दुकान का नाम के बी स्टोर्स था। के बी स्टोर्स से समझा जा सकता है कृष्ण बिहारी। हो भी क्यों नहीं, कृष्ण बिहारी अपने परिवार के कुलदीपक थे। एकल पुत्र थे। पिता के अभिमान थे।

के बी स्टोर्स का व्यापार यानी पिता का व्यवसाय फला फूला था। लक्ष्मी का निवास था। कृष्ण बिहारी लक्ष्मी साधना से विरत स्वभाव से सारस्वत समृद्धि की राह ले चुके थे। कृष्ण बिहारी की साहित्य साधना से पिता असन्तुष्ट हुए हों तो असंगत नहीं था। पिता का व्यवसाय बिलट गया।

डॉ. मिश्र के प्रारब्ध में सारस्वत साधना से प्रसिद्धि प्रारम्भ से है। डॉ. किरण मिश्र के लिखे से यह सर्व ज्ञात है। डॉ. किरण ने लिखा है,” कृष्ण बिहारी मिश्र को मैं नाम से ठीक पहचानती थी। क्योंकि आरम्भिक कक्षाओं में एक बार उपस्थिति लेते समय स्वर्गीय डॉ. जगन्नाथप्रसाद शर्मा ने उनके नाम पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें टोक दिया था – ‘अभी आप बचे ही हैं! आजकल किसकी ग्रन्थावली सम्पादित कर रहे हैं या पत्रिका सम्पादन में लगे हैं।’ स्पष्ट है कि कृष्ण बिहारी मिश्र अपनी साहित्यिक यात्रा से परिचिति प्राप्त कर चुके थे। यह बात जुलाई छप्पन की है। तभी डॉ. मिश्र और किरण मिश्र ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एम ए प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था। तब विभागाध्यक्ष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे। डॉ. मिश्र को उनकी कक्षा का विद्यार्थी होने का गौरव प्राप्त है। माखन लाल चतुर्वेदी ने कृष्ण बिहारी को सम्बोधित सन सत्तावन और अट्ठावन के अपने पत्र में जो भाव और भाषा उपस्थित की है, वह कृष्ण बिहारी के शील और सर्जक व्यक्तित्व को रेखांकित करती है।

श्रीपत राय के एक पत्र से यह सूचना मिलती है कि कृष्ण बिहारी मिश्र कहानियाँ लिखा करते थे। डॉ. मिश्र की दो कहानियाँ विद्याव्रती काल में कल्पना में छपी थीं, आरंभिक प्रसिद्धि प्रदान करने में इनका काफी योगदान था। श्रीपत राय कहानी पत्रिका के सम्पादक थे। उन्होंने चौदह सितम्बर उन्नीस सौ साठ को अपने पत्र के माध्यम से वार्षिकांक के लिए कहानी के लिए निवेदन किया था। लेकिन तब तक डॉ. मिश्र ने कहानी लेखन से अपने को विरत कर लिया था। से रा यात्री के बीस जुलाई उन्नीस सौ बासठ के पत्र से डॉ. मिश्र के विचारोत्तेजक और युक्तियुक्त लेख ‘ प्रेमचंद की परंपरा और उसके नए दावेदार ‘ साप्ताहिक हिंदुस्तान ‘के बाईस जुलाई के अंक में प्रकाशित होने की सूचना है। इसी कालखण्ड की चर्चा करते हुए डॉ. मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र कमलेश कृष्ण ने अपने पिता को लक्ष्य करके लिखा है कि उनका लिखना पढ़ना जारी था। कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठा मिल चुकी थी। देश की शीर्ष साहित्यिक और सामाजिक पत्रिकाओं में निरन्तर छप रहे थे।

हिन्दी साहित्य के सन्धानी जानते हैं कि छठे से आठवें दशक तक हिन्दी कहानी का युग अत्यन्त गतिशील है। डॉ. मिश्र की लिखी कहानियों का अगर उत्खनन किया जा सका, तो यह उनके आरम्भिक यानी शोधकर्म – पूर्व के लेखकीय व्यक्तित्व का उद्घाटन होगा। हम जानते हैं कि सन साठ के बाद का समय साहित्य और विचार दोनों स्तर पर महा-आलोड़न का काल है। निस्सन्देह स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी के लिए भी। डॉ. मिश्र का उपलब्ध साहित्य इस तथ्य का साक्ष्य है कि इस महा-आलोड़न से बनी भाषा से उन्होंने अपनी भाषा को प्रभावित नहीं होने दिया। उन्होंने अपनी भाषा में सात्विक सौन्दर्य बनाए रखा।

डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र भाषा के आविष्कारक हैं। एक ऐसे आविष्कारक जो भवानी भाई के काव्य- प्रस्ताव कि ‘जैसा तू बोलता है वैसा तू लिख’ से सहमति नहीं रखते। पत्रकार प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की भाषा रचने में इसे अपना आदर्श बनाया था। इसके बरक्स डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र ‘जैसा तू लिखता है वैसा तू बोल’ के सारथी बन भाषा के सौन्दर्य और सौष्ठव के लिए धर्म युद्ध का शंखघोष करते हैं। प्रभाष जोशी से इसके लिए शास्त्रार्थ भी करते हैं।

डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र से विद्या-विनिमय और वाक – विचार का सुयोग जिनका बना है, उन्हें भलीभांति ज्ञात है कि वे जैसा लिखते हैं वैसी ही भाषा आपसी संवाद में भी साधते हैं। डॉ. मिश्र के अभिन्न मित्र रेवतीलाल शाह ने अपनी डायरी में लिखा था,” डाक्टर साहब की भाषा बड़ी परिष्कृत है। उनकी बोलचाल की भाषा का रूप भी कुछ ऐसा ही है।”

इस संदर्भ में एक दृष्टान्त देखें : दृश्य और संवाद सन दो हजार दो का है। स्थान डॉ. किरण मिश्र का निवास है। दोनों मित्रों के संवाद शब्दशः प्रस्तुत हैं, प्रस्तुति स्वयं किरण मिश्र की है : उन्होंने सहज भाव से पूछा, ‘ अब आपकी चर्या क्या है? मैंने पति की रुग्णता से उत्पन्न व्यस्तता और व्यग्रता की बात बताई। मेरी स्थिति के साथ सहानुभूति व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘किरण जी, यह तो जीवन की ध्रुव नियति है। धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करते रहिए और अपनी सारस्वत साधना चलाते रहिए। उससे आपको मानसिक बल मिलता रहेगा।’

डॉ. मिश्र ने कहानी और आलोचना लेखन से विरत होकर ललित निबन्ध की दिशा में अपनी लेखनी को गरिमा दी। उन्होंने ललित निबन्ध की अभिमान -वृद्धि की। उनके ललित निबन्ध उनके मोहभंग के दर्द से भरे हैं। उनके निबन्धों के मुख्यतः दो विषय हैं। पहला, समाजवाद का विस्तृत होता मायाजाल, दूसरा गाँव का क्षरण। इन दोनों के ऊपर भोजपुरी और बलिया प्रेम हावी है।

डॉ. मिश्र के ललित निबन्धों में बलिया रस भरा पड़ा है। अपने जिले जवार से प्रेम होना स्वाभाविक है। होना भी चाहिए। लेकिन अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अप्रामाणिक विवरण और लतीफा पेश करना श्रेयस्कर नहीं। उनका बलिया प्रेम उनकी कलम से ऐसे भी प्रकट हुआ है। देखें- यहां का सारल्य यदा कदा उपहास का विषय बन जाता है, किंतु यहां की व्युत्पन्नमति बड़े बड़े मनीषियों धौरंधरियों को चक्कर में डाल देती है। प्रसिद्ध है पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी की व्युत्पन्नमति। द्विवेदी जी से राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने विनोद में पूछा था कि बलियावालों को गँवार क्यों कहा जाता है और द्विवेदी जी ने अपने मुँहतोड़ जवाब से राष्ट्रकवि को मूक बना दिया था ; कहते हैं, एकबार वैसा ही विनोद किया था नैयायिकों की धरती मिथिला के महामनीषी डॉ. अमरनाथ झा ने बलिया के एक युवक से। झा साहब उन दिनों बिहार पब्लिक कमीशन के प्रधान अधिकारी थे। उनके सामने बलिया का एक मेधावी युवक इन्टरव्यू देने उपस्थित हुआ। उसके ग्राम्य स्वरूप सारल्य को देखते ही झा महोदय को यकायक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वे दिन याद आ गए थे जब बलिया,आजमगढ़, गाजीपुर, गोरखपुर, देवरिया से आने वाले विद्यार्थियों को आधुनिक मिजाज वाले विद्यार्थी बलियाटिक सम्बोधन से चिढ़ाया करते थे। झा साहब ने उस युवक से पूछा, “आप बलिया के रहने वाले हैं, यह बताइए, वहाँ की धरती में ऐसा क्या है कि वहाँ के लोग गँवार होते हैं?”  उस युवक ने छूटते ही उत्तर दिया, “श्रीमान निःसन्देह इसका भौगोलिक कारण है। बलिया को बिहार तीन तरफ से स्पर्श करता है। तीन दिशाओं से बिहार की हवा बलिया को लगती है। जब तक यह निकटता रहेगी बलिया वालों की यही नियति रहेगी।”

अशोक सेकसरिया इससे भलीभांति परिचित थे कि डॉ. मिश्र में बलिया प्रेम किस हद तक है। ‘बेहया का जंगल’ पढ़ने के पश्चात उन्होंने उन्हें एक पत्र लिखा, उसका एक अंश देखें, “बेहया का जंगल का एक लेख रविवार में पढ़ चुका था। बाकी के लेख पढ़ डाले। आपकी पत्रकारिता वाली किताब के बाद आपको पढ़ने की हमेशा उत्कंठा रहती थी, सो पूरी हुई। वात्स्यायन की, शिवप्रसाद सिंह की प्रशंसाओं के बाद पुस्तक के बारे में मैं लिख सकता हूं? यही लिखता हूं कि एकदम शहरी होने के बावजूद इन लेखों के साथ मैं कहीं न कहीं तादात्म्य बोध करता हूं। एक बात, जिससे आपको शायद सन्तोष हो, आपकी किताब मैंनें ही नहीं पढ़ी है, मेरे जितने भी बलियावासी परिचित हैं उनमें तीन घर आते हैं और इन तीनों ने पुस्तक पढ़ डाली है।”

डॉ. मिश्र का मातृभूमि ममत्व केवल मानसिक मोद नहीं है। उनका आत्मिक लगाव है। मगर वहाँ की आबोहवा और पानी के प्रदूषित हो जाने से उनका जी दुखता रहता है। इसी चिन्ता में वे दुबराते गए। उनके ललित निबन्ध इसी पीड़ा से उद्भूत हैं। इस पीड़ा ने ललित निबन्धों में इतनी जगह घेर रखी है कि प्रतिभा अग्रवाल दोहराव की शिकायत करती हैं। भला एक ही दर्द का हालेबयां बारबार पढ़ना सुनना किसको अच्छा लगता है! डॉ. मिश्र को बदले जमाने का इल्म बखूबी है, वे लिखते हैं, “फौजी अनुशासन जैसी नपी तुली अनुशासित साहित्य साधना ही आज सच्ची और युग साधना मानी जाती है। वह युग पुराना पड़ गया जब लीक से हटकर निरंकुश मुद्रा में धावन करने वाले की प्रतिभा सच्चे शायर की प्रतिभा मानी जाती थी।” निस्संदेह डॉ. मिश्र लीक से हटकर धावन करने वाली प्रतिभा के स्वामी हैं और उनका लालित्य भी।

डॉ. मिश्र का प्राण अपने गाँव में बसता है। इससे कुछ बचता है तो वह बनारस में बसता है। बनारस में वे अपने बनारस का पता ढूंढते हैं और गाँव में अपने गाँव का पता। न उन्हें बनारस मिलता है न ही गाँव।

डॉ. मिश्र ने लिखा है, ” कितना पीड़क है सचमुच कि जहाँ के हवा-पानी और धूल-धुआँ से मेरा उल्लास छलकता था, आज वहीं अजनबी की तरह समय काटना पड़ रहा है। वह बूढ़ा कुआँ भी समय काट रहा है। इससे मेरा पारिवारिक सम्बन्ध है। मेरे वृद्ध प्रपितामह की यह रचना है। पीढ़ियों की प्यास बुझाने वाला यह बूढ़ा जलाशय आत्मीय आवाज की बाट जोहते थक गया है। … अपने गाँव का दुर्भाग्य बताऊँ आपको, शहर का पाप लग गया है मेरे गाँव को। पूरे गाँव के उल्लास को व्यंजित करने वाला, एक समूह-कण्ठ से गूँजने वाला फाग-राग अब सुनाई नहीं पड़ता। शहराती शैली में अपने अपने ढोल पर अपना-अपना राग पीट कर लोग फगुआ का रस्म पूरा करने लगे हैं। … संवेदना का जो सागर लहराता रहता था ग्रामीण जिन्दगी के बीच, वह सूख गया है। अब तो जैसे हर चरित्र के भीतर एक अछोर रेगिस्तान बस गया है। केवल सूखा और सुख का नाम नहीं।” इतने सब के बावजूद उनमें गाँव प्रेम बचा हुआ है, उन्होंने अपने तईं लिखा है, “महानगर में रहते मेरा गाँव-प्रेम अभी जीवित है।” हालांकि उनके गाँव की चनमोतिया ने उन्हें लक्ष्य करके सुनाया था, “शहर में रहला से भइया गाँव के रेवाज भुला गइले।”

डॉ. मिश्र ने धर्मयुग संपादक डॉ. धर्मवीर भारती को एक पत्र लिखा था, लिखा- “शहरू फैशन के छींटे से गाँव का रूप भद्दा हुआ है जैसे कुटिल राजनीति के आत्यंतिक प्रभाव ने गाँव के मानस पर आक्रमण किया है। गाँधी चाहते थे अछूतोद्धार, गाँधी चाहते थे ग्रामोन्नयन। अछूतोद्धार का ढोल पीटकर भी उन्हें समाज की सामान्य भूमिका पर हम नहीं उतार सके। उन्हें अधिकार सजग बनाकर एक विशिष्ट वर्ग में बन्द कर दिया गया, अप्रतिभ लोगों को गलत प्रोत्साहन मिला और सांप्रदायिक दीवाल और मोटी हुई।”

बनारस डॉ. मिश्र की विद्या भूमि है। काशी के प्रति उनका अनुराग स्वाभाविक है, मगर वह बनारस भी उन्हें नहीं मिला जो उन्हें और उनकी बेटी ऋचा को खींचता रहा है। डॉ. मिश्र लिखते हैं अपनी व्यथा, “मेरी बिटिया ने बनारस की जिन्दगी की रंगत नहीं देखी है। मेरी तरह उसने कुछ खोया नहीं है। मगर मुझसे अधिक उदास वही दिख रही है। शायद नयी रंगत ने उसकी कल्पना को धक्का दिया है। प्रदर्शनप्रियता की व्याकुल स्पर्धा से उसका बंगाली मन खिन्न हो गया है। रस कहाँ है बनारस की जिंदगी में जो जड़ वस्तुओं के चाकचिक्य के प्रलोभन में बेचैन है, वह गमगीन मुद्रा में सोचती है शायद। भादो में गंगा का ऐसा मुर्झाया चेहरा मैंने भी कभी नहीं देखा था। ऋचा के सारे सपने ही टूट बिखर रहे हैं। प्रदर्शनप्रियता की ऐसी नंगी होड़ महानगर कलकत्ता में नहीं है, ऐसा नहीं है। फिर काशी और कलकत्ता जब एक ही रंग में डूब गए हों तो काशी के चेहरे -चरित्र की वह विशिष्टता क्या है जिसपर सारी दुनिया पागल रहती है।… मेरा सर्वाधिक प्रिय नगर बनारस, व्यवसायवाद की गिरफ्त में आते ही मेरे लिए अनाकर्षक हो गया। … घाट पर, पान की दुकान पर, मन्दिरों के परिसर में और हर गली, हर नुक्कड़ पर हमेशा थिरकती रहने वाली बनारसी मस्ती की खुशबू अब खोजे नहीं मिलती। सहज आत्मीयता की ऊष्मा बुझी-बुझी लग रही है।… काशिकेय चरित्र की उन्मुक्तता का जिसे आस्वाद मिला है वह काशी से बहुत दूर रहते भी उस आबोहवा के लिए तरसता रहता है। और पीड़ित होता है जब काशी पहुंच कर गलियों, घाटों, दुकानों, मंदिरों में उस आबोहवा को व्याकुल मन से खोजते विफल हो जाता है।”

अपनी बेटी ऋचा का डॉ. मिश्र ने बंगाली बेटी के रूप में उल्लेख किया है। डॉ. मिश्र ने अपने निबन्ध में इसे स्पष्ट किया है,” ऋचा ने बांग्ला माध्यम से कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण की है। हिन्दी अध्यापक की बेटी बांग्ला को ही अपना मानती है। ” प्रसंगवश यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि डॉ. मिश्र की सभी सन्तानों की शिक्षा संभवतः बांग्ला माध्यम से हुई है। डॉ. मिश्र की छह सन्तानें हैं। चार पुत्र और दो पुत्रियाँ। जया ज्येष्ठ पुत्री हैं और ऋचा कनिष्ठ पुत्री। डॉ. मिश्र ने इन दोनों बेटियों को केन्द्र में रख कर दो निबन्ध लिखे हैं। जया ने भी अपने पिता के लिए एक लेख लिखा है।

डॉ. मिश्र जयप्रकाश नारायण की अगाध श्रद्धा करते हैं। जयप्रकाश को उनका प्राप्य मान नहीं मिला, इसके लिए उनका चित्त पीड़ित होता है। जयप्रकाश नारायण को एक ऐसे गवाह के रूप में भी डॉ. मिश्र ने पेश किया है जिन्होंने “वर्ग -संघर्ष द्वारा स्व-शासन की तैयारी को आत्म-नाश की तैयारी कहा।” डॉ. मिश्र ने वर्ग संघर्ष में आस्था रखने वाली राजनीतिक विचारधारा के लिए बेहया का जंगल जैसे रूपक की रचना की।

अपने एक निबन्ध में उन्होंने लिखा है,” पिछले पाँच छह वर्षों से बेहया नामक वनस्पति का जगह जगह जंगल उग आया है …बेहया दूसरे की बाढ़ को रोकनेवाली वनस्पति है… मेरे जवार में यह धारणा है कि बेहया का जंगल हरे सांप का आवास है …इसका धुआँ आँख की ज्योति को मन्द करता है और इसकी लकड़ी से पकाया गया भोजन कुष्ठ को जन्म देता है। ” उन्होंने समाजवाद को लक्ष्य कर के अपनी यह व्यथा व्यक्त की। डॉ. मिश्र ने बेलाग लिखा,” स्वाधीन देश के इतिहास को संवारने समृद्ध करने की जिम्मेदारी जिसके ऊपर थी, कैसा दुर्भाग्य है कि वह समाजवाद का सब्जबाग दिखाता रहा। उसका समाजवादी सब्जबाग बेहया का जंगल सिद्ध हुआ, जो सारे देश में छा गया और जिसमें हरे साँप की पलटन है, कुष्ठ के कीटाणु हैं, आँख की ज्योति को मारने वाला सघन धुआँ है।” ऐसी अंखफोर उक्ति का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। उन्होंने अपने जीवन काल में ही समाजवाद को केवल भारत के स्तर पर नहीं, विश्व स्तर पर दम तोड़ते देखा है।

उन्होंने क्षोभ के साथ लिखा था, ” जनता ज्ञान का प्रकाश मांगती है, सरकार समाजवादी नारे रटाती है।” डॉ. मिश्र के जीवन काल में ही केवल भारत की सरकारें ही नहीं, दुनिया की कई सरकारों ने वह दिशा ले ली है जो समाजवादी नारे रटाती नहीं अब, उसकी हर इबारत मिटाती हैं। दुनिया में अब कहीं भी वर्ग संघर्ष का कोई दृश्य नहीं है। डॉ. मिश्र ने वर्ग संघर्ष को इंगित करके लिखा था, “दुनिया में उग्र होनेवाली हिंसा की हवा और देश की वर्तमान दशा विरोध की वाणी की आतुर प्रतीक्षा कर रही है, किंतु वाणी के साधक अविरोध की साधना में लगे हैं।… अविरोध की साधना उन्हें सुहाती है जिनमें अतिरिक्त स्वार्थ सजगता होती है यानी जिसमें सरकारी गैर-सरकारी अलंकार पुरस्कार पाने की प्रबल स्पृहा होती है।” डॉ. मिश्र ने भले ही ये पंक्तियां वर्ग संघर्ष से उत्पन्न हिंसा के लिए लिखी हों और आज वर्ग संघर्ष का कोई दृश्य भी नहीं है, मगर हिंसा के दृश्य भयावह स्तर पर बने हुए हैं। अविरोध की संस्कृति फलफूल गई है। डॉ. मिश्र की ये पंक्तियां शाश्वत सत्य की तरह दीप्त होती रहेंगी और उन्हें अमर बनाए रखेंगी!

डॉ. मिश्र की तीक्ष्ण दृष्टि साहित्य संसार पर भी है। डॉ. मिश्र ने डॉ. माचवे को पत्र लिखते हुए एक हृदय विदारक दृश्य उपस्थित किया है, और जो लिखा है वह उन्हें सदैव याद रखने के लिए पर्याप्त है। सियासी खेल के खिलाड़ी बदलते रहेंगे, मगर हालात ऐसे ही बने रहेंगे। उनकी पंक्तियां उन्हें साहित्य की दुनिया का नागरिक बनाए रखेंगी। वे लिखते हैं “साहित्य में भी सियासी मुद्रा भयावह रूप में दिखाई पड़ने लगी है। भाई-भतीजा और जाति बिरादरी की हीन ग्रंथि को दिन रात कोसने वाले साहित्यिक स्वयं इस रोग के शिकार हो गए हैं। राजनीति की तरह विवेक भी शिविरों, खेमों और व्यक्तियों से बंधता जा रहा है। राजनीतिक को जैसे उसूल नहीं, अवसर से मतलब है और अपने मतलब को पूरा करने के लिए वे कभी प्रदेश की, कभी जनपद की,कभी जाति-बिरादरी की और अपने घिनौने स्वार्थ को छिपाने के लिए बीच – बीच में गाँधी – मार्क्स जैसे बड़े विचारकों की चर्चा किया करते हैं, ठीक वैसे ही आज के साहित्यिक-विचारक भी अपने-अपने पिंजड़े के पक्षियों के रंग-रूप और बोल का ढोल पीटते रहते हैं।” डॉ. मिश्र ने जिन्हें लक्ष्य करके ये पंक्तियां लिखीं, उनके ढोल फट चुके हैं। अब नए ढोल और नए वादक हैं। महाशोर का वातावरण है।

भोजपुरी डॉ. मिश्र की मातृबोली है। “भोजपुरी धरती, हवा-पानी ने मुझे चलना-बोलना सिखाया है, ‘अंखफोर’ बनाया है। लोक-चक्षु से चक्षु मिलाने की संवेदना और शक्ति दी है।” डॉ. मिश्र की पंक्तियां हैं। यह भोजपुरी की शक्ति है। यही शक्ति नेहा को मिली है। भोजपुरिया लड़की नेहा सिंह राठौर ने सोशल मीडिया पर अपना दर्द दर्ज किया है। उसका दर्द है: पान की दुकान की बगल से गुजरो या ऑटो में बैठो, भोजपुरिया गीत चोली उतारता है। अगर इस युवती ने डॉ. मिश्र का बहुपठित निबन्ध “भोजपुरी धरती और लोकराग” या भारतीय भाषा परिषद में दिया व्याख्यान सुना या पढ़ा होता तो वह इस बोली के उज्ज्वल पक्ष से सान्त्वना और शक्ति दोनों की सौभाग्यशालिनी बनती। मगर सुना और पढ़ा भी होता तो उसकी व्यथा किसी भी कोण से मिथ्या नहीं होती। सांघातिक दर्द ने ही डॉ. मिश्र और नेहा के सम्बन्ध को प्रगाढ़ कर दिया है। डॉ मिश्र का दर्द है, “लगता है, गाँव में मंडरा रही अश्लील गन्ध ने मेरे गाँव के सौन्दर्य का गला घोंट दिया। गाँव की हरिअरी से जन्मे गीतों पर फिल्मी धुन चढ़ रही है और गंवई कंठ की पहचान लुप्त होती जा रही है। मुझे कभी कभी शंका होती है कि गाँव की बेटी के शील को छोड़कर गाँव ने छिन्नमस्ता चण्डी को आमन्त्रित कर लिया है और उसकी विध्वंस लीला ने गाँव की सौम्य मुद्रा को मार दिया है।”

डॉ. मिश्र अपने युवाकाल में जब गोरखपुर और बनारस में शिक्षार्थी थे या जब भी वे अपने गाँव में रहे, उन्होंने भोजपुरिया बेटी – बहू को सौगात स्वरूप मिलती इस वेदना को अपने हृदयाघात की तरह झेला था। तब की औरतों का मौन ही उनका सौंदर्य था। आज स्थिति बदली हुई है, मगर पीड़ा पूर्ववत है। डॉ. मिश्र का निबन्ध है : सइयां के जाये न देबों बिदेसवा। इस लेख में उनका दर्द व्यक्त है। वे लिखते हैं,” मेरे टोले की मुखर खुशी फुलकेशिया किस आकर्षण से अपने बूढ़े बाप को लेकर दूसरे गाँव में जा बसी? दूसरे गाँव का आकर्षण नहीं, अपने गाँव की अश्लील हवा के हलके स्पर्श के गहरे आघात ने उसे अपना गाँव छोड़ने को मजबूर कर दिया। “यह नेहा इसी फुलकेशिया की नयी पीढ़ी है। फुलकेशिया हवा का रुख बदलने के लिए कदम नहीं उठा सकी थी, लेकिन नेहा ने बीड़ा उठा लिया है। हालात बिल्कुल नहीं बदले हैं। अभी भी उधर की हवा में अश्लीलता की लू से देह जलती है। यह प्रारब्ध किसी विरल लेखक को ही मिलता है कि उसकी पीड़ा को उसके जिले जवार की तीसरी पीढ़ी की एक युवती आन्दोलन में बदल दे। डॉ. मिश्र के जीवन काल की यह उपलब्धि विश्वास दिलाती है कि लेखक का लिखना व्यर्थ नहीं जाता है।

डॉ. मिश्र का एक पक्ष और है जो हम सब का ध्यान आकर्षित करता है। डॉ. मिश्र की ज्येष्ठ पुत्री जया ने एक घटना का वर्णन किया है: मैं जिस राह से स्कूल जाती थी, वही राह पिताजी के कालेज की राह थी। उस राह से उन्हें कालेज आते जाते मेरी एक परिचिता महिला देखती रहती थीं। एक दिन सहज भाव से उन्होंने मुझसे कहा,’ सुनो जया, एक भद्र पुरुष को इस रास्ते से आते जाते रोज देखती हूं। इतने सुंदर हैं कि तुम को क्या कहूं। उनसे परिचय कर बतियाने की इच्छा होती है। वह महिला मेरे पिताजी की कन्या की उम्र की थीं, जो पिताजी के रूप, पोशाक और चलने की शैली पर सहज ही मुग्ध थीं। ‘ इसी संदर्भ में डॉ. विजय बहादुर सिंह की पंक्तियाँ भी ध्यान खींचती हैं: “कृष्णबिहारी जी को पहली बार देखा तो आंखों को ही नहीं, मन को भी अच्छा लगा था। ऊपर से नीचे तक नफासत। रा सिल्क या फिर ऊंचे किस्म का मसलिन खादी का कुरता, शांति पुरी धोती और जे.जे. की कोल्हापुरी बेशकीमती खूबसूरत चप्पलें पांवों में। कंधे पर कभी कभार कच्चे रेशम या मंहगे ऊन की शाल। गहरा गेहुंआ गुलाबी रंग। मालवा के सबसे ऊंची किस्म के शरबती गेहूँ वाली देह कांति और छरहरे से कहीं अधिक दुबला पतला किसी लचीली लहरदार टहनी सा जैसे। होठों पर पान के पीक की लाली निरन्तर नये नये ढ़ंग से कौंधती निगाह।”

ऐसे सुदर्शन और नफासत पसन्द डॉ. मिश्र पाँच नवम्बर को जनमे थे। वे पचासी वर्ष पूरे कर चुके हैं। इस कामना के साथ कि वे दीर्घायु हों और साहित्य – संसार में वे सदैव समादृत होते रहें, उन्हें अपना प्रणाम निवेदन करता हूं। डॉ. मिश्र कोलकाता के जिस बंगवासी मार्निंग कॉलेज में साहित्य अध्यापन करते थे, यह प्रणाम निवेदक और आशीर्वाद आकांक्षी उसी कॉलेज में वाणिज्य का छात्र था

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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