दास्तान ए दंगल सिंह

दास्तान-ए-दंगल सिंह (99)

बेटे स्नेह सागर ने मणिपाल (माहे/कर्नाटक) से 2008 में इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स ब्रांच से बीटेक पास किया। कैम्पस सेलेक्शन में उसे टीसीएस और एक्सेंचर से सॉफ्टवेयर इंजीनियर का जॉब ऑफर मिला था। टाटा समूह की कार्यसंस्कृति से प्रभावित हम लोगों ने टीसीएस जॉइन करने का निर्णय लिया। पहली पोस्टिंग गुड़गाँव में हुई थी, जहाँ कॉमनवैल्थ गेम्स के समय उसे डेंगू से जूझना पड़ा था। अगली पोस्टिंग नोएडा सेक्टर 62 में हुई। उसे काम में मन लग रहा था इसलिए तरक्की मिल रही थी। इधर घर पर उसके विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे थे। मित्रगण कहते, “पवन जी, बेटे को शादी के मार्केट में कब लॉन्च कर रहे हैं?” वह अभी शादी के लिए तैयार नहीं था। लड़की वालों को कोई तर्कसंगत जवाब देने में हम कमजोर पड़ रहे थे। दरअसल वह काफी हद तक खर्चीले स्वभाव का है। उसकी माँ और बहन सहित अनेक हितैषियों का मत है कि सारा दोष मेरा है। मैंने उसे कभी पैसे का अभाव महसूस नहीं होने दिया है। अब मैं लोगों को कैसे समझाऊँ कि ऐसा करके मैं अपने बाबूजी को श्रद्धांजलि अर्पित करता रहा हूँ। बाबूजी हम बच्चों की पढ़ाई में खर्च की बिल्कुल ही परवाह नहीं करते थे। किसान होने के कारण घर में हमेशा नकदी का अभाव होता था। बच्चों को पैसा भेजने की जरूरत होती तो खड़े-खड़े गाय-भैंस-पेड़-जमीन कुछ भी बेच डालते थे।

असमय साथ छोड़ जाने के कारण अपनी कमाई से मैं उनके लिए कुछ नहीं कर सका था, जिसका मलाल मुझे जीवन भर रहेगा। उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करने का उपाय मुझे यही लगता था कि अपनी संतानों को कभी आर्थिक अभाव महसूस न होने दूँ। अब गलती मेरी कहिये अथवा विधाता की मर्ज़ी! उसके स्वभाव में फिजूलखर्ची घुस आयी है जो मेरे स्वभाव के बिल्कुल उलट है। मैं जरूरी काम में पैसे की तनिक परवाह नहीं करता हूँ, किन्तु गैरजरूरी खर्चों को अनिश्चित काल तक टालता जाता हूँ। हाँ, परदुःखकातरता का खानदानी गुण उसके व्यक्तित्व में कुछ ज्यादा ही समाहित है। जरूरतमंदों की मदद दिल खोलकर करता है। धन-संग्रह करने की प्रवृत्ति लेशमात्र भी नहीं है। बस कमाओ और मौज करो। उसने एक दिन बातचीत के दरम्यान कहा भी था, “मैं इतना कमाना चाहता हूँ कि जब जो खरीदने का मन हो, कुछ सोचना न पड़े, खरीद लूँ। किसी की मदद करने का मन हो तो सोचना न पड़े, बस कर दूँ।”
          तो बेटे को तत्कालीन वेतन में विवाह की जिम्मेदारी उठाने का साहस नहीं हो रहा था। इधर सुधा जी का मन सशंकित हो रहा था कि वह कहीं प्रेमविवाह की राह पर तो नहीं चल पड़ा है! माँ-बेटे में सहेली जैसी बातचीत होती है। सुधा ने कसमें दिलाकर इस बाबत कई बार पूछा था। हर बार उसका जवाब नकारात्मक था। उसका कहना था कि विवाह तो हमारी मर्ज़ी से ही करेगा, पर पर्याप्त कमाई शुरू होने के बाद करेगा। इसी क्रम में उसने जनवरी 2011 में टीसीएस छोड़कर ‘बैजुज’ जॉइन कर लिया जहाँ उसका दोस्त मृणाल मोहित पहले से कार्यरत था। वहाँ डेढ़ साल काम करने के बाद उसने अचानक एक दिन फोन पर बताया कि उसने एमबीए करने के लिए नौकरी छोड़ दी है और उसका चयन प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान एआईएम मनीला (फिलीपींस) में हो गया है।

हम तो जैसे अथाह पानी में गिर गए थे। खर्चा पूछा तो बताया कि तीस लाख का पैकेज है और जॉब एक्सपीरियंस के कारण दो साल के बदले डेढ़ साल का कोर्स होगा। उस समय हाथ बिल्कुल खाली था। बैंक से लोन लेने के सिवा कोई चारा नजर नहीं आ रहा था। इस काम के लिए पुश्तैनी जमीन बेचना मुझे मंजूर नहीं था। बैंक के अपने मित्रों से बात की तो पता चला कि विदेश में पढ़ाई के लिए बीस लाख की सीमा है। शेष दस लाख का जुगाड़ करना होगा। बेटे ने बताया कि शेष राशि किश्तों में देनी होगी। तब जाकर हिम्मत बँधी थी। लोन सेंक्शन करवाने के क्रम में एसबीआई के अधिकारियों के साथ कई बार गरमागरमी हो गयी थी, पर अंततः उसे मनीला भेजने में सफल हो गया था। खर्च की किश्त भेजने के दरम्यान एसबीआई की कार्यसंस्कृति के एक बुरे अनुभव से गुजरने का मौका मिला था। रुपये को डॉलर में बदलकर वायर ट्रांसफर करने की प्रक्रिया थी। उस दौर में डॉलर की कीमत में काफी उतार चढ़ाव चल रहा था। उस विभाग को संभाल रही एक महिला अधिकारी के लगातार तीन दिनों तक गैरहाजिर रहने के कारण मुझे तीन दिन कहलगाँव से भागलपुर का चक्कर लगाने के साथ डॉलर की कीमत बढ़ जाने के चलते लगभग पैंसठ हजार रुपये का नुकसान सहना पड़ा था। लाख हायतौबा मचाने के बावजूद बैंक ने कोई राहत नहीं दी थी।
        बेटे के मनीला प्रवास के दौरान वहाँ बार-बार होने वाले भूकंप और तूफान के कारण हम उसके लौटकर आने तक लगातार चिंतित रहते थे। सुधा जी की एक और चिंता थी कि कहीं वहाँ की लड़की से विवाह न कर ले! इस संदर्भ में जब भी बात होती तो मैं समझाता, “यदि शादी करके आ जाये तो बुद्धिमानी इसी में है कि परिछावन करके इज्जत से बहू को घर में ले लेना। बेटे के साथ बहू पाओगी, नहीं तो बेटा खो दोगी।” पर वैसी नौबत नहीं आयी। एआईएम में कैम्पस सेलेक्शन का प्रावधान नहीं है, किन्तु कोर्स समाप्ति के बाद जॉब सर्च करने के लिए कुछ महीनों तक होस्टल में रुकने की सुविधा उपलब्ध थी। तीन महीने के इंतजार के बाद मई 2014 में टेक महिन्द्रा में बिजनेस कंसल्टेंट की नौकरी मिल गयी। इसके पहले फरवरी माह में हमने उसकी शादी तय कर दी थी। शादी दिसंबर में हुई। (दोनों बच्चों के विवाह की कथा बहुत ही दिलचस्प है। अगली कड़ियों में लिखूँगा।) एमबीए करने और नौकरी में व्यस्त रहने के बाद भी बेटे की पढ़ाई की भूख कम नहीं हुई। ढाई साल तक यूके और डेढ़ साल तक ऑस्ट्रेलिया प्रवास के दौरान उसने कई कोर्स पूरे कर लिये हैं। इस दिशा में लगातार प्रयासरत है। सुधा जी कहती हैं, “तुम्हारा मन नहीं अकछाता है रे!” मैं कहता हूँ,”अभी ही तो पढ़ रहा है। इंजीनियरिंग तक ‘पढ़ा’ कहाँ था। अब पढ़ लेने दीजिए।”

         बेटी प्रीति सागर का मैट्रिक का रिजल्ट (2006ई0) उम्मीद से अच्छा हो गया था। खासकर उसने अपनी कमजोरियों पर जीत हासिल करके गणित में 96 प्रतिशत अंक प्राप्त कर लिए थे। मुझे याद है, गणित की परीक्षा के सम्बंध में मैं डरा हुआ था। उसके ट्यूटर दिवाकर सर मुझे आश्वस्त किया करते थे कि बेटी बहुत अच्छे अंक लाएगी, क्योंकि उन्होंने बहुत अभ्यास करवाया है। परीक्षा केंद्र से निकलते समय मैंने आशंकित भाव से हाल पूछा तो उसने जवाब दिया था, “पापा, बहुत खड़ूस एग्जामिनर होगा तो तीन-चार नम्बर कटेगा।” उसकी बात से मुझे आश्चर्य मिश्रित सुखद अनुभूति हुई थी। उसका दावा सच साबित हुआ था। शुरूआत से ही मैं यह मानता और चाहता भी था कि वह आर्ट्स की पढ़ाई करके अंग्रेजी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अपना कॅरिअर बनाए, क्योंकि अंग्रेजी में उसकी रुचि अधिक थी और शिक्षक भी प्रशंसा करते थे। किंतु गणित के अंक और अच्छे रिजल्ट ने थोड़ा भटकाव पैदा कर दिया।

इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे उसके भैया ने उसे इंजीनियरिंग करने के लिए प्रेरित किया। मैं भी भ्रमित हो गया और इंटर में उसका नामांकन साइंस में करवा दिया, वह भी गणित व कंप्यूटर के साथ। अपनी रुचियों के विपरीत विषय पढ़ने के कारण उसका मन बोझिल रहने लगा था, पर लगी रहती थी। परीक्षा का फॉर्म भरने के साथ इंजीनियरिंग के एडमिशन टेस्टों के लिए भी कई संस्थानों में आवेदन किया गया था। सीबीएसई बोर्ड प्लस टू की परीक्षा देने के पश्चात एडमिशन टेस्ट दिलाने का सिलसिला शुरू हुआ और उसे साथ लेकर लगभग हर सप्ताहांत मुझे अलग-अलग शहर की यात्रा करनी पड़ी थी। इसी दौरान कोलकाता के एक परीक्षा केंद्र में अन्दर घुसती छात्रों की भीड़ देखकर उसने कहा था, “पापा, ये सारे बच्चे कहीं न कहीं से इंजीनियरिंग तो जरूर कर लेंगे। मैं तो इस भीड़ में खो जाऊँगी।” उसकी यह बात आज भी मेरे कानों में गूंजती है। इस बात ने एक बार फिर उसके जीवन की दिशा बदल दी। हमने उसे इंजीनियरिंग पढ़ाने का इरादा त्याग दिया। उसकी इच्छा अंग्रेजी पढ़ने की थी जिसमें उसके मम्मी-पापा की सहमति और भैया की असहमति थी।
       मैं चाहता था कि हमारे भागलपुर यूनिवर्सिटी के ही सुन्दरवती महिला कॉलेज में नामांकन कराया जाए। वहाँ आवेदन भी कर दिया था। पर वह सेशन लेट होने के कारण मेरे यूनिवर्सिटी के किसी कॉलेज में पढ़ने को राजी नहीं थी। विपरीत परिस्थितियों से बचने के लिए अपने ही कॉलेज में एडमिशन करा लिया था। बेहतर विकल्प के रूप में बीएचयू का टेस्ट दिलवाने के साथ-साथ पटना वीमेंस कॉलेज में आवेदन डाल दिया था। उस कॉलेज की प्रिंसिपल सिस्टर डॉरिस डिसूजा थीं, जिन्होंने वीसी बनाये जाने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कहा था, “नीतीश जी मुझे आपकी इस व्यवस्था में वाइसचांसलर नहीं बनना है। सिस्टम में फिट होने वाले किसी व्यक्ति को वीसी बना दें और मुझे अपना कॉलेज चलाने दें।”

 उस कॉलेज के कटऑफ मार्क्स में बिटिया के दो अंक कम थे। पैरवी के लिए मैंने भागलपुर के फादर वर्गीस पनंगट्ट से सिफारिशी पत्र लिखा लिया था। पत्र लिखते हुए उन्होंने भी कहा था, “पवन सर, ऐसा पत्र मैं जीवन में पहली और आखिरी बार लिख रहा हूँ। वह भी केवल आपके लिए और आपकी बेटी के लिए, क्योंकि आप दोनों यह डिजर्व करते हैं।” उस पत्र को सिस्टर तक पहुँचाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ी थी। पत्र और फादर वर्गीस को उन्होंने बस इतनी ही इज्जत दी कि मुझे बुलाकर बात कर ली, किन्तु एडमिशन के लिए ‘सॉरी’ बोल दिया था। मैं तब भी हार मानने को तैयार नहीं था। पत्रकार मित्र संजीव कुमार झा को साथ लेकर और दिल्ली के अपने रिश्तेदार प्रो0 रमण कुमार सिंह के माध्यम से यूजीसी के वाइस चेयरमैन की सिफारिश का जुगाड़ लगाकर मैं सिस्टर के चेम्बर का चक्कर लगाता रह गया था। इतने दुर्धर्ष प्रयासों के बावजूद काम नहीं बना और सिस्टर ने एक बार फिर बुलाकर ‘सॉरी’ कह दिया था। मैंने अंतिम बार उन्हें इतना ही कहा, “सिस्टर, अब तो बेटी को पटना यूनिवर्सिटी में ही पढ़ाऊंगा। मुझे भरोसा है कि टॉप कर जाएगी। तब आपको बहुत अफसोस होगा। पर, आपकी इच्छाशक्ति और ईमानदारी का मैं मुरीद होकर जा रहा हूँ सिस्टर।” मगध महिला कॉलेज को मैं मगध यूनिवर्सिटी की इकाई मानता था इसलिए वहाँ के लिए प्रयास नहीं किया। बहुत बाद में यह गलतफहमी दूर हुई थी। अंततः उच्च शिक्षा विभाग में कार्यरत अपने गोतिया भाई दीपक कुमार सिंह की मदद से बीएन कॉलेज पटना में प्रीति का नामांकन करवाया था। उस कॉलेज में अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष डॉ0 चतुरानन पांडेय मेरे होस्टल के मित्र थे, सो उनपर अभिभावकत्व की जिम्मेदारी सौंपकर मैं निश्चिंत हुआ था। बीएन कॉलेज में लड़कियों का होस्टल नहीं होने के कारण उसे प्राइवेट लॉजों में रहकर पढ़ाई करनी पड़ी थी। रिजल्ट आशा के अनुरूप अच्छा ही हुआ था। तीन-चार अंकों की कमी से वह टॉप नहीं कर सकी थी, पर यूनिवर्सिटी में तीसरा रैंक मिल गया था। टॉप कर जाती तो मैं उसे लेकर जरूर सिस्टर डिसूजा से मिलने जाता।
          इंटर के बाद उसकी जिद थी कि भागलपुर यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ेगी। अब मास्टर डिग्री के लिए उसने बिहार को ही रिजेक्ट कर दिया था। विश्वभारती, बीएचयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में नामांकन के लिए आवेदन किया गया। विश्वभारती में रिजर्वेशन रोस्टर का खामियाजा भुगतना पड़ा। कोशिश काम नहीं आयी। बीएचयू वालों ने तो सीधी बेईमानी कर ली। जिस दिन काउंसिलिंग के लिए बुलाया गया, उसी दिन दोपहर के दो बजे डाक से पत्र प्राप्त हुआ था। हेल्पलाइन नंबर पर फोन करता रहा, पर कॉल रिसीव नहीं किया गया। प्रो0 देवेन्द्र मोहन को फोन करके मदद मांगी पर वहाँ की कुव्यवस्था का रोना रोते हुए उन्होंने भी असमर्थता जता दी। हम छटपटाकर रह गये। मुकदमा दायर करने का मन बनाकर वहाँ से ध्यान हटाया। दूध का जला छाछ भी फूँककर पीता है, सो इलाहाबाद पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी था। मित्र डॉ0 गिरीशचन्द्र पांडेय ने अपने सूत्रों की मदद से पता कर लिया कि वहाँ भी काउंसिलिंग शुरू हो गयी है। पत्र की आशा में बैठे रहना जोखिम भरा काम था। बीएचयू की तरह धोखा खाने के बजाय इलाहाबाद चल पड़ना श्रेयस्कर लगा।

 बिना आरक्षण के ट्रेनें बदल-बदलकर बाप-बेटी सरस्वती पूजा के दिन अहले सुबह इलाहाबाद पहुँच गये। अपने एक रिश्तेदार (भांजी के ननद-ननदोई) के घर ठहराना था जो यूनिवर्सिटी के पास के मुहल्ले में बसे थे। सरस्वती पूजा के उपलक्ष्य में स्कूल-कॉलेजों में छुट्टी थी, इसलिए मेजबान सहित हम निश्चिंत थे कि आज काउंसिलिंग नहीं होगी। मेजबान हमें घर पहुँचाकर अपने एक रिश्तेदार से मिलने चले गये थे। बेटी नहाने चली गयी थी। मैं घर के अन्य लोगों के साथ चाय पीते हुए गपशप कर रहा था कि मेजबान का फोन आया, “मामा जी, प्रीति को कागजात के साथ तैयार रखिए। मैं तुरंत आ रहा हूँ। आज ही एडमिशन होगा। अखबार में छपा है।” इस अप्रत्याशित स्थिति के लिए हम बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। भींगे बालों से पानी टपकाते बिटिया ने कपड़े बदले और मैंने सारे कागजात व पैसे एक फाइल में समेटकर उसे सुपुर्द किया था। बबलू जी वह अखबार भी लेते आये थे जिसमें खबर छपी थी। यहाँ तो बीएचयू से भी बड़ी बेईमानी की गयी थी। छुट्टी के दिन एक स्थानीय समाचारपत्र के भीतरी पृष्ठ पर कोने में 1इंच×1इंच में एक खबर थी कि अंग्रेजी के सामान्य वर्ग के लिए आज काउंसिलिंग होगी।

  खैरियत थी कि बबलू जी के वे रिश्तेदार आद्योपांत अखबार पढ़ने के आदी थे, जो उनकी नजर में वह खबर आ गयी थी और यह भी कि हमारे आगमन के उद्देश्य की चर्चा उनसे हो गयी थी। अन्यथा यहाँ भी हम मौका गँवा ही चुके थे। इतना ही नहीं, नामांकन दाखिल करने वाले अधिकारी और बाबू ने प्रीति को हतोत्साहित करने का भी प्रयास किया था यह कहकर कि “तुम्हारे पापा तो खुद प्रोफेसर हैं भागलपुर में। तो वहीं क्यों नहीं पढ़ती हो?” उसने यह कहकर उन्हें चुप कराया था कि “अंकल, आपको तो इस बात से खुश होना चाहिए!” खैर, अब एडमिशन तो हो चुका था। होस्टल आदि का जिम्मा बबलू जी को सौंपकर बिटिया को वहीं छोड़ते हुए मैं तीसरे दिन वापस लौट आया था, क्योंकि अगले सप्ताह से सत्र आरम्भ होने वाला था। कुछ महीने रिश्तेदार के घर रहने के बाद होस्टल में रहने का निर्णय हुआ, किन्तु यूनिवर्सिटी के होस्टल की व्यवस्था उसे पसंद नहीं आयी तो एक सहेली के साथ वह प्राइवेट होस्टल में रहने लगी। पटना प्रवास के दौरान ही वह स्वपाकी बन आत्मनिर्भर हो चुकी थी। वहाँ पर खुद बनाकर खाने लगी और परीक्षा की तैयारी में भी आत्मनिर्भरता का रास्ता चुना। एक दिन उसने फोन पर कहा, “पापा, मेरे क्लास की लड़कियाँ कहती हैं कि यहाँ रिजल्ट अच्छा करने के लिए ट्यूशन पढ़ना जरूरी है। अधिकांश शिक्षक ट्यूशन पढ़ाते हैं। नहीं पढ़ोगी तो सेकंड क्लास हो जाएगा।”
 “ऐसा नहीं है बेटा, तुम्हें जैसा उचित लगे, करो। यदि खुद तैयारी कर सको और शंका-निवारण क्लास में कर लो तो रिजल्ट क्यों खराब होगा!” मैंने समझाया था।
 “नहीं पापा, मैं खुद से तैयारी करूँगी। वे लड़कियाँ दलाल हैं। उनके झाँसे में नहीं आना है।” उसका आत्मविश्वास तसल्लीबख्श था।
और हुआ भी वैसा ही। प्रीति ने मास्टर डिग्री की परीक्षा अव्वल दर्जे से पास की। उसका रैंक प्रथम तीन में से क्या रहा, इस बात की जानकारी मांगने पर भी यूनिवर्सिटी ने आज तक नहीं दी। जो भी हो, उसने योद्धा होने का प्रमाण दे दिया था। माँ-बाप और परिवार के साथ अपने शिक्षकों का मान-सम्मान उसने बढ़ा दिया था।
        मैट्रिकुलेशन से लेकर एमए तक के उसके अच्छे रिजल्ट ने कालांतर में मेरी तरह ही उसके कॅरिअर का नुकसान किया। एमए के तुरंत बाद वह बीएड करना चाह रही थी, किन्तु उसपर मेरा भरोसा इतना अधिक बढ़ गया था कि मुझे नेट/जेआरएफ से इतर कुछ भी मंजूर नहीं था। जब उसके होने वाले ससुर जी ने मुझसे कहा था, “बचिया के बीएड काहे न करवा दे तानी?” तो मैंने चिढ़कर जवाब दिया था, “ओकरा प्रोफेसर बने के बा त बीएड के कउन काम बाटे!” मेरा भरोसा अहंकार का रूप धारण कर चुका था। बुजुर्गों ने कहा है कि अहंकार भगवान का भोजन होता है। मैंने बिटिया के नेट की तैयारी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। मुखर्जी नगर दिल्ली में रखकर सबसे अच्छे कोचिंग सेंटर में उसका नामांकन करवाया। उसने भी एकनिष्ठ भाव से समर्पित होकर पढ़ाई की। इंटरनल मॉक टेस्ट में अव्वल आती रही। किन्तु मुख्य परीक्षा में सामान्य वर्ग में चार अंकों से पिछड़ गयी। उसकी असफलता से उससे अधिक दुख मुझे हुआ था, इस बात में मुझे कोई शक आज भी नहीं है। कोचिंग सेंटर के निदेशक भी हतप्रभ रह गए थे। इसी प्रकार लगातार तीन बार कुछेक अंकों से असफल होने के बाद उसका मन इस ओर से बिदक गया।

इसी बीच फरवरी 2017 में उसका विवाह हुआ। दामाद जी के निर्णय के अनुसार गलगोटिया डीम्ड यूनिवर्सिटी में उसका नामांकन बीएड में कराया गया। फिर 2019 में भागलपुर विवि में प्री पीएचडी एडमिशन टेस्ट दिलवाने उसे मैं दिल्ली से लेकर आया। पेपर सेटिंग्स में एक तकनीकी भूल के कारण छात्रों ने हंगामा खड़ा करके परीक्षा रद्द करवा दी। कुछ महीने बाद पुनः परीक्षा की तिथि आयी तो उसके बीएड के किसी जरूरी कार्यक्रम की तिथि से टकरा गयी और परीक्षा ड्रॉप कर देनी पड़ी। “सबहिं नचावत राम गुसाईं, नाचत नर मरकट की नाईं।” जी बहुत कचोटता है। उसके कॅरिअर में ब्रेक का सम्पूर्ण दोष मैं अपने को देता हूँ। बहुत सोचता हूँ तो एक तसल्ली भी मिलती है कि विधाता जो करता है, अच्छा होता है। यदि ससमय बीएड हो जाता तो तुरंत किसी सरकारी स्कूल में नौकरी मिल जाती। तब विवाह के बाद दामाद जी के साथ लम्बे समय तक रहने का मौका नहीं मिलता। यदि नेट/जेआरएफ कर जाती तो बिहार या यूपी वगैरह में असिस्टेंट प्रोफेसर बनकर दामाद जी से अलग रहकर जीवन जी रही होती, क्योंकि उनकी शैक्षणिक योग्यता ऐसी है कि उन्हें किसी महानगर में ही जीवन यापन करना है। अब बिटिया अपने पति के कार्यस्थल के पास के किसी पब्लिक स्कूल में काम कर सकेगी। दाम्पत्य जीवन सुखद रहेगा। स्वपाकी होकर पढ़ाई पूरी करने और रुचि रहने के कारण वह पाककला में प्रवीण हो गयी है। इस विद्या को भी वह अपना पेशा बना सकती है। सबसे बड़ी बात यह कि उसे इस बात का भरोसा है।
(क्रमशः)

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पवन कुमार सिंह

मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे लेखक जयप्रकाश आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और हिन्दी के प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919431250382, khdrpawanks@gmail.com
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