दास्तान ए दंगल सिंह

दास्तान-ए-दंगल सिंह (103)

 

बिटिया के ब्याह में ही सभी बच्चों की उपस्थिति में छहों लोगों के यूके भ्रमण की भूमिका तैयार हो गयी थी। बेटा और बहू डेढ़ साल से इंग्लैंड में थे। जमाई का पासपोर्ट पहले से था। बिटिया और हम दोनों के लिए पासपोर्ट बनवाने की जरूरत थी। कहलगाँव रहते ही बेटे ने तीनों के ऑनलाइन आवेदन तत्काल कोटा में डाल दिये थे। भागलपुर में क्षेत्रीय कार्यालय खुल गया था। हम दोनों को भागलपुर से और बिटिया को दिल्ली से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। पुलिस वेरिफिकेशन की प्रक्रिया में सबसे अधिक समय लगा। एसएचओ को बहुत फिक्र थी कि हम आखिर विदेश क्यों जाना चाहते हैं? बहरहाल अप्रैल के मध्य में तीनों के पासपोर्ट बन गये थे। वीसा के लिए हमें कोलकाता से और बिटिया को दिल्ली से बुलाया गया।

इसी बहाने हम दोनों पहली बार नये समधियारा का आतिथ्य ग्रहण कर आये। तीन दिनों का वह प्रवास काफी आनंददायक रहा था। समधी साहब ने अपने सारे नातेदारों व हितैषियों से मिलवाया था। वीसा कार्यालय कोलकाता के सुदूर पूर्वोत्तर क्षेत्र में था। एक ही भवन के एक तल पर अगल-बगल दर्जनों देशों के लिए काउंटर बने थे। प्रतीक्षा कक्ष में बैठने की कोई व्यवस्था नहीं थी। अपनी बारी के इंतजार में लोगों को घंटों खड़े रहने की विवशता थी। इस कारण सुधा की तबीयत बिगड़ गयी थी। यूके और यूएसए के काउंटर आजू-बाजू थे। गौर किया कि कोई-न- कोई बहाना बनाकर यूएसए के वीसा बड़ी संख्या में रिजेक्ट किये जा रहे थे।

यूके वाले इस बात के लिए अधिक सतर्कता बरत रहे थे कि विजिटर कहीं वहीं जाकर बस जाने की जुगत में तो नहीं है? सबसे ज्यादा भीड़ खाड़ी के देशों वाले काउंटर पर थी, जबकि जापान वाले काउंटर पर इक्के-दुक्के लोग ही जा रहे थे। हमारे काउंटर पर अधिकांशतः यूके में जॉब करने वाले युवा थे अथवा हमारी तरह गर्मी की छुट्टियाँ बिताने जा रहे सीनियर सिटीजन। पासपोर्ट सहित हमारे सभी कागजात वहाँ जमा करवा लिये गये और बताया गया कि मेसेज मिलने पर वीसा यूके दूतावास दिल्ली में हस्तगत करना होगा।

गर्मी की छुट्टियाँ 1जून से 30 जून तक थीं। हम दोनों 2 जून को बेटी-जमाई के पास सोनीपत पहुँच गये थे और अपने विवाह की वर्षगांठ 3 जून को वहीं मनाई थी। रात की पार्टी में जमाई बाबू के कुछ मित्र सपरिवार शामिल हुए थे। 6 को हमें वीसा सहित पासपोर्ट मिल गया और हम यूके यात्रा के लिए तैयार हो गये। इत्तेहाद की फ्लाइट के लिए 9 जून की शाम का टिकट मिला था। आबूधाबी में फ्लाइट बदलकर अगली सुबह मैनचेस्टर पहुँचना था। आबूधाबी वाली उड़ान में अधिकांश सहयात्री खाड़ी के देशों में काम करने वाले मजदूर वर्ग के लोग थे। यह विमान अंदर-बाहर से बिहार की लोकल ट्रेनों जैसा दिखता था। चारों को 27 किलो चेकइन लगेज और 9 किलो केबिन लगेज का कोटा था।

बेटे-बहू ने गर्म कपड़े लाने से यह कहकर मना किया था कि आवश्यकता होने पर वहीं खरीदे जाएँगे। सो सुधा को छूट मिल गयी थी कि बेटे और बहू की पसन्द की 25 किलो खाद्य सामग्री एक सूटकेस में ले जा सकती हैं। कहलगाँव से हमलोग भरपूर आम लेकर दिल्ली गये थे और उसमें से बचाकर रखे हुए थे। एक और सूटकेस में 15 किलो के करीब लंगड़ा और जर्दालू आम कपड़ों का कुशन बनाकर अच्छे से पैक कर लिया था। कपड़ों के लिए फिर भी बहुत जगह बची रह गयी थी। अँधेरा घिरने के पहले हम दिल्ली एयरपोर्ट से उड़े थे और ढाई घंटे के बाद अँधेरा होने से पहले ही अबूधाबी में लैंड कर गये थे। हमारे हाथों की घड़ी सीधी चल रही थी, पर ग्लोब उसके विपरीत घूम रहा था। हम पश्चिम दिशा में उड़ रहे थे।

आबूधाबी का विहंगम दृश्य बड़ा रोमांचक था। लगा जैसे छोटी नौकाओं से लेकर बड़े जहाजों से भरे समुन्दर के बीच ही कहीं विमान उतर रहा है। वह हवाईअड्डा अपने दिल्ली हवाईअड्डे से अधिक व्यस्त था। वहाँ तीन घंटे के ठहराव के बाद हम मैनचेस्टर वाले विमान में सवार हुए। यह भी इत्तेहाद का विमान था, किन्तु दोनों के मध्य वही अन्तर था जो अपने यहाँ के लोकल और राजधानी ट्रेनों में होता है। इस उड़ान में अधिकांश सहयात्री अंग्रेज थे। इंग्लैंड के समयानुसार लगभग आठ बजे सुबह हम मैनचेस्टर पहुँचे थे। वहाँ मूसलाधार वर्षा हो रही थी जिसके चलते विमान को दस-पंद्रह मिनट तक आसमान में चक्कर काटना पड़ा था और दृश्यता शून्य रहने की वजह से हम शहर का विहंगम दृश्य देखने से वंचित रह गये थे।

प्रतीक्षा कक्ष में बहू और बेटे के इंतजार की घड़ियाँ लम्बी हो रही थीं और इधर निकास द्वार की थकाऊ औपचारिकता हमारे धैर्य की परीक्षा ले रही थी। खैर, वहाँ से दो अलग टैक्सियों में हमलोग वारिंगटन के लिए चले। बारिश अब भी हो रही थी। इंग्लैंड की धरती पर सबसे पहला सरप्राइज था हमारा टैक्सी ड्राइवर अल्ताफ अहमद, जो भारतीय मूल का तंजानिया वासी प्रौढ़ शिक्षित मुसलमान था। हमें हिन्दी में बात करते देख उसने हमसे बातचीत शुरू कर दी थी। लगभग 40 मिनट की उस सड़क यात्रा में उसने अपने और इंग्लैंड के संबंध में बहुत बातें की थीं। हम भी आपसी वार्तालाप छोड़कर उसी से बतियाते रह गये थे।

वारिंगटन में बच्चों के डेरा पहुँचकर स्थिर हुए तो कुछ बिल्कुल अलग-सा महसूस हुआ। लगा जैसे कान नाकाम हो गया है। उड़ान के दौरान मुझे हमेशा कान के सुन्न हो जाने की समस्या रहती है। सोचा, उसी का असर है। पर हमारी आपसी बातचीत तो ठीक सुनाई दे रही थी। जैसे ही चुप्पी होती कि कान भांय-भांय करने लगता था। बेटे ने मेरी जिज्ञासा यह कहकर शांत की, “पापा यह सन्नाटे का शोर है।” सचमुच! यह तो सन्नाटा ही था। कहीं कोई आवाज नहीं। न गाड़ियों का हॉर्न,न कुत्ते के भौंकने की आवाज, न लाउडस्पीकर, न बच्चों की रुलाई और न ही किसी मशीन अथवा बातचीत का शोर। माहौल में इतनी शान्ति थी कि जब हम टहलते हुए शहर के बीचों बीच बहती मर्सी नदी के किनारे पहुँचे तो लहरों की ‘कलकल’ स्पष्ट सुन सकते थे।

बहू ने हमारे यूके भ्रमण का पूरा कार्यक्रम तय कर रखा था। किस दिन किस साधन से क्या-क्या देखने कहाँ जाना है और कहाँ ठहरना है, यानी कि सबकुछ। बिल्कुल चिंता और तनाव से मुक्त रहकर विशुद्ध तफरीह का मज़ा। पहले दिन गपशप करते हुए वारिंगटन शहर का पैदल भ्रमण किया गया। हतप्रभ होने का दूसरा मामला बना ‘रात का उजाला’। टहलते हुए थककर चूर होने पर 10 बजे रात में जब हम डेरा पहुँचे तो शाम के झुटपुटे का नजारा था! खाते-पीते 12 बज गये। एक तो समय में साढ़े पाँच घण्टों के अंतर के कारण ठीक से नींद नहीं आ रही थी और लगभग तीन बजे पेशाब महसूस हुआ तो देखा कि खिड़की पर उषा का उजाला दस्तक दे रहा था।

मैं तो अचंभित होकर घर के बाहर निकल आया था! उसके बाद फिर से सोने का उपक्रम नहीं कर सका था। बाकी के पाँच लोग 5 बजे उठे। छः बजे वेल्स के लिए निकलना था। वहाँ टैक्सी कार सिस्टम बहुत अलग है। ड्राइवर सहित कार का भाड़ा तो बहुत महँगा है, किन्तु केवल कार बहुत ही सस्ती है। शर्त यह कि आपके पास यूके का ड्राइविंग लाइसेंस हो। टैक्सी एजेंसी के कारों के मेले से मनपसंद गाड़ी चुनकर नम्बर नोट कीजिये और काउंटर पर जाकर आईडी प्रूफ जमा करके चाबी लीजिये फिर चल पड़िये अपने गंतव्य स्थान को। स्नेह अच्छा चालक है। सुधा का कहना है कि “मेरा बेटा कार चलाते हुए सबसे सुंदर और स्मार्ट दिखता है।”

कई बार वह पीछे की सीट पर बैठकर अपने मोबाइल कैमरे से उसका फ़ोटो खींचती है। डेढ़ घंटे के ड्राइव के बाद हम 110 किलोमीटर दूर वेल्स के निर्जन इलाके में समुद्र के मशहूर साउथ स्टैक लाइट हाउस (18वीं सदी में निर्मित) के पास प्रकृति के अद्भुत रहस्यमय नजारे का आनंद लेने पहुँचे थे। यह स्थान वेल्स के एंगलेसी द्वीप पर अवस्थित है। खड़ी पथरीली चट्टानों के अर्धचंद्राकार किनारे पर तेज हवाओं से उछाल मारती लहरों का शोर, तीखी ठंडक और पाँव उखाड़ देने को उद्धत हवा का दबाव! सबकुछ बड़ा रोमांचकारी था।

नजरों की हद से बाहर तक विस्तृत कज्जल नीले समुद्र और उसकी नीलिमा से होड़ लेते नीलगगन में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव अलौकिक प्रतीत हो रहा था। समुद्र में यत्र-तत्र तैरते बहुमंजिले क्रूज, मालवाहक पोत और छोटे मोटरबोट तथा अकाश में मद्धम-मद्धम उड़ते सफेद बादलों के टुकड़े; जैसे ऊपर-नीचे के नील सरोवर में तैरते हंसों का झुंड! वहाँ पहली बार झरनों को उर्ध्वगामी बहते देखा। हवा के दबाव से किनारे पर पछाड़ खाती लहरों से उठकर बर्फीला पानी पचास फीट खड़ी चट्टानों पर ऊपर की ओर बहता और अन्दर से दूसरी परत बनाकर नीचे उतरता था। मैं सर्दी का मरीज हूँ। सामान्य से अधिक ठंढक बर्दाश्त नही होती है।

हम सभी गर्म कपड़े पहने हुए थे, पर टोपी के अभाव में मैंने सुधा का दुपट्टा लेकर मुरेठा बाँध लिया था। दिन चढ़ने के साथ-साथ वहाँ पर्यटकों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। दो-ढाई घंटे प्राकृतिक कौतुक के बीच उछलकूद और हँसी-ठिठोली भरा बचपन जीकर हम बैक वाटर कंट्री पार्क रेस्तराँ में नाश्ता करने गये थे। वहाँ सबसे पहले बेटे ने मेरे लिए कान ढँकने वाली टोपी खरीदी थी। वहाँ से लगभग साठ किलोमीटर दूर स्थित वेल्स के एक वार मेमोरियल समारक गये थे। वहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध के कई अवशेष संरक्षित हैं। एक युद्धक विमान और कई टैंकों का भी मलबा है। बहू हमारे गाइड की भूमिका में थी। उसने बताया कि उस स्थान पर इंग्लैंड की तीनों सेनाओं का जर्मन सेना से भयंकर युद्ध हुआ था। उस जगह पर शहीद सैनिकों के लोमहर्षक कारनामों के विवरण सहित नाम पट्टिका लगी हुई है। विशेष रूप से अंग्रेज सैलानी यहाँ आकर अपने गौरवशाली अतीत पर गर्व का अनुभव करते हैं।

इसी कारण यहाँ पर्यटकों की भीड़ में आधे लोग यूके के ही होते हैं। वापसी में हमने स्नोडोनिया नेशनल पार्क, स्वालो फॉल्स आदि का अवलोकन किया। स्नोडोनिया नेशनल पार्क वेल्स के सबसे ऊँचे पहाड़ों पर अवस्थित प्राकृतिक झीलों से अटा पड़ा है। झीलों के ऊपर रूई के फाहों के जैसे तैरते बादल एक जादुई नजारा पेश कर रहे थे। कहीं-कहीं आधा पहाड़ बादलों में उल्टी डुबकी लगाते-से प्रतीत होते थे। दिनभर की भाग दौड़ के बाद लगभग 12 बजे रात में हम वापस आये थे। थकान के कारण अगले दिन बाहर भ्रमण का कार्यक्रम नहीं था। खूब गहरी नींद आयी थी उस रात। 12 जून को सुबह नाश्ता करके हम खाने-पीने की वस्तुओं की खरीदारी करने डेरे के बिल्कुल सामने 200 मीटर दूर ‘टेस्को सेंसबरी’ शॉपिंग मॉल गये। सेंसबरी एक बड़ी शॉपिंग कम्पनी है। यूके के सभी शहरों में इसके आउटलेट्स हैं।

एक ही छत के नीचे दैनिक जरूरतों की सभी चीजें उपलब्ध होती हैं। मैंने गौर किया कि ऑटोमोबाइल और फर्नीचर के सिवा वहाँ सबकुछ था। कच्ची या पकी हुई खाद्य पदार्थों की विभिन्न किस्में देखकर तो हतप्रभ रह जाना पड़ता है। आलू-प्याज आदि की भी कई-कई किस्में। सभी चीजें बोतल, डिब्बा या जालीदार पैकेटों में सीलबंद; एक्सपायरी तिथि, उत्पादन तिथि और उत्पादक के नाम-पते के साथ। वहाँ हमने उस दिन अपने हरियाणा के किसान बंसीलाल के खेत की हरी मिर्च खरीदी थी। सात-आठ प्रकार का दूध जीवन में पहली बार उसी दुकान में देखा। 24 से 72 घण्टों तक एक्सपायरी वाली वस्तुएँ 50 प्रतिशत छूट पर बिक रही थीं।

हममें से कोई मदिरापान नहीं करता, किन्तु मदिरा वाले स्टॉल में हमने सबसे अधिक समय व्यतीत किया। सम्पूर्ण संसार की सभी नामी-गिरामी कम्पनियों की शराब की रंग-बिरंगी डिजाइनर बोतलों को हाथ में लेकर मैंने और सुधा ने फ़ोटो खिंचवाई; जबकि सुधा को शराब से घोर नफरत है। मैं नफरत नहीं करता, इसलिए कि बाबूजी मरणशैय्या पर जाने के पहले तक जीवन पर्यंत ‘दवाई’ पीते रहे थे। दोस्तों के साथ मैंने भी ‘पार्टी’ की थी, किन्तु अनिल जी की त्रासद मृत्यु के बाद इसे त्याग दिया था। वहाँ मुझे एक ही साथ दोनों की बहुत याद आ रही थी। यदि बाबूजी जीवित होते तो उनके लिए उपहार स्वरूप लेकर जाता। वे बहुत खुश होते।

अगले दिन हम इंग्लैंड के सैंकी वैली पार्क घूमने गये थे। झीलों और पहाड़ों के साथ अटखेलियाँ करते बादलों के झुंड यहाँ अद्भुत दृश्य उपस्थित करते हैं। 14 जून को हमने यूके में पहली ट्रेन यात्रा की। बेटे को उस दिन छुट्टी नहीं थी। बाकी पाँचों लोग ‘चेस्टर जू’ भ्रमण करने निकले थे। यह चिड़ियाघर काफी बड़ा है, जिसमें हजारों जीव-जन्तुओं को यथासंभव उनके लिए मुफीद वातावरण बनाकर रखा गया है। उनकी देखभाल के लिए सैकड़ों कर्मचारी यहाँ दिनरात काम करते हैं। सर्द जलवायु में पाये जाने वाले पशु-पक्षियों और कीड़ों-मकोड़ों के प्रत्यक्ष अवलोकन का यह हमारा पहला अवसर था। गर्म और समशीतोष्ण जलवायु वाले जीवों को कृत्रिम माहौल बनाकर रखा गया है।

यूके के पर्यटक उन्हें देखने में रुचि ले रहे थे और एशिया वाले पर्यटकों की भीड़ यूरोपीय जीवों को देखने में मगन थी। 15 जून को पुनः रेल यात्रा करके हम लिवरपूल शहर गये थे। यहाँ का लाईमस्ट्रीट रेलवे स्टेशन 1836 का बना है। आधुनिकीकरण के बावजूद इसकी ऐतिहासिकता को बचाकर रखने का भरपूर प्रयास किया गया है। ऐसा ही नजरिया शहर के प्रति भी अंग्रेजों का है। सम्पूर्ण शहर में ऐतिहासिकता और आधुनिकता का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है। अलग-अलग स्थापत्य कला के दर्शनीय भवनों से यह नगर अटा पड़ा है। समुद्र के तट पर 1854 में निर्मित सैंट जॉर्ज हॉल, द रॉयल लिवर बिल्डिंग, पोर्ट ऑफ लिवरपूल बिल्डिंग और रॉयल अल्बर्ट डॉक पर्यटकों को बरबस आकर्षित करता है।

इस डॉक की खासियत यह है कि जलपोत वेयरहाउस के अंदर तक प्रवेश कर जाते हैं। यहाँ इंग्लैंड के समुद्री योद्धाओं की मूर्तियों के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक पोतों और उपकरणों को संरक्षित किया गया है। शहर की अन्य ऐतिहासिक इमारतों में मेरीटाइम म्यूजियम, बीटल्स पीयर हैंड, रेडियो सिटी टावर आदि मशहूर हैं। इस भ्रमण से पहले इस शहर को मैं काउंटी क्रिकेट और फुटबॉल टीम के कारण जानता था। किन्तु शहर की सड़कों व गलियों में समुद्री पक्षी ‘सी गल’ का साम्राज्य देखकर पुरानी धारणा में नयापन पैदा हो गया। बड़े ढीठ हैं ये पंछी। पर्यटकों के हाथ से निवाला छीनकर सामने के स्ट्रीट लाइट पोस्ट पर बैठकर आराम से खाते हैं। 16 जून को 320 किलोमीटर के चार घंटे के ड्राइव के बाद हम लन्दन गये थे।

लन्दन के पहले विम्बली शहर में बहुमंजिले पार्किंग में अपनी कार पार्क करके वहाँ से टैक्सी ली गयी थी। सबसे पहले बकिंघम पैलेस में महारानी के सुरक्षा गार्ड की अदला-बदली देखने का मौका मिल गया। यह दृश्य देखने को वहाँ पर्यटकों का मेला लगा हुआ था। वहाँ से निकलकर हम टेम्स नदी के दोनों किनारे बसे लन्दन के हृदयस्थल के प्रमुख स्मारकों के अवलोकन करने पहुँचे थे। बिगबैंग, टॉवर ब्रिज, सी लाइफ आदि के अलावा वहाँ स्ट्रीट आर्टिस्टों की प्रस्तुतियाँ देखना काफी मनोरंजक था।

‘लन्दन आई’ के वातानुकूलित काँच के बॉक्स में बैठकर मंथर गति से 445 फीट ऊपर जाने और सम्पूर्ण महानगर का विहंगावलोकन करते हुए नीचे आने के 45 मिनट के उस रोमांचकारी अनुभव को शब्दों में व्यक्त करना काफी मुश्किल है। मोम की मूर्तियों के संग्रहालय ‘मैडम तुसाद’ में भारत की मशहूर हस्तियों की बहुतायत देखकर गर्व का अनुभव होता है। वहाँ विंस्टन चर्चिल के कान उमेठते हुए मैंने फोटो खिंचवाई थी। लगभग दो बजे रात को हम वापस वारिंगटन आये थे। 17 जून को स्कॉटलैंड की यात्रा पर निकले। 150 किलोमीटर दूर लेक डिस्ट्रिक्ट में अवस्थित ‘लेक विंडरमेयर’ नामक बड़ी प्राकृतिक झील देखकर आँखें खुली की खुली रह गयीं।

चारों ओर से ऊँची हरियाली से युक्त पहाड़ों से घिरी यह झील यूके में सबसे बड़ी है। ऊपर नीले आसमान में तैरते सफेद बादलों के झुंड और नीचे कज्जल नीले जल में तैरते सैकड़ों ई-बोट। अद्भुत आनंददायक दृश्य! हमने भी वहाँ बोटिंग की। आजू-बाजू में विचरण करते बत्तख प्रजाति के रंग-बिरंगे पक्षी हमें रोमांचित कर रहे थे। मन भर नहीं रहा था, पर हमें एडिनबर्ग के लिए निकलना था। शाम के 10 बजे एडिनबर्ग में बिल्कुल शांत समुद्र के किनारे स्थित क्लब साइट पहुँचे। वह एकमात्र दोमंजिला होटल पूर्णतः लकड़ियों से निर्मित था। अपने कमरों में सामान रखकर चाय पीने के बाद हम समुद्र तट पर गये। किनारे पर उछलकूद करते हुए क्षितिज पर फैली सूर्यास्त की लालिमा का आनंद लिया था।

हमारे कमरे की खिड़की समुद्र की ओर खुलती थी। मध्य रात्रि में खिड़की से सूरज को समुद्र में डुबकी लगाते देखा और सो गये थे। पुनः लगभग साढ़े तीन बजे कमरे में उषा की लाली फैल गयी थी। यह देखकर मेरे होश उड़ गये थे कि जिस स्थान पर सूर्यास्त हुआ था, उसके पास ही थोड़ा कोण बदलकर सूर्योदय भी हो रहा था। यह अचम्भा मन को उद्वेलित किये हुए था। तुरंत मैंने अपने विश्वविद्यालय के भूगोल के प्रोफेसर एस एन पांडेय को व्हाट्सएप पर कॉल लगाकर पूछा। उन्होंने कहा कि “अभी आप पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध के ऊपरी हिस्से में हैं। इस मौसम में वहाँ रात बमुश्किल साढ़े तीन घंटे की होती है और सूर्यास्त व सूर्योदय दोनों एक ही दिशा में होता है। ठीक से समझना हो तो ग्लोब लेकर समझिये। लौटकर आइये तो और अच्छे से समझा दूँगा। अभी माथापच्ची में न पड़कर प्राकृतिक नजारों का मजा लीजिये।”

सुबह का नाश्ता करके हम प्राचीन शहर इनवरनेस के लिए निकल पड़े थे जो वहाँ से 250 किलोमीटर दूर है। इस सड़क मार्ग को दुनिया में सबसे सुंदर माना जाता है। लगा कि ठीक ही है। सपनों की दुनिया जैसा अलौकिक सड़क मार्ग! घने जंगलों और पहाड़ों के बीच से गुजरता सिक्स लेन हाइवे जो कहीं भी जमीन की सतह से ऊँचा नहीं है। कार ड्राइव करने को मन कचोटता रहा पर वहाँ के लाइसेंस के बिना यह असम्भव था। इनवरनेस में चौबीस घण्टे के लिए थ्री बीएचके का एक फर्निश्ड फ्लैट बुक किया गया था। जब हम वहाँ पहुँचे तो मालिक मकान दम्पती घर की साफ-सफाई कर रहे थे। आधे घंटे के इंतजार के बाद उन्होंने हमें घर सुपुर्द कर दिया। घर होटल से भी अधिक स्वच्छ था। कीचेन में खाने-पीने की सभी वस्तुएँ और साधन से युक्त घर था वह। घर में अधिक समय गँवाये बिना हम शहर घूमने निकल गये।

वारिंगटन और लंदन की तरह ही इस शहर के बीचोंबीच नेस नदी बहती है। लगभग पाँच किलोमीटर लम्बे शहर में नदी पर पाँच पुल हैं। दो पुल दो-ढाई सौ साल पुराने हैं। एक पुल सौ वर्ष का है और शेष दो आधुनिक हैं। सभी में अलग-अलग इंजीनियरिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। शहर में भी प्राचीन और आधुनिक इमारतों का मिश्रण है। भारतीय मूल के लोगों की अच्छी आबादी है। इस कारण भारतीय व्यंजनों वाले कई रेस्टोरेंट हैं। हमने जिस रेस्टोरेंट में डिनर लिया, उसके कई कर्मचारी बंगाली थे। सुधा को उन्होंने बेखटके टोक दिया और धड़ल्ले से बांग्ला में बतियाने लगे। यह देखना बड़ा सुखद था।

शहर के मध्य भाग में ‘इनवरनेस केस्टल’ नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक भवन है जो विलियम शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ का घटनास्थल है। यह नगर शेक्सपीयर के नाम से भी जुड़ा है। नदी के दाहिने किनारे पर परंपरागत बैगपाइपरों के कई भवन हैं जहाँ शाम में अभी भी संगीत की महफिल सजती है। एक दिन और एक रात के ठहराव में हमने पैदल ही नगर का चप्पा-चप्पा छान मारा था। अगले दिन मार्ग बदलकर वापसी में 130 किलोमीटर दूर ग्लेनको गाँव पहुँचे थे। यह गाँव परम्परा और आधुनिकता के मिश्रण के चलते पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। गाँव के बीचोंबीच एक फूस का घर है। वहीं हमने अपनी कार पार्क की थी और घूम-घूमकर घर को निहारा था।

गाँव के बाहर एक झरना बहता है जिसपर बनी पुलिया पार करके लोग पहाड़ी जंगलों के बीच अवस्थित लॉकनेस झील देखने जाते हैं। चारों तरफ से ऊँचे वृक्षों से घिरी यह झील इतनी शांत है कि इसमें एक छोटी लहर भी नहीं उठती। पानी में वृक्षों की प्रतिच्छाया अलौकिक दृश्य उपस्थित करती है। समय की कमी न हो तो यहाँ घण्टों गुजारा जा सकता है। उस गॉंव में एक रात गुजारकर हम सुबह यूके के सुन्दरतम राष्ट्रीय उद्यानों से भरे 500 किलोमीटर लम्बे सड़क मार्ग से वापसी के लिए चले थे। स्वप्निल प्राकृतिक दृश्यों के सम्मोहन में बंधकर घंटे दो घंटे में कहीं रुक जाते फिर चल पड़ते थे। कई राष्ट्रीय उद्यानों की शृंखला में एक ‘AONB’ यानी एरिया ऑफ नेचुरल ब्यूटी नामक इलाका है।

देखकर लगा कि धरती पर स्वर्ग का उतर आना इसी को कहते होंगे! सचमुच में! 500 किलोमीटर के ड्राइव के कारण बेटा बहुत थक गया था और हमसब भी। इस कारण अगले दिन आराम किया गया। सुधा ने बच्चों की पसंद का खाना बनाने में सारा दिन खर्च कर दिया था। अगले दिन ‘आइकिया’ कम्पनी के शो रूम में खरीदारी की गयी। यह कम्पनी घरेलू उपयोग में आने वाले लकड़ी के फोल्डिंग फर्नीचर बनाती है। ग़ज़ब की तकनीक और डिजाइन! छोटी-बड़ी सभी चीजें गत्ते के डब्बों में बन्द करके सूटकेस में ले जाने लायक। फेब्रिकेशन के लिए नक्शा और टूल्स भी साथ में। किफायती इतनी कि खरीदते मन न भरे।

हवाई यात्रा नहीं करनी होती तो न जाने हम क्या-क्या खरीद लाते! अगले दिन स्नेह के सहकर्मी किरोन फिशर सपरिवार लंच पर हमारे घर आये। वे स्नेह को ‘ब्रदर फ्रॉम अनदर मदर’ कहते हैं। हमें यह कहकर आभार प्रकट किया कि “आपके बेटे ने मुझे ड्रेस सेंस सिखाया है।” उन्होंने जबरन बिहारी भोजन का न्योता लिया था। उनकी संगिनी और चार साल का इकलौता बेटा साथ था। उन्होंने अभी शादी नहीं की थी। सुधा, प्रीति और सौम्या ने मिलकर कई मसालेदार भारतीय व्यजंन बनाये थे। जलन से ‘सी-सी’ करते और पसीना पोंछते उन्होंने खूब सारा खा लिया था। भोजन के अंत में किरोन ने हँसते हुए कहा था, “अब समझ में आया कि आप लोग पोंछने के बदले धोते क्यों हैं!” हमलोग खूब बतियाये थे।

उनके साथ बिताया लगभग छः घंटे का समय यादगार बन कर रह गया है। 24 जून को हम मैनचेस्टर शहर घूमने गये थे। हमारी वापसी के बाद बेटे-बहू को इसी शहर में शिफ्ट होना था। उन्हें अपना फ्लैट भी फाइनल करना था। यह शहर कपड़ा मिलों के कारण इतिहास में प्रसिद्ध है। शहर बड़ी फैक्ट्रियों, ऐतिहासिक और आधुनिक इमारतों का मिश्रण है। मुख्य सड़कों पर ट्राम और बसें चलती हैं। एक बड़े कैनाल में मोटर बोट चलते हैं। अच्छी-खासी संख्या में लोग यातायात के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। नगर के बीचोंबीच एक बड़ा मॉल है जिसमें हमने कपड़ों की खरीदारी की। स्नेह ने वहाँ मेरे लिए एक पाकिस्तानी और एक बांग्लादेशी सूती टी शर्ट ली, जो अबतक मेरी फेवरेट हैं और उन्हें बचा-बचाकर पहनता हूँ।

अपनों के पास जाना हमेशा सुखकर होता है, पर उन्हें छोड़कर लौटना काफी तकलीफदेह। वापसी के लिए पैकिंग करते हुए माहौल बहुत भारी हो गया था। हँसी-मजाक बिल्कुल बंद हो गया था। केवल जरूरी बातें और हाँ-हूँ से काम चल रहा था। अहले सुबह बेटे-बहू को छोड़कर चारों को मैनचेस्टर निकलना था। खाते-पीते रात के 12 बज चुके थे। बिछावन पर जाने के समय एक हृदयविदारक खबर व्हाट्सएप पर मिली कि हमारे बड़का पाहुन का निधन हो गया है। बाबूजी के बाद वे हमारे परिवार के प्रमुख सदस्य थे। मेरे जीवन में उनका बहुत खास महत्त्व था। मेरी पढ़ाई से लेकर शादी तक में उनकी निर्णायक भूमिका रही थी। कहलगाँव बस जाने पर उनकी छत्रछाया प्राप्त थी। सात समुंदर पार उनके देहांत की सूचना बहुत कचोट रही थी। उनकी स्मृतियों ने नींद उड़ा दी थी। कितनी बड़ी मजबूरी थी कि पाहुन के अंतिम दर्शन भी असंभव थे।

सुबह डेरा छोड़ते समय हम इतना दुखी थे कि औपचारिक बातचीत तक नहीं हो पायी थी। उसी गुमसुम और गमगीन अवस्था में हम मैनचेस्टर एयरपोर्ट पहुँच गये। चेकइन के बाद व्हाट्सएप पर ऑडियो कॉल करके परिजनों से पाहुन की मृत्यु से सम्बंधित बातें करते रहे थे। इस बार टर्किश एयरलाइंस का फ्लाइट था। इस्ताम्बुल में साढ़े तीन घंटे के ठहराव के बाद विमान बदलना था। लॉन्ज में बैठे हुए हम लगातार विमानों की लैंडिंग देखते रहे थे।

कहते हैं कि इंग्लैंड का हीथ्रो हवाई अड्डा सबसे बड़ा और व्यस्त है; पर इससे भी व्यस्त क्या होगा? लैंडिंग और टेकऑफ की तो यहाँ लाइन लगी हुई थी। हरेक मिनट सामने के रनवे पर प्लेन उतर रहे थे और दूर दूसरे रनवे से उड़ रहे थे। ऐसे एयरपोर्ट पर ट्रैफिक कंट्रोल कितना मुश्किल होता होगा! वहाँ से लगभग चार घंटे की उड़ान के बाद हम सूर्योदय के समय नई दिल्ली पहुँच गये थे। इधर दिल्ली से हम सोनीपत जा रहे थे और वहाँ कहलगाँव में बड़का पाहुन की शवयात्रा निकल रही थी। फोन पर लोग हमें शवयात्रा की रनिंग कमेंट्री सुना रहे थे। (क्रमशः)

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पवन कुमार सिंह

मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे लेखक जयप्रकाश आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और हिन्दी के प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919431250382, khdrpawanks@gmail.com
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