दास्तान-ए-दंगल सिंह (93)
बड़हिया स्थानांतरण प्रकरण के कारण मेरा विश्वास अच्छे कर्मों, सेवा और समर्पण भाव पर से जैसे उठ-सा गया था। कॅरिअर के प्रति उत्साह लगभग शून्य पर पहुँच गया था। मन ऐसा टूट गया था कि कॅरिअर एडवांसमेंट स्कीम के लिए जरूरी काम करने में कोई रुचि नहीं रह गयी थी। सोच, विचार और विमर्श में नकारात्मकता हावी हो गयी थी। अपने लिए या संस्थान के लिए कुछ भी अच्छा करने का मन नहीं होता था। बोली में मिठास की मात्रा कम हो गयी थी। अपेक्षाकृत अधिक सक्षम लोगों के प्रति मेरा व्यवहार रूखा हो गया था। बिना लाग लपेट के पलटकर जवाब दे देने की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। बहुत कुछ मेरे स्वभाव के विपरीत हो रहा था, जिससे मेरे हितैषीगण खासकर सुधा को बहुत चिंता होती थी। वह मुझे संभालने का भरसक प्रयत्न कर रही थी। एक बात अच्छी यह कि दुखी और पीड़ित लोगों के प्रति मेरी संवेदनशीलता और उनकी मदद करने की इच्छाशक्ति में काफी बढ़ोतरी हो गयी थी। किसी के द्वारा सताए गये लोग सगे लगने लगे थे और उन्हें सताने वाले दुश्मन प्रतीत होने लगे थे। इस परिवर्तन का असर यह हुआ कि मेरी पत्रकारिता अधिक जनपक्षधर होती चली गयी। एनटीपीसी से जुड़ी खबरों के संकलन में मेरा रुख अपेक्षाकृत अधिक आक्रामक हो गया था। ठेका मजदूरों की पारिश्रमिक और देय सुविधाओं में कटौती, उनकी भविष्य निधि के घोटाले, भूविस्थापितों के पुनर्वास और क्षेत्र के पर्यावरण व पारिस्थितिकी के नुकसान आदि मुद्दों पर मेरा ध्यान अधिक केंद्रित हो गया था। इस कारण कुछ ठेकेदारों और एनटीपीसी के अधिकारियों से मुँहफुलौअल हो गया था। अब जब कभी परियोजना क्षेत्र घूमता, लोगों से मिलता या प्रेसवार्ता में जाता था तो लोग पहले की तरह खुलकर बात नहीं करते थे। कछुए की तरह अंदर सिमट जाते अथवा छूते ही छुईमुई हो जाते। मजदूर संघों के कुछ नेताओं को मेरी इस मनोदशा का खूब फायदा मिल रहा था।
इधर सुधा की लगन और मेहनत से घर का ढाँचा खड़ा हो गया था। लेकिन ढाँचा बनने के पहले चरण में जब पहली छत की ढलाई पूरी हो गयी थी और दूसरे तल के लिए दीवार जोड़ने का काम चल रहा था, स्टोर रूम का ताला तोड़कर चोरी कर ली गयी। लगभग ढाई क्विंटल सरिया, एक वाइब्रेटिंग मशीन और एक दीवान (पलंग की चोरी हुई थी। रात में रखवाली के लिए हमने मुहल्ले के ही जितेन्द्र महोली को नियुक्त कर रखा था। वह अपने वृद्ध पिता को वहाँ सुलाता था। पिता का कहना था कि चोरों ने उन्हें पकड़कर बांध दिया और ठेले पर सामान लादकर ले गये। सूचना देने पर पुलिस ने प्रहरी जितेन्द्र को गिरफ्तार कर लिया, जिसका मुझे बहुत अफसोस हुआ। आसपास के लोगों से मुझे कुछ सुराग हाथ लगा, जो मैंने पुलिस को साझा कर दिया और स्वयं चोरों के मुहल्ले में पहुँच गया था। शिवकुमारी पहाड़ी की ढलान पर और उससे लगे मेरे कॉलेज की जमीन पर अवैध रूप से बसे मुहल्ले में आधे से अधिक लोग अपराधी हैं। मैं वहाँ पहुँचा तो कुछ परिचित चेहरे पास जुट आये। मैंने उन्हें स्पष्ट रूप से बता दिया कि उनके टोले के चोरों ने मेरे घर में चोरी की है। चोरों को पकड़ने में भले लोगों का सहयोग मिलेगा तो ठीक, नहीं तो जौ के साथ घुन पिसेगा।
मैं लोकलाज छोड़कर जी जान से जुट जाऊँगा और मुहल्ले को उजाड़ दिया जायेगा। मेरी धमकी का असर हुआ और मुझे कुछ और सुराग हाथ लग गये। संयोगवश उसी दिन अनुमंडल पुलिस कार्यालय में एसएसपी भागलपुर क्राइम मीटिंग कर रहे थे। मैं बेझिझक उस मीटिंग में घुस गया और विवरण सहित अपने घर चोरी की पूरी कथा बता दी। तत्कालीन एसडीएम श्री अनिरुद्ध प्रसाद सिंह से मेरे अच्छे ताल्लुकात थे। उनसे जाकर मिला तो उन्होंने एसडीपीओ से बात की। उच्चाधिकारियों से थानाध्यक्ष एन एस चौहान को टास्क मिला कि मेरे द्वारा जुटाए गये सुराग के आधार पर कार्रवाई करें। गंगा पार तिनटंगा गाँव से उजाड़कर भगाया गया अपराधी धर्मेंद्र यादव चोर गिरोह का सरगना था। वह शिवकुमारी पहाड़ी पर अलग अलग दो घर बनाकर दो रखैलों के साथ रहता था। एक घर में उसकी माँ भी रहती थी जो महिला चोर गिरोह चलाती थी। कुछ महीनों पहले धर्मेंद्र एक ट्रक गैस सिलेंडर चुराकर घर से बेच चुका था।
पड़ोसियों में उसका इतना खौफ था कि सारे सिलेंडर बिक जाने के बाद ही आसपास के लोग जान पाये थे। पुलिस ने उसके दोनों घरों में छापेमारी की। वहाँ मेरे घर से चोरी गया एक भी सामान बरामद नहीं हुआ, किन्तु बीएसएनएल और बिजली विभाग के हजारों रुपये के सामान मिले थे। आक्रोशित मुहल्ले वालों ने पुलिस के सामने ही उसका घर उजाड़ दिया था। उसकी माँ और रखैलें पहले ही फरार हो गयी थीं। अगली सुबह मेरे कॉलेज के वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ0 कुंज बिहारी सिंह के पुत्र निक्कू ने आकर बताया कि उसके घर के पीछे गड्ढे में झाड़ियों के बीच मेरे घर से चोरी गयी चीजें फेंकी हुई मिली हैं। सामने के मुहल्ले शिवपार्वती नगर में मेरे निर्माणाधीन घर से लगभग एक सौ मीटर दूर मेरा सब सामान चोरों ने पिछली रात फेंक दिया था। वहाँ गया तो तमाशबीनों की भीड़ लगी हुई थी। सारे लोग मेरी बड़ाई कर रहे थे। “इसे कहते हैं दबंगई! चोरों को सामान लौटना पड़ा। ऐसे दो-चार लोग समाज में हो जाएँ तो अपराध बन्द हो जाए।” किन्तु सामान मिल जाने के बावजूद मेरे घर नहीं आ सका। उन्हें पुलिस ले गयी क्योंकि केस दर्ज कर लिया गया था। अदालत का चक्कर लगाने के बाद डेढ़ माह में चीजें वापस लौट सकीय थीं। फिर जितेंद्र महोली के पक्ष में बयान देकर उसे भी जेल से निकाल लिया था। दो साल बाद शातिर बदमाश धर्मेंद्र से हिसाब चुकता करने का अवसर मिला, जिसकी कहानी आगे लिखूँगा। अभी केवल इतना बता देता हूँ कि उसे मैंने गोली मारकर घायल किया और कहलगाँव छोड़ने को बाध्य कर दिया था।
घर के तीनों तलों की छत और दीवारें बन गयी थीं। प्लास्टर, लकड़ी, ग्रिल और बिजली वायरिंग आदि का काम बच गया था, जिसके लिए उस समय मेरे पास पूंजी नहीं रह गयी थी। पूंजी का पूरा बहाव बेटे की पढ़ाई की ओर था। गाँव से लेकर कहलगाँव तक के कई हितैषियों की राय थी कि पूर्वजों की विरासत से कुछ पैसे जुगाड़ कर लूँ। पर मेरा प्रण था कि चाहे जितना भी अभाव झेलना पड़े, जो कुछ करूँगा वह अपनी कमाई से करूँगा पर पूर्वजों की जमीन नहीं बेचूँगा। मकान भाड़ा में पैसे खर्च करना काफी अखरने लगा था। मन में आया कि अर्धनिर्मित घर में ही बसेरा कर लें और धीरे धीरे घर का काम किस्तों में करते जाएँ। सुधा सहमत थीं नहीं तो इस फैसले पर अमल करना असंभव था। अनैतिक कार्य न हो तो मैं ‘लोग क्या कहेंगे’ फोबिया से मुक्त रहा हूँ। घर का निचला तल केवल पिलर और कॉलम पर खड़ा और बिल्कुल खुला था। ऊपरी दो तलों को मिलाकर डुप्लेक्स बनाया था। उसमें प्रवेश के लिए दो दरवाजे थे। उन दोनों में फाटक लगवाकर और बाकी के सभी खिड़की-दरवाजों में ईंट की जाफरी बनवाकर हमने गृह प्रवेश का कार्यक्रम बना लिया। 22 नवम्बर 2005 को विधिवत पूजा-पाठ करके हमने गृह प्रवेश कर लिया। डेढ़ साल तक बिना प्लास्टर के घर में रहे, फिर प्लास्टर और दरवाजे-खिड़कियों का काम करवाकर बिना रंग-रोगन के डेढ़ साल रहे। अगली क़िस्त में दीवारों-छतों पर रंग और लकड़ियों पर पॉलिश का काम करवाया। छूटे-बढ़े फिनिशिंग का काम रुक-रुककर अबतक करवा रहे हैं। इसी क्रम में धीरे धीरे बागवानी भी सजती गयी।
घर बनाना शुरू करने से पहले 70 फीट गहरा कुआँ खुदवाया था जिसमें 12 फीट से अधिक पानी था। हरेक साल कुएँ का जलस्तर घटता गया। 2011 ईस्वी तक वह कुआँ लगभग सूख गया और डीप बोरिंग करवाने की नौबत आ गयी। एक पत्रकार और शिक्षक होने के नाते मैं पहले भी भूमिगत जलस्तर को लेकर जागरूक था तथा समाज के लोगों व अपने विद्यार्थियों को जल-संरक्षण के लिए प्रेरित किया करता था। किन्तु अपने कुएँ का जलस्तर घटने के साथ साथ इस काम के लिए मेरा रुख निरन्तर आक्रामक होता चला गया। आमजन में यह धारणा है कि भूगर्भीय जलस्रोत अक्षय और असीमित है। इस गलत मानसिकता में लोग पानी की कीमत नहीं समझते हैं और बेरहमी से इसकी बर्बादी करते हैं। मेरे लिए यह बात बर्दाश्त के बाहर है। जहाँ कहीं भी बेमतलब पानी बहता देखता हूँ तो झगड़ा करने को उतारू हो जाता हूँ। पानी टंकी से ओवर फ्लो रोकने के लिए मात्र डेढ़-दो सौ रुपये का इलेक्ट्रिकल डिवाइस आता है जो टंकी के भरते ही घर में शोर मचाने लगता है। इस यंत्र के उपयोग से भी दस प्रतिशत पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। इस यंत्र को लगाने के लिए लोगों से मिलकर बात करता हूँ। वर्षा जल के संग्रह के लिए अभियान चला रहा हूँ। ‘प्यासी धरती’ नाम से फेसबुक समूह बनाकर लोगों को इस अभियान से जोड़ रहा हूँ। अपने घर में छत से जल-निकास वाले पाइपलाइन को जोड़कर कुएँ में डाल दिया है। कुल 1400 वर्गफीट छत के माध्यम से सालों भर होने वाली बारिश के पानी को कुएँ में डालता हूँ। जहाँ भी नया घर बनते देखता हूँ, वहाँ जाकर मालिक मकान से मिलता हूँ और उन्हें ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम’ बनाने के लिए प्रेरित करता हूँ। आवश्यक होता है तो अपना घर दिखाता हूँ। कोई मेरी बात मान लेता है और अधिकांश लोग नहीं मानते हैं पर मैं हतोत्साहित नहीं होता हूँ। अबतक के अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यदि दस-पंद्रह प्रतिशत लोग भी वर्षा जल संग्रह करने लगें तो भूजल संकट समाप्त हो सकता है।
(क्रमशः)