दास्तान-ए-दंगल सिंह (91)
बीएनएम कॉलेज बड़हिया जॉइन करने के बाद मेरा और सुधा का घोर तप या संघर्ष शुरू हो गया था। रात के ढाई बजे घड़ी की एलार्म के साथ हम दोनों बिछावन छोड़ देते। मैं नित्य क्रिया के साथ यात्रा की तैयारी में लगता और सुधा मेरे लिए दिनभर के लिए तीन टिफिन बॉक्स तैयार करती थीं। एक टिफिन सुबह के नाश्ते का, दूसरा दिन के भोजन का और तीसरा शाम के जलपान का जिसमें अनिवार्य रूप से भूजा होता था। भोर के 3:30 बजे घर से निकलकर डेढ़ किलोमीटर पैदल चलता और हावड़ा-गया एक्सप्रेस में सवार हो जाता था। सात से साढ़े सात बजे के बीच गाड़ी किउल जंक्शन पहुँचती। वहाँ उतरकर एक निश्चित जगह पर अवस्थित बेंच पर बैठता और पहला टिफिन बॉक्स खोलकर नाश्ता कर लेता था। वहीं गुमटी से चाय लेकर पीता और पान खाने के बाद दानापुर इंटरसिटी की प्रतीक्षा करने लगता था। दैनिक यात्रा के इस कठिन अभ्यास से मैं एक पाठ खूब अच्छे से सीख गया। पहले ट्रेन लेट होने से मुझे बहुत तनाव होता था। सिर में तेज दर्द हो जाता था। उस समय भागलपुर से जमालपुर के बीच के दर्जनों दैनिक यात्रियों से परिचय हो गया था, जिनमें से अधिकांश बैंककर्मी थे। उन्हीं में से एक ने मुझे एक दिन तनावग्रस्त देखकर गुरुज्ञान दिया था, “सर जी, इतना सोचियेगा तो शुगर जकड़ लेगा। उन्हीं बातों पर सोचिये जो अपने वश में हों। गाड़ी लेट हो तो सीटी बजाइये और गाड़ी छूट जाये तो डांस करिये। मस्त रहिये महाराज!” ऐसा अभ्यास करने में थोड़ा समय लगा, पर इस मामले में मेरी मानसिकता बिल्कुल बदल गयी।
इंटरसिटी एक्सप्रेस भागलपुर से सुबह 5:25 बजे चलती थी। उसमें भागलपुर से प्रो0 नरेंद्र शर्मा सवार होते थे। जमालपुर जंक्शन में प्रो0 संजय कुमार भारती उनके साथ हो जाते थे। बोगी और सीट निश्चित थी। मैं किउल में उन दोनों के साथ हो जाता था। लगभग साढ़े नौ बजे हम बड़हिया स्टेशन पर उतरते थे। थोड़ा आगे या पीछे पटना की ओर से विक्रमशिला एक्सप्रेस आती थी, जिससे प्रो0 परमानंद सिंह, प्रो0 उपेन्द्र शर्मा और प्रो0 आनंदी कुमार उतरते थे। लगभग दो किलोमीटर की पदयात्रा करके हम बड़हिया बाजार के अंतिम छोर पर पहुँचते थे जहाँ से कॉलेज जाने का रास्ता शुरू होता है। उसी मोड़ पर एक चाय की दुकान में हम ‘अमेरिकन सिस्टम’ में चाय पीते थे और कॉलेज चले जाते थे। तीन स्थानीय प्रोफेसर थे, प्रभारी प्रो0 नरेंद्र कुमार सिंह, प्रो0 कृष्ण वल्लभ सिंह और प्रो0 शिव औतार सिंह। कॉलेज बड़हिया बाजार और श्मशान के बीच बिल्कुल जनशून्य इलाके में गंगा नदी के बालूचर पर है। इसका सबसे अधिक उपयोग उस समय मुर्दा जलाने वाले लोग करते थे। धूप-ताप या खराब मौसम में शरण लेने और कटिहारी भोज करने लिए श्मशान घाट की एकमात्र जगह है वह कॉलेज। विद्यार्थी एक भी पढ़ने नहीं आता था। इंटरमीडिएट में लगभग डेढ़ सौ और डिग्री में लगभग चार दर्जन छात्र नामांकित थे उस समय। एक दिन इंटर परीक्षा का फॉर्म भरने आये चार-पाँच छात्र बरामदे पर जमा थे। मैंने उन्हें क्लास में बैठाकर राष्ट्रभाषा का पाठ्यक्रम समझा दिया। लौटकर स्टाफरूम में आया तो सभी ने आइंदा ऐसा करने से मना कर दिया था। “पवन बाबू, आप तो देर-सबेर लौट ही जाइयेगा। हम लोगों के लिए संकट मत खड़ा करिये।”
दस बजे से ग्यारह बजे के बीच सभी प्राध्यापक स्टाफ रूम में जमा हो जाते और विश्वविद्यालय में हो रही उथल-पुथल से सम्बंधित सूचनाओं पर चर्चा करते थे। उन दिनों विश्वविद्यालय में आक्रमण और प्रत्याक्रमण का भीषण दौर चल रहा था, इस कारण सभी के पास कहने के लिए बहुत कुछ होता था। घंटा दो घण्टा कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चलता था। बारह बजे के आसपास एक साथ सबका टिफिन बॉक्स खुलता। एक-दूसरे का टिफिन मिल-बाँटकर खाते थे। बीस रुपये मासिक अंशदान पर हमारा ‘टी क्लब’ संचालित था। आदेशपाल चंद्रमौली चाय बनाकर पिलाता फिर हम वापसी के लिए रेलवे स्टेशन प्रस्थान कर जाते थे। उस समय वहाँ से कहलगाँव के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। किसी तरह बड़हिया से किउल आते। वहाँ भूजा वाला तीसरा टिफिन खाता था। फिर किउल से संयोगवश कोई सीधी ट्रेन मिले तो मिले, अन्यथा जमालपुर आते और वहाँ से किसी गाड़ी से कहलगाँव। प्रतिदिन सवा तीन सौ किलोमीटर की रेलयात्रा। कुल मिलाकर ऐसी दिनचर्या बन गयी थी कि अधिकांश बार बेटी को नींद में छोड़कर घर से निकलता था और जबतक लौटता, वह सो चुकी होती थी।
घर बनाने का काम चल रहा था। सुधा की परेशानी का कोई ओर-छोर नहीं था। भोर ढाई बजे उठकर तीन टिफिन तैयार करना। फिर बेटी को तैयार करके स्कूल भेजना। खाना पकाना और घर संभालना। दिन भर राजमिस्त्री और मजदूरों के पीछे लगी रहना और निर्माण सामग्रियों की व्यवस्था देखना। इतना सारा काम वह देखती थी और मैं कोई मदद नहीं कर पाता था। बड़हिया से लौटकर रात में टॉर्च की रोशनी में दिनभर की प्रगति देख भर लेता था। उधर समय बीतने के साथ-साथ प्रभारी प्राचार्य नरेंद्र बाबू का व्यवहार मेरे प्रति निरंतर रूखा होता जा रहा था। दरअसल उनकी किसी प्राध्यापक से पटती नहीं थी। मुझसे उनकी अपेक्षा थी कि मैं प्राध्यापकों के साथ नहीं, बल्कि उनके पास बैठूँ, जो मुझसे नहीं हो पाता था। महंगे संस्थान में बेटे की पढ़ाई और गृह निर्माण के कारण मैं अर्थाभाव से जूझ रहा था। ऐसे में मैंने बैंक से गृह ऋण लेने का निश्चय किया था। बैंक के प्रपत्र में संस्थान के प्रधान के हस्ताक्षर की जरूरत थी। मैं प्रपत्र लेकर उनके पास गया तो उन्होंने साफ मना कर दिया, “मैं साइन नहीं करूँगा, नहीं करूँगा।”
“इसका क्या मतलब समझूँ सर?”
“यह मतलब समझिये कि आप मेरे गुट में नहीं हैं। इसलिए आपको जितनी तकलीफ दे सकता हूँ, दूँगा।”
फिर मैंने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से हस्ताक्षर लेकर लोन ले पाया था। उस घटना के बाद मैं नरेंद्र बाबू से पूरी तरह से कट गया था। शिक्षक संघ की बैठकों में काफी आक्रामक और मुखर होकर प्रभारी और कुलपति की निंदा करने लगा था। संघ में पीड़ित लोगों की सक्रियता काफी बढ़ गयी थी। पीड़ित पक्ष का संख्या बल बढ़ जाने से संघ का पलड़ा भारी पड़ने लगा था। प्रो0 शारदा प्रसाद सिंह, प्रो0 अर्जुन यादव, प्रो0 अरुण कुमार सिंह, प्रो0 गुरुदेव पोद्दार आदि ने लड़ाई का बड़ा मोर्चा खोल दिया था। कुलपति जी शिकंजे में फँसते जा रहे थे। वे जैसे-जैसे कमजोर पड़ रहे थे, चाटुकार और चमचे उनका साथ छोड़कर विरोधी खेमे में शामिल होते जा रहे थे। इसी प्रकरण में एक बैठक के दरम्यान शारदा बाबू ने एक बड़ी बात कही थी कि “लड़ाई का मुद्दा यदि सही है तो रावण से भी लड़ जाइये; आपकी जीत निश्चित है। यदि मुद्दा सही न हो तो पिद्दी से भी हार जाइयेगा।” सचमुच कुछ दिन झेलने के बाद कुलपति प्रो0 राम आश्रय यादव हार गये थे और बेआबरू होकर उन्हें रातोंरात भागलपुर छोड़ना पड़ा था।
प्रो0 यादव की बर्खास्तगी के बाद भागलपुर के आयुक्त श्री अशोक चौहान को कुलपति का प्रभार सौंपा गया था। उनपर एक बड़ी जिम्मेदारी यह थी कि सताए गये लोगों को राहत देकर विश्वविद्यालय में शांति, सौहार्द और विश्वास का माहौल बनाएँ। प्रतिकुलपति प्रो0 अजित कुमार सिन्हा के साथ बेहतर तालमेल बना कर यह काम किया जा सकता था। चौहान जी के प्रभार लेने के तुरंत बाद सदानन्द बाबू ने उन्हें फोन करके मुझे कहलगाँव वापस लाने का आग्रह किया था। पत्रकार मित्र श्री राम प्रकाश गुप्ता ने एक शाम मेरी और प्रो0 रमन सिन्हा की चौहान जी से मुलाकात करवायी थी। परिचय के बाद उन्होंने मुझसे सीधा सवाल किया था, “आप कुर्मी हैं कि राजपूत?”
“क्यों पूछ रहे हैं सर?”
“इसलिए कि गुप्ता जी ने कहा है कि आप राजपूत हैं और सदानन्द बाबू ने फोन किया था कि आप उनके बहनोई हैं! आखिर माजरा क्या है?” मैंने उन्हें बताया था कि राजपूत कुल में पैदा हुआ हूँ। ससुर जी का प्रिय शिष्य होने के नाते सदानन्द बाबू मुझे बहनोई मानते हैं, यह उनका बड़प्पन है। चौहान जी ने आश्वस्त किया कि हम दोनों आवेदन दें। वे तबादला कर देंगे।
इसी तरह से एक दिन बड़हिया कॉलेज के पिउन चंद्रमौली ने मुझसे स्टाफ रूम में कई लोगों के बीच पूछा था, “सर, एक बात पूछें, बुरा तो नहीं मानियेगा?”
“पूछो चंद्रमौली। बुरा नहीं मानूँगा।”
“सर आप कौन जात के हैं? राजपूत हैं कि भूमिहार या कुर्मी?”
“ऐसा क्यों पूछ रहे हो भाई?”
“सर ऑफिस में सब बाबू लोग में बतकुट्टी होता है। बड़ा बाबू कहते हैं कि कुर्मी है, सदानन्द सिंह पैरवीकार हैं। छोटा बाबू का कहना है कि भूमिहार है तभी तो बड़हिया भेजा गया है। मगर एकाउंटेंट बाबू अलगे तर्क देते हैं। कहते हैं कि जरूर राजपूत है तभी तो एतना झेल रहा है पर झुकता नहीं है।” मैं टालना चाहता था, पर उसे बताना ही पड़ा। एक दिन पटना जाते हुए चौहान जी औचक निरीक्षण के लिए कॉलेज पहुँच गये। प्रभारी सहित लगभग सभी लोग उनके पीछे दौड़ पड़े किन्तु मैं प्राध्यापक कक्ष में बैठा रहा कि जबतक बुलाया न जाए, नहीं जाना चाहिए। वही हुआ भी। चौहान जी ने पूछ दिया, “प्रो0 पवन सिंह नहीं आये हैं क्या?” किसी ने दौड़कर मुझे खबर दी। मैंने जाकर नमस्कार किया। उन्होंने केवल एक नजर मुझे देखा। बोले कुछ नहीं। उस दिन प्रभारी के चहेते तीन कर्मचारी गैरहाजिर पकड़े गये थे। यह मेरे लिए बहुत बुरा हुआ था। लगभग सभी लोगों को यह विश्वास हो गया था कि कुलपति का यह औचक निरीक्षण मेरे इशारे पर हुआ था। इस बात की जानकारी मुझे एक फोटोस्टेट दुकानदार ने दी थी और साथ ही चेताया था कि मेरे साथ कोई अप्रिय घटना हो सकती है।
घर वापसी के लिए चौहान साहब के निर्देशानुसार रमन जी के साथ मैं विश्वविद्यालय में आवेदन जमा कर चुका था। लगभग सभी अधिकारियों और शिक्षक नेताओं को पता चल चुका था कि कुलपति ने हम दोनों को वचन दे दिया है। बस फिर क्या था! अब हमारे खिलाफ राजनीति हो गयी। जिस संघ का आज मैं महासचिव हूँ, उसी ने हमारे आवेदन को दबा दिया। रणनीति यह थी कि इन दोनों के साथ सभी पीड़ितों की फाइल बढ़े, नहीं तो मामला लटक जायेगा। खींचतान और उधेड़बुन में कई हफ्ते बीत गये फिर गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं। जून के अंतिम सप्ताह में एक साथ सभी भुक्तभोगियों की घर वापसी की अधिसूचना जारी हुई। बदली की अधिसूचना जारी होने की तिथि के ठीक 365वें दिन मैं अपने कॉलेज वापस आया था। पर कुछ बदलाव के साथ। बड़हिया क्लास पास करके आया था। अब इंसान को पहचानने की समझ आ गयी थी। पहले हर मुस्कुराता चेहरा मुझे अपना लगता था, किन्तु अब चेहरे के नीचे छुपे चेहरे को पहचान सकता था।
(क्रमशः)