दास्तान ए दंगल सिंह

दास्तान-ए-दंगल सिंह (94)

 

अपने नये घर में बस जाने के बाद पुराने डेरे से लैंड लाइन फोन शिफ्ट कराना जरूरी था। मोबाइल फोन रहने के बावजूद इस कारण जरूरी था कि अखबार के लिए ब्रॉडबैंड इंटरनेट और फैक्स की सुविधा चाहिए थी। मेरे घर के पास अन्य कोई उपभोक्ता नहीं थे इसलिए ब्लॉक चौराहे के जेबी बॉक्स से केबल कनेक्शन लाना था। बीएसएनएल के लाइनमैन ने मेरे नाम पर आवश्यकता से बहुत ज्यादा बीस पेयर तार वाला केबल इश्यू करवा लिया और घर से बमुश्किल तीस फीट दूर गंगा पम्प नहर पर एक पोल गाड़कर कनेक्शन लगा दिया। अतिरिक्त केबल को पोल के ऊपर पगड़ी की तरह लपेट कर छोड़ दिया। मैंने उसे ऐसा करने से मना किया। कहा कि अतिरिक्त केबल ले जाये अन्यथा चोर चोरी कर लेंगे। उसने मनुहार के लहजे में समझाया, “सर आपके नाम पर इतना तार मिल गया है। रहने दीजिए। किसी जरूरतमंद की सेवा करके दो पैसे कमा लेंगे। हमारे बाल-बच्चे दुआ देंगे। हम दैनिक वेतनभोगी हैं। जैसे-तैसे परिवार चलाते हैं।” मैंने चेतावनी दी कि जल्द ले जाये नहीं तो मुझे रखवाली करनी होगी। दरअसल उन दिनों पूरे इलाके में बिजली और टेलीफोन के तार की चोरी का सिलसिला चला हुआ था। तार को आग की भट्टी में गलाकर बेचा जाता था। मेरे घर की पिछली चोरी के बाद छापामारी में भी चोरों के सरगना धर्मेंद्र के घर से बिजली और टेलीफोन के तार बरामद हुए थे।

मैं रोज रात में सोने के पहले और सुबह जगने के बाद अपने सिरहाने के सामने लगे हुए उस पोल की केबल वाली पगड़ी को देख लेता था। रात में नींद टूटने पर भी ध्यान उधर चला जाता। लगभग दो सप्ताह बाद ऐसे ही एक रात करीब एक बजे ध्यान गया तो तार था और सुबह साढ़े चार बजे नींद खुली तो खम्भा पगड़ी विहीन हो चुका था। जाड़े का मौसम था। मेरे सिरहाने से खम्भे की दूरी बमुश्किल तीस फीट थी। साढ़े तीन घंटे के दरम्यान चोरी हो गयी और मेरी या सुधा की अथवा ऊपरी तले के कमरे में सोयी बेटी की भी नींद नहीं टूटी। मैं आत्मग्लानि में डूब गया था। लोगों को बताना भी लज्जाजनक था। चुपचाप लाइनमैन को खबर देकर टेलीफोन कनेक्शन ठीक करवाया और चोर का सुराग लेने का उपक्रम करने लगा। शाम होने तक पता चल गया कि यह चोरी भी उसी शातिर बदमाश धर्मेंद्र ने की है। पिछली घटना को मात्र दो साल हुए थे। इतनी जल्दी भूल गया मेरा वह आतंक! मुहल्ले वालों ने उसका घर तक उजाड़ दिया था। उजाड़े जा चुके घर पर फिर से छप्पर-छौनी डालकर वह बस गया था। एक और बदली हुई रखैल के साथ रह रहा था, पर उसकी माँ नहीं लौटी थी। पिछली चोरी के केस में पेशी के दौरान मैंने उन माँ-बेटे को निकट से देखा था। उस चोर ने अपनी बीसों उंगलियों में नेलपॉलिश लगा रखा था। उसकी माँ भी लिपस्टिक सहित खूब सजी-धजी हुई थी।

मैंने इस चोरी को उसकी खुली चुनौती मान लिया और प्रण कर लिया कि अब भले ही तीन घंटे का रतजगा करना पड़े, उसे मजा जरूर चखाऊंगा। एक बार फिर उस मुहल्ले में जाकर लोगों को स्पष्ट संदेश दे आया कि “सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच मेरे घर से दो सौ मीटर दूर तक जब भी धर्मेन्दरा नजर आयेगा, मैं उसे कमर के नीचे गोली मार दूँगा।” और मैं मौके की ताक में लग गया जिसमें सुधा मजबूती से मेरे साथ थीं। इस संकल्प के कारण हमारी नींद पानी के समान पतली हो गयी थी। रात में फुलवारी में कोई पत्ता खड़खड़ाता या आसपास कहीं कुत्ता भी भौंकता तो हमारी नींद खुल जाती थी। थोड़ी-सी आशंका होने पर बिजली की-सी फुर्ती से बिछावन छोड़ देते और एक दूसरे को जगा दिया करते थे। तकरीबन रोज किसी-न-किसी मुहल्ले से चोरी की खबरें मिल रही थीं। मुझे पूरी उम्मीद थी कि जल्द ही हाथ साफ करने का अवसर मिलेगा। हमें अपनी टेक पूरी करने के लिए बहुत लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। लगभग एक महीने बाद फरवरी के अंतिम सप्ताह में मौका मिल गया। मेरे मुहल्ले के दूसरे सिरे पर कहलगाँव-बाराहाट रोड में नगरपंचायत द्वारा जलापूर्ति हेतु पाइपलाइन बिछाने का काम चल रहा था। सड़क के किनारे ढलुआ लोहे के 20-20 फीट के पाइप का स्टॉक रखा गया था। एक दिन मुलाकात होने पर मैंने ठेकेदार को चेताया था कि रखवाली करवाये नहीं तो चोर पाइप उठा ले जाएगा।

उस रात डेढ़ बजे कुछ हलचल महसूस होने से सुधा की नींद खुल गयी। उसने मुझे जगा दिया। रिक्शा-ठेले के चलने की कुछ मच-मच जैसी आवाज सुनाई पड़ी। झरोखे से झाँककर देखा तो मेरी चारदीवारी और नहर के बीच की कच्ची सड़क पर हतप्रभ करने वाला दृश्य था। एक ठेले पर दो पाइप लादे चोरों का दल काफी तेजी से सामने की मुख्य सड़क की ओर बढ़ा जा रहा था। मुख्य सड़क के मुहाने पर चढ़ाव था सो उस जगह सभी चोरों ने ठेले और पाइप में हाथ लगाया। एनटीपीसी के स्ट्रीट लाइट में सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था। कुल सोलह चोर थे जिनका नेतृत्व मेरा मोस्टवांटेड धर्मेन्दरा कर रहा था। उसके एक हाथ में लम्बा टॉर्च और दूसरे हाथ में लोहे की मोटी खंती थी। वह मेरे घर के ठीक सामने सायफन के किनारे नहर की ऊँचाई पर से सभी को इशारे और टॉर्च की रोशनी के संकेत से निर्देशित कर रहा था। ठेला तेजी से ब्लॉक चौराहा होते कॉलोनी के पीछे की सड़क से बंदराबगीचा गाँव की ओर चला जा रहा था। धर्मेन्दरा सहित चार-पाँच चोर सायफन पर रुक गये थे। पूरा दृश्य देखते ही माजरा मेरी समझ में आ गया। बन्दराबग़ीचा में एक कुख्यात कबाड़ीवाला था जो साइकिल से लेकर ट्रक तक के पार्ट-पुर्जे और धातुओं के किसी भी सामान को गलाने-पचाने में माहिर था। मैं समझ गया कि रात भर में नगरपंचायत के सभी पाइप गायब हो जाने वाले थे। मैंने थानाध्यक्ष ए के मिश्र को मोबाइल पर फोन किया। वे जगे हुए और सक्रिय थे। मैंने सूरतेहाल बताते हुए उन्हें सलाह दी कि उलटी तरफ से बन्दराबग़ीचा वाली कच्ची सड़क में चोरों को घेरा जाए। मिश्रा जी ने मजबूरी बतायी कि थाने का वाहन गश्त पर है। वे गश्ती दारोगा चौधरी जी को फोन कर रहे हैं।

इस बीच एक खेप लगाकर ठेला दल लौट आया था। खाली रिक्शा ठेला तेजी से मेरी बायीं गली से उत्तर की ओर निकल गया। पीछे दर्जन भर चोर भी आ रहे थे। यहाँ सायफन पर धर्मेन्दरा अपने तीन साथियों के साथ सारी गतिविधियों का संचालन कर रहा था। वह स्वयं नहर के पश्चिमी किनारे ऊँचाई पर ठीक स्ट्रीटलाइट के नीचे सतर्क खड़ा था। उसके क्रियाकलापों में बिजली जैसी फुर्ती दिखाई दे रही थी। ठेला दल वाले सभी चोर उत्तर की ओर निकल चुके थे। ठीक उसी समय मुख्य सड़क पर पश्चिम की ओर से एक तेज रोशनी वाली कोई गाड़ी सायफन की तरफ आती दिखी, जिसे देखकर धर्मेन्दरा सहित चारों बदमाश नहर में दुबक गये। गाड़ी मेरे शिष्य महेशामुण्डा निवासी शंकर दयाल की थी। सामने रुकी तो उससे दूसरे शिष्य और रिश्तेदार कुमार नितेश उतरे। ये दोनों दैनिक जागरण के भागलपुर प्रेस में काम करते थे और देर रात घर लौटते थे। नितेश का घर मेरे घर के उत्तर उसी गली में है जिससे पाइप ढोया जा रहा था। नितेश अपने घर की ओर चला गया, पर उसे वारदात की भनक तक नहीं लगी। उसके जाते ही चारों चोर नहर से निकलकर सड़क पर आ गये। धर्मेन्दरा फिर सबसे ऊँची पुरानी जगह पहुँच गया था।

थानाध्यक्ष को फोन करने के बाद बिना किसी खट-खुट किये मैंने अलमारी से बंदूक और कारतूस की पेटी निकाल ली थी। सेकेंड फ्लोर पर दक्षिणी कमरे में खिड़की पर मैं कारगर और मारक पोजीशन ले चुका था। निक्की भी जग गयी थी और मम्मी के साथ मेरे पीछे खड़ी थी। ईंट की जाफरी वाली खिड़की से सामने का सारा नजारा हम तीनों साफ-साफ देख रहे थे। पूरब वाली खिड़की से मुहल्ले वाली गली दूर तक दीख रही थी। चोरों को बिल्कुल भान नहीं था कि ठीक पचास फीट दूर उनके सिर पर मौत का सामान लिये कोई चौकस खड़ा है। मैंने एक बैरेल में एलजी/एसजी ओर दूसरे बैरेल में एक नम्बर छर्रा लोड कर लिया था। पक्के तौर पर संकल्पित था कि आज धर्मेन्दरा को मौत के दर्शन करवा दूँगा। जान से नहीं मारूँगा,पर घायल करके छोड़ दूँगा। आश्वस्त होकर कि नितेश अपने कमरे में चला गया होगा, मैंने उसे रिंग किया। हेलो बोलते ही उसे फुसफुसा कर बोलने की हिदायत दी और पूरा वाकया बताया। उसे सावधान किया कि भाई सर्वेश को भी जगा ले और कदापि खाली हाथ निकट जाकर पकड़ने की हिमाकत न करे। चोरों की संख्या बहुत है और उनके पास घातक हथियार भी होंगे। मैं सुरक्षित स्थान पर हूँ मनचाहे विकल्पों के साथ आक्रमण करने को तैयार हूँ।

पुलिस को सूचना दी गयी है। उधर से धावा होने पर उचित समय पर मैं फायर करूँगा। आवाज सुनकर वे दोनों भाई डंडे-भाले के साथ उधर से खदेड़े और मुहल्ले की गली में घेरकर पकड़ने का प्रयास किया जाए। उस समय मुहल्ला केवल 10 प्रतिशत बस पाया था। इन दोनों भाइयों के अलावा कोई और युवक नहीं था। फोन पर नितेश को निर्देश देकर मैंने फिर मिश्रा जी को रिंग किया। देरी को लेकर उनसे थोड़ी ऊँची आवाज में बात हो गयी। उन्होंने कहा कहा कि वे बाइक से पहुँच रहे हैं। चोरों को पकड़ने की कोशिश करते हैं। इस दरम्यान एक खेप ठेला और हमारे बगल से बन्दराबग़ीचा की ओर ठेलठाल कर भेजा जा चुका था। इसबार चार और चोर सायफन पर ठहर गये और उलटे पाँव नितेश के घर की ओर लौट गये। मैंने नितेश को फिर फोन करके बताया कि उसके घर के पास चार चोर हैं। हमले के लिए तैयार रहे। इधर धर्मेन्दरा अपनी जगह पर डटा गिरोह का संचालन कर रहा था। मैं उसको निशाना बनाये झरोखे पर नाल टिकाये सही मौके का इंतजार कर रहा था। इसी समय नाटकीय अंदाज में कई बातें एक ही साथ हो गयीं। सामने आम बागान के झुरमुट से बन्दराबग़ीचा की ओर सड़क पर किसी गाड़ी की रोशनी दिखाई पड़ी। वह पुलिस की जीप थी। उसके आगे-आगे रिक्शा ठेला ब्लॉक चौक की दिशा में बेतहाशा भागा चला आ रहा था। इधर नितेश ने गली की ओर अपनी खिड़की का पल्ला खोला तो ग्रिल के उस पार हाथ से छू लेने की दूरी पर दो चोरों से नजरें दो-चार छः हो गयीं। गालियाँ देते और शोर मचाते किवाड़ का हुड़का लेकर दोनों भाइयों ने चोरों को खदेड़ दिया।

चोरों के पीछे से नितेश ने आवाज लगायी, “मामा जी, गोली मारिये @#@# सब को!” इधर शोर सुनकर धर्मेन्दरा नहर पर दक्षिण की ओर भागने को मुड़ा। वह मुझसे साठ-पैंसठ फीट दूर मेरे निशाने पर था। चाहता तो बायाँ ट्रिगर दबाकर उसे वहीं ढेर कर सकता था। गुस्सा भी उसी के लायक था कि उसे मार डालूँ। दिल वही चाहता था, पर बुद्धि ने हाथ बाँध दिया। इतने कम रेंज में एक नम्बर छर्रा भी लंग्स या हार्ट पंक्चर कर सकता था। सो मैंने उसे दसेक कदम भागने दिया। पीठ सामने थी। मैंने पीठ को ही लक्ष्य करके फायर कर दिया। वह मुँह के बल गिरा और गठरी की तरह लुढ़कता हुआ नहर में चला गया। मेरा माथा सन्न रह गया। कहीं गलत ट्रिगर तो नहीं दबा दिया! तब तक देखा कि वह लड़खड़ाता हुआ बाँध पर चढ़ा और अंधेरे में विलुप्त हो गया। इधर पुलिस और नितेश बंधुओं के बीच फँसकर ठेलेवाला और तीन अन्य चोर पकड़े गये। शोर-शराबा और गोली की आवाज सुनकर आसपास के लोग और ब्लॉक कॉलोनी से निकलकर अंचल गार्ड सब मेरे घर के सामने जमा हो गये थे। भीड़ द्वारा पिटाई होते देख मुझे भी ताव आ गया। मेरे हाथ में बंदूक थी। बट के बदले मैंने बैरेल से एक चोर के माथे पर वार कर दिया। वह चक्कर खाकर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। लोगों ने पानी का छींटा मारा तब भी नहीं हिला। दारोगा चौधरी जी ने तो माथा पकड़ लिया। मुझे भी ठकमुरगी लग गयी थी। एक सिपाही ने उसे हिलाया तो कोई हरकत नहीं। तभी मुझे लगा कि यह भग्गल किये हुए है। जोर से चिल्लाकर मैंने उसके मुँह में बंदूक की नाल घुसेड़ दी। “उठ नहीं तो गोली मार देंगे।” वह हड़बड़ाकर उठ बैठा, तब लोगों की जान में जान आयी थी। पुलिस चोरों को अपने साथ ले गयी। फिर हमें नींद नहीं आयी। पड़ोसियों और परिजनों से बतियाते रात बीत गयी। सुबह चाय पीकर पहाड़ी वाले मुहल्ले में जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि धर्मेन्दरा की पीठ में पाँच छर्रे घुसे थे। पुलिस ने केस डायरी में गोली चलने की बात नहीं लिखी थी, किन्तु सरगना के रूप में धर्मेन्द्र का नाम दर्ज किया था। एक बार फिर उसका घर उजाड़ डाला गया था। उस घटना के बाद वह फिर कभी कहलगाँव में नहीं देखा गया। अपुष्ट खबर है कि हिस्से के झगड़े में गिरोह के किसी साथी ने उस दुष्ट का वध कर दिया था।
(क्रमशः)

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पवन कुमार सिंह

मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे लेखक जयप्रकाश आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और हिन्दी के प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919431250382, khdrpawanks@gmail.com
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