दास्तान ए दंगल सिंह

दास्तान-ए-दंगल सिंह (100)

 

बेटे स्नेह सागर के बीटेक करते ही उसके विवाह के लिए हितैषियों के प्रस्ताव आने लग गये थे। उसने टीसीएस जॉइन कर लिया था, पर उस वेतन में घर बसाने को राजी नहीं था। हम चाहते तो थे किन्तु उसकी रजामंदी जरूरी मानते थे। जो भी प्रस्ताव लाते, सभी अपने ही तो थे। बहुत तर्कसंगत कारण नहीं होने के चलते इन्कार करते जाना बड़ा भारी पड़ रहा था। कुछ लोगों को यह लगने लगा था कि मोटा माल बटोरने के फेर में हम उनको टाल रहे हैं। हरेक भोज-भात की भीड़ में कोई न कोई टोक देता, “क्या सर, ढोल-ताशा कब बजवा रहे हैं?”
“अब तो बेटा नौकरी में सेटल हो गया है, विवाह के मार्केट में कब लॉन्च कर रहे हैं?”
“जल्दी करिए सर। नहीं तो खुद करके आ जाएगा। पूँजी डूब जाएगी।”
“कहीं कर कराके तो नहीं बैठा है सर?”

मतलब ऐसा ही। कुछ भी। ऊलजलूल टिप्पणियाँ हम झेलने को विवश थे। यह क्रम लगभग चार साल चला जो काफी लम्बा था। जान तब छूटी जब बेटा नौकरी छोड़कर एमबीए पढ़ने फिलीपींस चला गया। डेढ़ साल बाद जब उसकी पढ़ाई पूरी हो रही थी, तब एक बार फिर यह सिलसिला शुरू हो गया। कई लोग फोन पर पूछताछ करने लगे थे। रिश्ते की एक सरहज राखी सुधा से मिलने पर हर बार एक लड़की की सिफारिश करते हुए कहती, “दीदी, एक लड़की मेरी रिश्तेदारी में है। नंदू जी जैसी सुन्दर तो नहीं है, पर मन-मिजाज से बहुत अच्छी है। जमुई के लोग हैं। अभी राँची में बस गये हैं। परिवार में सभी लोग शिक्षित हैं।”
सुधा हर बार कहतीं, “राखी, हमें और कुछ नहीं, तेरे जैसी ही समझदार बहू चाहिए, बस!”

  एक दिन चाईबासा से एक आदरणीय रिश्तेदार का फोन आया, “पवन जी, बेटे की शादी के लिए तैयार हैं तो मेरी नजर में एक अच्छा रिश्ता है। राँची के लोग हैं। लड़की एमबीए है। कहिये तो भेजूँ।” मैंने उन्हें एक-दो महीने तक रुकने का आग्रह किया था ताकि तबतक बेटे को जॉब मिल जाए और वह शादी के लिए तैयार भी हो जाए। फिर एक दिन बच्चन बाबा (स्व. दिनेश कुमार सिंह, कुर्सेला इस्टेट, पूर्व मंत्री, बिहार सरकार) के बेटे मेरे हमउम्र उदयन चाचा ने फोन करके पूछा, “दंगल जी, बेटे की हाइट क्या है?”
“आपका पोता है तो आपसे कम क्या होगा!”
“अच्छा, छः फीट का है?”
“हाँ, छः फीट एक इंच है।”
“वाह, तब तो ठीक है। बाकी सब तो जगजाहिर है। अपने बाँका वाले रिश्तेदारों के रिश्तेदार हैं लड़की वाले। मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ। हाँ, लड़की को मैंने बहुत पहले देखा है। पता नहीं अभी कैसी दिखती है। आप लोग मिल लीजिए। सम्बन्ध अच्छा रहेगा। आपका नम्बर उन्हें दे रहा हूँ। वे बात करेंगे।” 

उस समय सुधा बीमार चल रही थीं। कई सप्ताह से उनके मुँह में छाले पड़े हुए थे। पानी या दूध के सिवा कोई भी चीज मुँह में लेना और निगलना बहुत कष्टकारी हो गया था। मिर्च, अदरख आदि की बात तो दूर, नमक भी बेबर्दाश्त लगता था। खाना खाते हुए आँखों से आँसू बहते थे। खाने में तकलीफ के चलते खुराक घट रही थी और स्वास्थ्य खराब होता जा रहा था। स्थानीय चिकित्सा से ज्यादा फायदा नहीं हो रहा था। रोग थोड़ा दबता था और फिर उभर जाता था। कहलगाँव छोड़ अब भागलपुर का चक्कर लगने लगा था। इसी सिलसिले में एक सुबह हम दोनों भागलपुर के लिए ट्रेन पकड़ने स्टेशन आये हुए थे। प्लेटफॉर्म पर राँची से श्री सुनील कुमार सिंह का फोन आया। परिचय देते हुए उन्होंने कहा, “आपको आपके चाचा प्रज्ञेश बाबू ने और चाईबासा के सुरेश बाबू ने मेरे विषय में कहा होगा। आपकी सरहज राखी ने भी बताया होगा। मैं वही हूँ। आपके यहाँ सम्बन्ध करने का इच्छुक हूँ। पता है कि आप बहुत व्यस्त रहते हैं। थोड़ा समय हमें भी दिया जाए। हम मिलना चाहते हैं।”
“अभी तो लड़का बेरोजगार है। अभी कैसे बात कर लूँ?”
“बेरोजगार थोड़े न रहेंगे। तबतक मिलने-जुलने में क्या बुराई है? अगले रविवार को आधा घंटा हमें दें। कोई दबाव नहीं। केवल मिलकर लौट आएंगे।”
“ठीक है आइए, पर आने के पहले बायोडाटा सहित एक फोटोग्राफ और जन्मकुंडली ईमेल से भेज दीजिए।”

उसी दिन शाम को उन्होंने दोनों चीजें भेज दी थीं। मेरे शिक्षक मित्र डॉ. जयप्रकाश ठाकुर तृषित ने हमारे दोनों बच्चों की जन्मकुंडली बनाई है। मेरी नजर में वे इस विद्या के विशेषज्ञ हैं। शाम में मैंने उन्हें घर पर बुलाया। उन्होंने आधे घंटे तक कागज पर कुछ जोड़-घटाव करने के बाद स्पष्ट शब्दों में कहा था, “सर, हाँ कह दिया जाए।”
“अरे, गजब करते हैं पंडित जी! लड़की वालों को न देखा न सुना। मिलें-समझें तब तो कुछ बोलें।”
सुधा ने मज़ाक किया, “तृषित जी, लड़की वाले आपसे मिल चुके हैं क्या!”
उन्होंने विश्वासपूर्वक जवाब दिया था,”मेरी बात को मज़ाक मत समझिए। ये दोनों साथ जीवन जीने के लिए ही पैदा हुए हैं। आप नहीं भी चाहेंगे तो विधाता खेल रच देंगे। यह विवाह तो होगा। चंद्र टरे सूरज टरे, यह नहीं टरेगा।”

इस प्रकार पूरी भूमिका तैयार हो गयी थी। नेपथ्य में बैठा सूत्रधार जैसे पटकथा लिख चुका था। मुझे कन्या की चित्रकारी और अध्ययन की रुचि ने अधिक प्रभावित किया था। इतना तो तय था कि यह लड़की संकुचित विचारों वाली तो कदापि नहीं होगी। किन्तु मैं सचमुच नौकरी मिलने तक इस प्रकरण को रोककर रखना चाहता था, पर मुलाकात के लिए हामी भरनी पड़ी थी।
          अगले रविवार को सुनील बाबू अपने साढ़ू भानु बाबू, जय बाबू और मौसेरे साले रवि बाबू (सबलपुर) के साथ मेरे घर (कहलगाँव) पधारे थे। कन्या की माँ अपनी एक बहन को साथ लेकर आयी थीं, पर हमारे घर नहीं आकर राखी के पास चली गयी थीं। बेटे के रिश्ते के लिए यह पहली और आखिरी औपचारिक बरतुहारी मेरे घर पर आयी थी। बातचीत के दरम्यान मैंने कहा था, “आपलोग इस प्रकार की घेराबंदी करके पहुँचे हैं कि मना कर देने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बस मेरी एक शर्त है कि बेटे-बेटी के साथ हम आपकी कन्या से मिलेंगे। लड़का और लड़की को एकांत में बतियाने का मौका देंगे। फिर दोनों से पूछेंगे। यदि दोनों की सहमति मिली तो विवाह पक्का समझिए।”

 विदा करते समय सुनील बाबू ने मुझसे कहा था, “सर, आपके पुत्र रूप और गुण दोनों में लाखों में एक हैं। यदि परफेक्ट जोड़ी मिलाना चाहिएगा तो पाँच सौ लड़कियाँ छाँटनी पड़ जाएँगी।”
आपत्ति जताते हुए मैंने कहा था, “सुनील बाबू, हमें लड़की छाँटनी नहीं है, बहू चुननी है। आप निश्चिंत रहें। दोनों एक-दूसरे को पसन्द कर लें तो कोई और विघ्न नहीं आएगा।”
          यह जनवरी 2.14 के अन्तिम सप्ताह की बात है। फरवरी के पहले सप्ताह में बेटा मनीला से लौट आया था। इसके बाद से सुनील बाबू ने मिलने के लिए आग्रह करने का तो जैसे अभियान ही शुरू कर दिया। एक-दो दिन के अंतराल पर उनका फोन आ जाता था। अंततः हमें 14 फरवरी की तिथि निश्चित करनी पड़ी थी। एक पंथ दो काज के सिद्धांत पर सुधा के मुँह के छाले की चिकित्सा किसी विशेषज्ञ से कराने की योजना थी। मेरे मित्र प्रो. धनञ्जय मिश्र का पुत्र व मेरा शिष्य डॉ. शीतांशु शेखर पीएमसीएच में इंटर्नशिप कर रहा था। उसे फोन करके कह दिया था कि आंटी को किसी स्पेशलिस्ट से दिखाने के लिए समय लेकर रखे। उसने सुधा के मुँह के अन्दर की तस्वीर व्हाट्सएप से भेजने को कहा था।

  हम चारों 13 फरवरी को पटना पहुँचकर अपने हितैषी श्री चन्द्रदेव सिंह के घर रुक गये थे। अगले दिन सुबह से ही मौसम बहुत खराब हो गया था। घनघोर बारिश के बीच हम दोनों किसी तरह तय समय पर पीएमसीएच पहुँचे थे। डॉ. शीतांशु ने चर्मरोग विशेषज्ञ डॉ. आर पी चौधरी के क्लिनिक में सुधा को दिखवा दिया था। क्लिनिक अत्यंत साधारण किस्म का था और भीड़भाड़ भी नहीं थी। पर हमें अपने शिष्य पर भरोसा था। डॉ. चौधरी ने भी पूरा आश्वस्त किया कि अधिकतम एक सप्ताह में रोग ठीक हो जाएगा।

  लगातार हो रही वर्षा में सुरक्षित वापसी के लिए हमें सुनील बाबू की कार मंगवानी पड़ी थी। उसी शाम दोनों परिवारों को मिलना था। वेलेंटाइन डे होने के कारण सारे होटल और रेस्तराँ बुक थे। किसी तरह पाटलिपुत्र कॉलोनी में ‘बुद्ध हेरिटेज’ में रिशेप्शन के सामने खुले हॉल में जगह बन पायी थी। टिप-टिप वर्षा के बीच हम वहाँ इकट्ठा हो सके थे। सुनील बाबू अपनी धर्मपत्नी, दो सालियों और बड़े साढ़ू भानु बाबू सहित कन्या (सौम्या) के साथ आये थे। इधर से हम चारों थे। चाय पीते हुए हम सभी बहुत देर तक बातें करते रहे थे। सुधा और बिटिया दोनों सौम्या के साथ काफी घुल-मिलकर बतिया रही थीं। डिनर के पहले मैंने स्नेह और सौम्या को कुछ देर साथ घूम-फिरकर आने को कहा था। मौसम खराब होने के कारण बाहर निकलना सम्भव नहीं था। वे दोनों दस-बीस मिनट होटल के अन्दर ही लॉबी व बरामदों में चहलकदमी करते रहे और लौटकर फिर अपनी-अपनी खाली कुर्सियों पर बैठ गये थे। होटल में बहुत भीड़-भाड़ थी और बाहर की बूंदा-बाँदी के कारण आवाजाही ठहर-सी गयी थी। कुछ लोगों को हमारी गतिविधियों का उद्देश्य समझ में आ गया था, इसलिए हमलोग लगभग तमाशा ही बन गये थे।

 सबकुछ बहुत तेजी और नाटकीय ढंग से चल रहा था। बटुक और कन्या के वापस आने के कुछ देर बाद इधर माँ- बेटी दोनों ने लड़के से सहमति जान ली और उधर मैंने सौम्या से सीधा पूछ लिया, “क्यों बेटे, कर दें तुम दोनों का ब्याह?”
उसने सहमति सूचक सिर हिलाया। हम चारों में आँखों-आँखों में बात हुई। होने वाली समधिन जी का बुरा हाल था। वह सम्भावित इनकार के अंदेशे से परेशान थीं शायद। मैंने बिना किसी झिझक और विलम्ब के उन्हें आश्वस्त कर दिया था, “बधाई हो आप सभी को! यह शादी होगी। हम अब रिश्तेदार बन रहे हैं।”

तबतक तमाशबीनों से हॉल भर गया था। दर्जनों तालियों की आवाज से माहौल हर्षोल्लास से लबालब भर गया था। समधिन दामाद को और छोटी समधिन मुझे जादू की झप्पी दे रही थीं। उन्हीं में से किसी ने आभार प्रकट किया था, “सुने थे कि आप अच्छे आदमी हैं, पर इतने अच्छे हैं? इस तरह शादी के लिए कोई खड़े-खड़े हाँ कहता है भला!”
लगभग सभी एक दूसरे से गले मिलकर बधाई दे रहे थे। बहुत ही प्रसन्न और संतुष्ट मनोदशा में हम विदा हुए थे।

इस तरह हम दोनों परिवार दो बार में बमुश्किल कुल छः घण्टे साथ रहे होंगे। समधी साहब सुनील बाबू तो पता नहीं कितनी जगह गये होंगे, पर मैंने तो पहली ही बरतुहारी में बेटे का ब्याह तय कर लिया।
      इस पूरे प्रकरण में मैं ही ड्राइविंग सीट पर था। सब कुछ मेरे मन के मुताबिक हुआ। मेरे सभी निर्णयों में सबकी सहमति रही। पर इस सम्बन्ध के लिए मैं खुद श्रेय नहीं लूँगा। इस रिश्तेदारी के बाद मेरा पुराना विचार और दृढ़ हो गया कि शादी की जोड़ी विधाता तय करते हैं। वह चाहे तो सबकुछ ठीक हो जाता है और रिश्तेदारी बन जाती है।
(क्रमशः)

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पवन कुमार सिंह

मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे लेखक जयप्रकाश आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और हिन्दी के प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919431250382, khdrpawanks@gmail.com
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