{Featured in IMDb Critics Reviews}
निर्देशक – संदीप पांडेय
कास्ट – प्रतीक पचौरी, रेखा मिश्रा, अनुदीप सिंह, अंश ठाकुर, हंसा सिंह , राजेश राजभर, पूजा पांडेय आदि
दो दोस्त हैं जो किसी अंग्रेजी सिखाने वालों के यहां कोचिंग कर रहे हैं, ताकि अंग्रेजी बोलना सीख सके। उनमें से एक दोस्त के एक दिन घर पर कोई नहीं होता तो वे एक लड़की को ले आते हैं। अब जब वे लड़की को लेने जाते हैं तो कोड लैंग्वेज में बात करते हैं। बाद में चेहरा देखने पर पता चलता है कि यह तो कोचिंग में साथ पढ़ने वाली लड़की है। लड़की किसी हॉस्टल में रहती है। दोनों दोस्त उसे घर लाते हैं। बियर पार्टी करते हैं। लेकिन इसी बीच पड़ोसी आ जाते हैं। लड़की को भगा दिया जाता है। कहानी हंसी-मजाक के साथ-साथ उन लड़कों में डर भी पैदा करती है। कभी भागते-दौड़ते तो कभी बाइक के सहारे सड़क पर भटकते इन दो युवा दोस्तों को पुलिस मिलती है। तो और लफड़ा पैदा होने की गुंजाइश नजर आती है और लगता है यह आम कहानी बन जाएगी जिसमें पुलिस केस और वही घिसी-पिटी कहानी होगी। लेकिन यहीं पर यह फ़िल्म चौंकाती है और आम फ़िल्म से हटकर बात कहती है।
शिल्पा नाम की लड़कियां खूबसूरत होती हैं। या लड़कियों को माल, जुगाड़ या चेड़ती जैसे शब्द आम छोटे शहरों में लड़कों द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं। उस लड़की की फोटो पर लाइक करने पर साथी दोस्तों का आपत्ति जताना जिसे वे पंसद करते हैं। फिर भले खुद कितने ही हरामी हों। जैसे वाक्यात हमारे आम जीवन में बहुतायत में देखने को मिल जाते हैं। इसके अलावा नए-नए जवान हुए लड़कों का पहली बार लड़की को घर लाना, उसमें भी लड़की का कहना कि पहली बार है ध्यान रखना। तो इस तरह के किस्सों से यह फ़िल्म युवा वर्ग को, खास करके उन्हें जिन्होंने अपनी जवानी में ऐसी छोटी-छोटी लेकिन भारी गलतियां हैं उन्हें यह जरूर उन यादों में ले जाएगी।
अब पुलिस के साथ पचड़े में पड़ने पर लड़की मौसी की बेटी, लड़का बुआ का या लड़का मौसी का जैसी बातों में उलझाकर पुलिस वालों के दिमाग का दही भी ऐसी परिस्थितियों में कई लोगों ने किया होगा। कई इस चक्कर में पुलिस केस के शिकार हुए होंगे तो कई भ्रष्टाचार के। इस तरह के किस्सों से यह फ़िल्म रंग-बिरंगी होने के अलावा अतरंगी और सतरंगी भी दिखती है। इसके अलावा पड़ोसियों के घर में आ जाने के बाद लड़की को किसी दोस्त के घर ले जाना आधी रात में या फिर होटल तलाश करना उसमें दिमाग लड़ाते ये दो लड़के उनमें से एक का समझदार होना फ़िल्म ही नहीं कहीं न कहीं समाज की सच्चाई भी दिखाता है।
छोटे शहरों के आम किस्से बताती इस फ़िल्म में प्रतीक पचौरी, अनुदीप सिंह खासा प्रभावित करते हैं। ऐसी विकट परिस्थितियों में भी अंग्रेजी का भूत अपने सिर पर सवार किए बैठी लड़की भी मजेदार लगी हैं। साथी कलाकार भी फ़िल्म को अपने अभिनय कौशल से मजबूती देते हैं। चुनाव के समय होने वाली घोषणाएं और चुनाव चिन्ह ….. पर बटन दबाएं जैसे पोस्टर में चुनाव चिन्ह को पूरा न लिखकर चु .. ची लिखना दिखाता है कि छोटे शहरों में ऐसे पोस्टर बहुतायत में देखने को मिलते हैं। शांतिवती का अपने आपको तस्वीर में गरीब नेता के रूप में पेश करने जैसी बातें भी राजनीति के सच को दर्शाती है। इसके अलावा एक सीन में मास्टर के घर उसके कमरे में गेट पर कविता लिखी हुई भी नजर आती है जो फ़िल्म के नहीं समाज के आईने को बयान करती है।
कैमरामैन, एडिटर, कॉस्ट्यूम, लोकेशन, निर्देशन, लेखन सभी में यह फ़िल्म मनोरंजक लगती है। म्यूजिक के मामले में कहीं कहीं रेट्रो फिल्मों के म्यूजिक भी कॉपी किए हुए लगते हैं। हालांकि आपत्ति जताई जाए तो इसके संवादों को लेकर जताई जा सकती है। लेकिन इसमें इस्तेमाल हुए संवाद आम जीवन का और बड़े, छोटे सभी शहरों का हिस्सा बन चुके हैं। साल 2019 में आई यह फ़िल्म थियेटर में रिलीज होने के बाद पहले अमेजन प्राइम पर और अब ओटीटी प्लेटफॉर्म एमएक्स प्लेयर पर आई है जिसे यहाँ क्लिक कर देखा जा सकता है। साथ ही उन युवाओं के लिए यह एक यादों को पुनः जीवित करने का जरिया भी हो सकती है। जो उनकी नादानियों के चलते उन्होंने गलतियां की हैं। फ़िल्म की स्टार कास्ट बहुत बड़ी नहीं है लेकिन ये आम पात्र ही इस फ़िल्म के सहारे समाज के एक वर्ग को बहुत खूबसूरती से दिखाते है।
अपनी रेटिंग – 3 स्टार
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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