पास होते बच्चे और फेल होता तन्त्र
मैट्रिक-इन्टर आदि की परीक्षाओं के परिणाम निकलने प्रारम्भ हो गये हैं। उत्साह है, आशा है तो दूसरी तरफ निराशा और हताशा भी है। बच्चे तो बच्चे, इनके माता-पिता की मनोदशाएँ भी घोर चकित करने वाली हैं। इन विभिन्न मनोस्थितियों को देखकर लगता है कि ये परीक्षाएँ ही बच्चों के सम्पूर्ण भविष्य को तय करने वाली हैं। इनके आगे कुछ नहीं, और पीछे कुछ नहीं। वे भूल जाते हैं कि पास फेल की शिक्षा प्रणाली उस व्यवस्था ने बना रखी है जिसके नियंताओं को ही अगर पाँचवी की परीक्षा में बैठा दिया जाए तो पाँच बार फेल होंगे।
ज्यादा दूर जाने की जरुरत नहीं, आप अपने-अपने क्षेत्र के “भाग्य-विधाता”, मसलन सांसद, विधायक, शिक्षक, प्राध्यापक, अधिकारी आदि को ही पकड़ कर समाज-व्यवस्था और शिक्षा पर उनसे उनकी समझ पूछिए, आपको पता चल जाएगा कि आपके बच्चों को पास-फेल का प्रमाणपत्र कौन बाँट रहा है! आप पाएँगे कि इनमे से अधिकांश हम-आपसे भी ज्यादा मामूली समझ रखते हैं! कभी स्कूल में कोई अधिकारी आये या गाँव-समाज में नेता आदि तो उनको भी चौपाल पर बैठाइए और चाय-पानी पिलाकर सम्मान से उनकी समझदानी को तौलिये, सच बताता हूँ आप चिन्तित हो जाएँगे! और शायद होते भी होंगे।
ये कैसे शिक्षक बनते हैं, कैसे अधिकारी बनते हैं ये हर बार विभिन्न राज्यों की प्रतियोगी परीक्षाओं पर परीक्षा के बाद होने वाले मुकदमों से आसानी से समझा जा सकता है! हमारे जनहितकारी जनप्रतिनिधि कैसे बनते या बनाये जाते हैं उसे बताने की भी कोई जरुरत ही नहीं है, यह सर्वविदित है। सड़क का आम आदमी भी संसद की नीयत और कर्तव्यपरायणता को जानता-समझता है। राजनीति सेवा की ओट में सबसे मुनाफे का कारोबार हो गया है, मोल-भाव खुदरा से लेकर थोक भाव में हो रहा है। मंडी खुली हुई है। सांसद-विधायक तक खरीदे बेचे जा रहे हैं, और उनके बिकने के भय से उन्हें होटलों में छुपाया जा रहा है।
अब तो बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ भी राष्ट्रीयता के इस कारोबार में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही। न्याय तन्त्र भी पूँजी की चकाचौन्ध से वंचित नहीं, आपके पॉकेट के वजन के हिसाब से आपको न्याय मिलेगा, या हो सकता है पॉकेट खाली होने के बाद भी न्याय न मिले। छोड़िये इन छिछली बातों को, अभी डिग्री की बात हो रही थी तो उसी पर बात की जाए, तो अभी कुछ ही समय पहले तक राष्ट्रीय फलक पर सभी बड़े-बड़े नेताओं की डिग्रियों और विद्वाताओं की पोल पट्टी पक्ष-विपक्ष के द्वारा ही एक दूसरे की खोली जा चुकी है।
कभी स्मृति ईरानी की तो कभी सोनिया की तो कभी राहुल की तो कभी हमारे प्रधानमन्त्री महोदय की भी, लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब इतना कुछ देखने-सुनने के बाद भी बच्चों के अभिभावकों की अकल नहीं खुलती! हद है! बच्चे फेल क्या हुए या कम अंक क्या मिले घर से लेकर मोहल्ले तक मर्शिया होने लगती है। तरह-तरह के ताने और व्यंग्य। बालमन कितना बर्दाश्त कर सकता है! आत्महत्या तक कर लेते हैं। पास-फेल की व्यवस्था नौकरियों में जरूरी है, लेकिन मैट्रिक-इन्टर जैसी प्रारम्भिक स्तर की परीक्षाओं में जिस तरह से पन्द्रह-सोलह साल के बच्चों के ऊपर पास-फेल का तमगा लगा दिया जाता है वह बच्चे के ऊपर एक कलंक की तरह हो जाता है, जो भीतर से उसकी कोमलता और उसकी सम्भावनाओं को कुचल देता है।
आत्महत्या तक कर ली जाती है। लेकिन समाज का एक शिक्षित वर्ग ऐसा भी है जो झट से कह देगा कि पास-फेल नहीं होगा तो प्रतिभा की पहचान कैसे होगी! सही बात है, प्रतिभा की पहचान कैसे होगी! प्रतिभों को खोजने का जो हमारा तन्त्र है वो तो इतना सक्षम है कि अगर आपको याद हो तो बिहार के बोर्ड टॉपर की कहानी को याद कर लीजियेगा। मन गुदगुदा जाएगा! और भी उदाहरण देखने हो तो चलिए पिछले वर्ष की ही तेलंगाना की एक घटना को याद दिला दे रहा हूँ। इन्टर की परीक्षा हुई जिसमे जिसमें करीब दस लाख बच्चे बैठे और तीन लाख फेल कर दिए गये। दस बच्चों से अधिक ने आत्महत्या तक कर ली।
मामला न्यायालय में गया। न्यायालय ने कहा कि फेल हुए सभी तीन लाख बच्चों की उत्तर पुस्तिकाओं का मुल्यानकन पुनः किया जाए तो सरकारी वकील ने सरकारी तन्त्र की काबिलियत को दिखाने वाला तर्क दिया। वकील कमजोर तो रहा नहीं होगा, सरकार की खिदमत करनेवाला वकील था, तो हो सकता है उसने होमवर्क नहीं किया गया होगा। उसने कहा कि माई लार्ड! तीन लाख उत्तर-पुस्तिकाओं के पुनर्मूल्यांकन में कम से कम चार माह लगेंगे। न्यायालय ने लगभग फटकारते हुए कहा कि कमाल है दस लाख उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्याङ्कन तो आपने एक महीने में ही कर दिया तो फिर तीन लाख उत्तर-पुस्तिकाओं में चार महीने कैसे लगेंगे!
अगर पास-फेल का प्रावधान सरकार हटा नहीं सकती तो कम से कम अभिभावक अपने स्तर से इतना तो कर ही सकते हैं कि बच्चे के फेल होने को उतना ही सामान्य और सहज रूप में लें जैसा कि वे स्वयं की दैनिक असफलताओं को लेते हैं। बच्चों को पास-फेल का लेवल न दें, वे या तो मर जाएँगे या घुट-घुट कर जियेंगे! पास-फेल से सम्भावनाएँ समाप्त नहीं हो जाती। और इसी सन्दर्भ में यूनानी चिन्तक हेल्विसियास की बात पर भी मन्थन कीजियेगा: ‘आदमी अशिक्षित तो पैदा लेता है, मूर्ख नहीं, मूर्ख तो उसे शिक्षा के माध्यम से बना दिया जाता है’।
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