भारतीय मुसलमानों के समक्ष चुनौतियाँ
भारतीय मुसलमान कहने पर ‘भारतीय’ ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या ‘मुसलमान’ इस प्रश्न के साथ ही समस्या शुरू हो जाती है। जो लोग यह मानते हैं कि मुसलमान होने का मतलब ही है एक ऐसे धर्म को मानने वाले जो देश से ज्यादा मजहब को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके लिए दुनिया का हर मुसलमान अपना है और बाकी सब गैर। इस सोच के कारण ही भारत ही नहीं दुनिया भर में मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखने का चलन बहुत सारे लोगों के बीच रहा है। 9/11 के बाद इस सोच को एक नया आधार मिला है। दूसरी ओर एक और दृष्टि है जिसके तहद हर देश के मुसलमान अलग अलग हैं और नामादि में एक जैसे होते हुए भी वे मूलत: अपने अपने देशों की संस्कृति और सोच के हिसाब से ही चलते हैं। एक उदाहरण इस बात को स्पष्ट करता है। इंडोनेशिया में राम कथा बहुत लोकप्रिय है। वहां के मुसलमान बहुल जनसंख्या में रामकथा की इस लोकप्रियता पर एक मुसलमान ने आश्चर्य प्रकट किया। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति ने जो उत्तर दिया वह सारगर्भित है। उन्होंने कहा कि राम हमारे धर्म का हिस्सा न हों लेकिन हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। यह वह उत्तर है जो धर्म और संस्कृति को एक करके देखने की दृष्टि रखने वालों के लिए अस्वीकार्य है।
भारतीय संदर्भ में यह प्रश्न और भी उलझा हुआ है। सांस्कृतिक इतिहास के विशेषज्ञों ने असंख्य उदाहरण देकर यह दिखलाया है कि हिंदू और मुसलमान इस देश में अलग अलग सांस्कृतिक इतिहास दृष्टि रख ही नहीं सकते। गांधीवादी वी. एन. पांडेय ने एक बहुत ही सुंदर दस्तावेज तैयार किया है जिससे गुजरते हुए यह स्पष्ट होता है कि भारतीय मुसलमानों का योगदान उसमें भी कम नहीं है जिसे ‘हिंदू संस्कृति’ के नाम से जाना जाता है। इस तरह के असंख्य उदाहरण जुटाए गये हैं जो भारतीय इतिहास के ‘हिदू’ दृष्टि को गैर ऐतिहासिक करार देते हैं। नेहरू ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि इस देश के 98% मुसलमान मूलत: हिंदू ही थे। स्वाभाविक है कि उनके जीवन में से सिर्फ धर्म परिवर्त्तन मात्र से सब कुछ बदल नहीं सकता। एक साथ सामाजिक-आर्थिक जीवन जीते हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते आए हैं और उनके बीच ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब का जो रूप निकल कर आया है उससे इंकार नहीं किया जा सकता। इन बातों को ध्यान में रखते हुए भी यह स्वीकार करना पडता है कि इस देश में मुसलमानों की स्थिति पर खुले मन से विचार करना दिन पर दिन और भी कठिन होता जा रहा है। इस संक्षिप्त आलेख में इस स्थिति का आधुनिक भारत के ऐतिहासिक संदर्भ में एक जायजा लिया गया है।
एक पुरानी हिंदी फिल्म का गीत था- ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।’ इस गाने को लिखने वाले और इसके पीछे की भावना का आदर करते हुए भी यह कहना गलत न होगा कि इस तरह की दृष्टि रखकर इस देश में मुसलमानों के बारे में और साम्प्रदायिकता के बारे में विचार नहीं किया जा सकता। एक दौर था जब लोग उम्मीद करते थे कि धीरे धीरे इस देश में हिंदू मुसलमान के बीच की दूरी कम होगी और एक नया आधुनिक समाज इस देश में बनेगा। यह स्वप्न बनकर रह गया और अब तो हालात ऐसे हो गये हैं कि कोई खुल कर इस सवाल पर बोलने से भी कतराता है।
यह बात सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के आने से पहले से ही लोग जानते थे कि इस देश के मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक हालत हिंदुओं की तुलना में भी दयनीय है। लेकिन इस रिपोर्ट ने इस बात पर मुहर लगा दी है। इस खस्ता हाल समुदाय को इस हाल तक पहुंचाने की व्याख्या वह नहीं दी जाती है जो इस देश के विभिन्न समाजों – दलित, पिछड़े या आदिवासी समुदाय के बारे में दी जाती है। यहीं से भारतीय मुसलमान की विडंबनापूर्ण करूण स्थिति का जायजा लिया जाना चाहिए। ऐसा क्यों है कि इस समाज के पिछड़ेपन की व्याख्या को देश के पिछड़ेपन की व्याख्या के संदर्भ में देखा नहीं जाता? इसके कारणों की पडताल के लिए इतिहास में जाना पडेगा। इस प्रसंग में प्रदीप दत्त की पुस्तक ‘कार्विंग ब्लॉक्स’ का अध्ययन उपयोगी है। इस पुस्तक में दत्त दिखलाते हैं कि किस प्रकार हिंदू कॉमन सेंस में यह लाया गया कि मुसलमान हिंदू से कैसे अलग हैं और कैसे वे कालांतर में अपनी जनसंख्या बढाकर हिंदुओं को दबा देंगे।
इसको नकारने का कोई कारण नहीं कि अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति के कारण 1857 के महान विद्रोह के बाद दोनों सम्प्रदायों के बीच खाई बढती गयी। जिन लोगों ने इस देश में अंग्रेज़ी हुकूमत की नीतियों की पडताल की है वे बताते हैं कि अंग्रेजी शासन ने जानबूझ कर दोनों सम्प्रदाय के बीच संशय का वातावरण तैयार किया और उन तमाम लोगों को बढावा दिया जो दोनों सम्प्रदायों के लिए अलग-अलग सोचते थे। हिंदू नेता हिंदुओं का हित सोचें और उनकी तरक्की के लिए सोचें इस बात में ही साम्प्रदायिकता के बीज छुपे हुए हैं। कालांतर में इस भाव ने यह भाव बनाने में मदद की कि दोनों के हित अलग अलग हैं। इस ज़मीन पर ही उग्र साम्प्रदायिकता का आंदोलन शुरू हुआ जो मानता था कि एक के हित में दूसरे का अहित है। इतिहासकार बिपन चंद्र ने इस पर बहुत ही सुंदर विश्लेषण किया है।
भारतीय मुसलमान के लिए उत्तर-औपनिवेशिक भारत में एक ओर तो सरकार तरह तरह की योजनाओं की घोषणाएं कर रही है जिससे ये पिछड़े ‘अल्प-संख्यक’ आगे बढ सकें। राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में भी मुसलमानों की स्थिति में उल्लेखनीय तरक्की दिखलाई पडती है। पहले जब कोई मुस्लिम अभिनेता या अभिनेत्री हिंदी फिल्म में काम करने आता था तो उसे हिंदू नाम दे दिया जाता था- दिलीप कुमार, मीना कुमारी, संजय खान आदि इसके उदाहरण हैं। अब ऐसा नहीं है। देखा जाए तो अब किसी शाहरूख खान, सलमान खान, आमिर खान या कटरीना कैफ को ऐसा करने की जरूरत नहीं। क्रिकेट, टेनिस जैसे खेलों में मुस्लिम खिलाडियों के प्रदर्शन ने भी आम हिंदू के लिए मुस्लिम समाज के बारे में पुराने कई मिथकों को तोडा है।
लेकिन, यह भी सही है कि आज भी मुस्लिम समाज के बारे में जो धारणा पिछले सौ-सवा सौ सालों में करोडों हिंदुओं के मन में बनायी गयी है वह भी कायम है। 1857 के बाद से हिंदू-मुसलमान के बीच जो दीवारें खडी की जाती रहीं और जिस प्रकार का नेतृत्व दोनों सम्प्रदायों के बडे नेताओं ने दिया उसके फलस्वरूप दोनों समुदायों के बीच एक सांस्कृतिक दरार (इतिहासकार भगवान जोश इसे ‘कल्चरल फॉल्टलाइन’ कहते हैं जो मध्य युग से ही चला आ रहा है) को बढाता ही गया। इस विषय में प्राक्-आधुनिक काल-खंड की बहस में जाने का मौका नहीं है, लेकिन संक्षेप में आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता के प्रश्न पर विचार करना जरूरी है ताकि यह समझा जा सके कि आज भी आम मुसलमान और हिंदू के बीच में सहज संबंध क्यों नहीं बन पाया है।
1870 के दशक से ही हिंदू और मुस्लिम इंटेलिजेंसिया ने दोनों सम्प्रदायों को हमेशा के लिए अलगा दिया। मुसलमान का भय हिंदू मन को कितना परेशान करता रहा है इसका प्रमाण तो विभिन्न भाषाओं में (विशेषकर बांग्ला और हिंदी में) लिखा गया साहित्य है जिसमें बर्बर, अनैतिक, कट्टर, अत्याचारी, बलात्कारी मुसलमान हमें लगातार दिखलाई पडता रहा है। बंकिमचंद्र से लेकर शरतचंद्र तक के युग के बांग्ला साहित्य और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर ईश्वरीप्रसाद शर्मा तक के साहित्य में ये लगातार बने रहे हैं। इस ओर साहित्यकार इसलिए भी गये क्योंकि उभरते हुए हिंदू मध्यवर्ग के मन में मुसलमान का भय लगातार बना रहा। यह भय एक ऐतिहासिक सच्चाई है जिससे आँख चुराना एक सच्चाई से बच कर निकलने जैसा ही है। यह भय इसलिए भी और बढता रहा क्योंकि मुस्लिम समाज ने भी कुछ इसी तरह के भय को अपने बीच बनाए रखा।
आम तौर पर मुसलमानों को ‘अल्प-संख्यक’ मानकर उसे कमज़ोर मानने की एक भूल की जाती रही है। यह सच नहीं है। सैयद अहमद खान ने मुस्लिम समाज के बारे में एक बार कहा था कि यह भले ही संख्या की दृष्टि से हिंदुओं की तुलना में कम हों लेकिन यह बहुत ही संगठित कौम है। यह बात लगातार हिंदुओं के नेताओं के परेशान करती रही कि हिंदुओं के बीच वैसी एकता नहीं है जैसी कि (वे समझते थे) मुसलमानों में है। हिंदी-उर्दू विवाद और गौ-रक्षा आन्दोलनों ने इस बात को और हवा दी। बाद में 1940 के बाद जिस तरह से उग्र मुस्लिम सम्प्रदायवाद ने कांग्रेस के राष्ट्रवादी स्वरूप को चुनौती दी और ‘लडकर’ पाकिस्तान ले लिया उसने हिंदुओं के मन में मुसलमानों के बारे में जन्मे अविश्वास को और पुख्ता कर दिया। इसी का खामियाजा आज भी मुसलमान भुगत रहा है। आज एक आतंकवादी घटना होने पर उसकी नैतिक जिम्मेदारी सभी मुसलमानों पर लाद दी जाती है और एक मुसलमान के लिए अपने लिए ठीक वैसे ही चल पाना मुमकिन नहीं रह जाता जिस तरह एक हिंदू चल सकता है।
राजनीति, लोकप्रिय जगत और साहित्य में तमाम तरह की चेष्टाओं के बीच भी मुसलमान संदिग्ध ही बना रहा है। इस बात को झुठलाकर अक्सर इसे कट्टर हिंदू दुष्प्रचार से जोडकर देखा जाता रहा है। इन संगठनों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी सच है कि सब कुछ हिंदुवादी संगठनों का किया धरा नहीं है। स्वाधीन भारत में शुरू से ही एक ऐसी ढुलमुल नीति का पालन होता रहा जिसके परिणाम देर सवेर ऐसे ही आने थे।
जब भारत स्वाधीन हुआ और पाकिस्तान बन गया तब अपनी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन ने अपने एक पात्र से यह कहलवाया कि अब मुसलमानों को चाहिए कि वह इस देश की बोली-वाणी, लिबास और नामकरण आदि को स्वीकार कर ले। यानि अगर मुसलमान और हिंदुओं के बीच पहनावे और नाम आदि में अंतर मिट जाए तो दोनों सम्प्रदायों के बीच की दूरी कम हो जाएगी। राहुल जी इस रूप में देखा था कि रोजमर्रा के जीवन में अंतर के चिह्नों का धार्मिक आधार पर बने रहना लोगों को बाँटे रखेगा। यह एक ऐसा प्रस्ताव था जिसपर विचार हो सकता था। लेकिन इसे साम्प्रदायिक माना गया और कम्युनिस्ट पार्टी ने अंतत: इस तरह के संकीर्ण विचारों के कारण राहुल सांकृत्यायन को अपने दल से बहिष्कृत कर दिया। इस तरह के कुछ और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं जो यह बतलाते हैं कि इस देश में मुसलमानों और हिंदुओं के बीच के अंतर को परोक्ष रूप से कम करने के लिए दृढतापूर्वक कुछ करने सोचने के खतरे उठाने के लिए शासक दल समेत अन्य दल भी आगे आने से डरते रहे। एक ओर विभाजन के कारण जन्मा अविश्वास और दूसरी ओर राजनैतिक दलों द्वारा मुसलमानों के लिए सच्ची बातें न कहकर मीठी मीठी बातें कहते रहने के कारण मुसलमानों की समस्याएं और बढती गयीं।
देखा जाए तो सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में हिंदू और मुसलमानों के बीच अंग्रेजी हुकूमत के पहले तक साझेदारी थी। यह भी सही है कि मुसलमानों का प्रभुत्व था और बहुत सारे हिंदू मन ही मन मुसलमानों के इस वर्चस्व को स्वीकार नहीं करते थे। फिर भी एक साझेदारी तो थी ही। लेकिन, उन्नसवीं शताब्दी में कई ऐसे परिवर्तन हुए जिसके कारण हिंदू और मुसलमानों के बीच अलगाव बढा। सबसे प्रधान कारण बना- मध्यवर्ग का उदय और उससे जुडी महात्वाकांक्षाएं। जिसे बाबू वर्ग कहा जाता है उसका उदय 1820 के बाद हुआ। अंग्रेज़ी हुकूमत की तरफदारी करने वाला यह वर्ग 1857 के बाद और शक्तिशाली हो गया। यह वर्ग एक ‘न्यू क्लास’ था जो ‘न्यू शोशल लीडर’ के रूप में जमींदारों को धीरे धीरे अपदस्थ करने लगा। ऐसे दौर में मुसलमान तालुकदारों के बीच एक शंशय और चिंता का माहौल तैयार हुआ। इसी दौर में सैयद अहमद खान आए और अलीगढ आन्दोलन शुरू हुआ जिसने पढे-लिखे मुसलमानों को अपनी कौम के हित को हिंदू के हित से अलग करके देखने की दृष्टि दी। इसके बाद मुस्लिम लीग का आना और धीरे धीरे ब्रिटिश नीति, हिंदुत्ववादी नेतृत्व और कुछ अन्य कारणों से नेहरू रिपोर्ट के बाद से मुस्लिम राजनीति का गरमाना और क्रमश: भारतीय सामाजिक क्षेत्र (पब्लिक स्फीयर) का साम्प्रदायीकरण होना ऐसी बातें हैं जिसके बारे में विस्तार से चर्चा की जरूरत नहीं।
स्वाधीनता के बाद भारतीय मुसलमान कई तरह के मनोवैज्ञानिक दबावों में भी आ गया। विभाजन के गुनाहगार बने ये मुसलमान अकारण ही दोषी बन गये। यह बात कम विज्ञापित है कि 1947 के बाद से 1964 तक लोग इस मुल्क से उस मुल्क में जाकर बसने के लिए स्वतंत्र थे। फिर भी यह कहना कि मुसलमान “भीतर से पाकिस्तान का गाता है” जैसे भाव का रखा जाना एक राष्ट्रविरोधी सोच का हिस्सा है। अगर लोग चाहते तो पाकिस्तान चले जाते। अगर वे नहीं गए तो इसका मतलब है वे इस देश को ही अपना मादरे वतन मानते थे। ऐसे समय इस्मत चुगताई की कहानी पर सथ्यू की अविस्मरणीय फिल्म ‘गरम हवा’ की याद आ जाती है। बी आर चोपडा की एक फिल्म ‘धर्म-पुत्र’ में भी हिंदू और मुसलमान की सियासी लडाई पर तीखा प्रहार किया गया है। बहुत सारी किताबें भी लिखी गईं जिसने इस ओर हमारा ध्यान खींचा है। राही मासूम रज़ा की ‘आधा गांव’ ऐसी ही एक किताब है।
स्वातंत्रोत्तर भारत के मुसलमानों की रोजमर्रा की मुसीबतों और चुनौतियों का गंभीर विश्लेषण बहुत कम हुआ है। यह एक ऐसा इलाका है जिसपर काम करने में दिक्कतें पेश आती है और बहुधा ‘पॉलिटिकली इंकरेक्ट’ बातें कहनी पडती हैं। तमाम तरह के गैर-कानूनी कामों में मुसलमानों का अपेक्षाकृत अधिक संख्या में होना (जिसकी एक समाजशास्त्रीय व्याख्या भी है) मुसलमानों के लिए संकट का एक कारण बना। बम्बई के तस्करी जगत, ‘अंडर वर्ल्ड’, ‘भाई लोगों का बेशुमार दुबई का पैसा’, और बंगलादेश समेत दक्षिण पूर्व एशिया से जुडा ‘आतंकवादी नेटवर्क’ आदि चीजों के बारे में आम लोगों में इतनी चर्चा हाल के वर्षों में होती रही है कि ये सब चीजें अब देश के ‘कॉमन सेंस’ का हिस्सा बन गयी हैं।
वैश्वीकरण के दौर में भारतीय मुसलमानों के लिए संकट बढता ही गया है। लाखों मुसलमान नौजवान यह सोचते मिल जाते हैं जो मानते हैं कि किसी तरह खाडी में जाकर पैसा कमाने से ही किस्मत बदल सकती है। देश की राजनीति में और चाहे जो भी हुआ हो मुसलमानों के नसीब में एक राष्ट्रीय नेता नहीं जुट पाया। यह एक बडा सवाल है कि जो मुस्लिम सांसद आते हैं उनमें ऐसे नेता अधिक आते हैं जिनकी साफ सुथरी छवि नहीं है। एक क्रिकेटर जो अनुशासनात्मक कारणों से देश की तरफ से खेलने से वंचित किया गया उसे लाकर दक्षिण भारत से उत्तर भारत में एम पी में जितवाने में क्या यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वह मुसलमान है? अगर राजनीति के क्षेत्र में यह साम्प्रदायिकता इतनी फलप्रद हो तो राजनेतागण इसका लाभ कैसे न लें?
जिस एक दाग को मुस्लिम समाज को अपने ऊपर से हटाने में सबसे अधिक दिक्कत होती है वह है आतंकवादी होने के संदेह का। इस देश में सिर्फ मुसलमान आतंकवादी गतिविधि में शामिल नहीं हैं। इस मामले में धर्म का मामला गौण है। हाल की ही एक फिल्म ‘सरफरोश’ में पाकिस्तान से हथियार लाने में मुसलमानों के साथ एक हिंदू ज्योतिषी का होना इस परिघटना को ठीक से व्यक्त करता है। ऐसा ही होता है। आतंकवादी आतंकवादी होता है हिंदू या मुसलमान नहीं। लेकिन, यह भी सच है कि जो अधिकतर आतंकवादी पकडे जाते हैं वे मुसलमान होते हैं। इस कारण से भारतीय मुसलमान को बडी असुविधा का सामना करना पडता है। पाकिस्तान से आकर कुछ आतंकवादी बम्बई में हत्याएं करते हैं और उसके इस कृत्य के लिए सारे भारत के मुसलमान संदेह के घेरे में आ जाए तो इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है?
अंत में, एक आशावादी संकेत से बात समाप्त की जा सकती है। जुलाई 2010 में अमरीका में दुनिया के बहुत सारे देशों से युवा मुस्लिम विद्वानों की एक कार्यशाला आयोजित की गई थी। छ: सप्ताह तक चले इस कार्यशाला से लौट कर कोलकाता विश्वविद्यालय के एक इतिहासकार ने जो कुछ कहा वह दिलचस्प है। उनका कहना है कि पिछले 20 सालों में दुनिया भर के मुसलमानों में भयानक कट्टरता आयी है। उनके हिसाब से भारतीय मुसलमान दुनिया के सबसे उदार हृदय के और खुले विचारों के मुसलमान हैं। अपने विविध अनुभवों को बयान करते हुए उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे अमरीका में भी जो भारत से मुसलमान गये हैं वे अन्य मुसलमानों के तुलना में अधिक उदार हैं।
भारतीय मुसलमानों के इस खुलेपन के साथ अगर सही राजनैतिक इच्छा-शक्ति आ जुडे तो इस देश के मुसलमानों (जिसकी संख्या एक देश में रहने वाले मुसलमानों की संख्या के हिसाब से इंडोनेशिया को छोड़कर सबसे ज्यादा है) की स्थिति सुधरेगी। पर इन सबके लिए खुद इस सम्प्रदाय के लोगों को अन्य सम्प्रदाय के लोगों के साथ मिलकर ही संघर्ष करना होगा। ‘गरम हवा’ के अंतिम दृश्य में पिता (बलराज साहनी) हार कर पाकिस्तान जा रहा होता है। वह देखता है कि उसका नौजवान बेरोजगार पुत्र (फारूख शेख) एक जुलूस में नारे लगाते हुए आगे बढ रहा है। बूढे़ पिता ने अंत में यह निश्चय किया कि वह पाकिस्तान नहीं जाएगा। वह तांगे से उतर कर खुद जुलूस में शामिल हो जाता है। कोलकाता के कथाकार अनय ने ‘तीसरा विभाजन’ नामक कहानी में इस देश के हिंदू और मुसलमान के बीच तीसरे विभाजन के खिलाफ जो एक मानवीय आवाज को देखा है उसकी भी याद आती है।