सामयिक

सब चलता है ने देश का ये हाल किया

कोरोना आया था तो प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी। रणनीति बन सकती थी कि पहले टेस्ट हो जो पॉजिटिव हैं उन्हें अलग रख लिया जाता बाकियों को घर भेजा जाता। खैर ऐसा कुछ हुआ नही और पेट की चिंता कर लोग घर लौटने लगे, कुछ पैदल तो कुछ साइकिल से, कुछ बस से कुछ स्पेशल ट्रेन से। हम उन्हें अपने बच्चों को कंधे पर लादे अपने घरों से देख रहे थे पर आजकल हमें अपने पड़ोसियों से मतलब नही  ये तो अनजान लोग थे, मरते हमारी तरफ से। मरे भी और घर पहुंचे भी।

 कोरोना भी घर घर पहुंच गया था पर वो वाला वायरस कमज़ोर बताया गया। सरकार ने कोरोना पर विजय पताका फहराने की घोषणा कर दी। हम भी गुमान में जी रहे थे, ख़ाक कोरोना, हमारी इम्यूनिटी मज़बूत है, भारत वाले तो मजूरी कर खाते हैं , रोग क्या उन्हें पकड़ेगा। चुनावों की घोषणा हुई, जो लोग बेरोजगार हो रहे थे और जो बच्चे स्कूलों में बिना मतलब की फीस भर रहे थे उनकी बात दबा दी गई।

बहुत से युवा अपने सपने दबाए घर बैठ गये, रोज़गार कर घर की आर्थिक हालत  ठीक कराने वाला सपना सपना ही बन कर रह गया। हां, एक उम्मीद थी कि कोरोना जल्द खत्म होगा और फिर से परीक्षाएं होंगी, उद्योग खुलेंगे। चुनाव हुए तो बेरोज़गार, खाली बैठा युवा उसमें रुचि लेने लगा और खूब ज़ोर शोर से शामिल हुआ। सबसे ज्यादा चर्चा में रहा बंगाल चुनाव, दीदी ओ दीदी ने तो प्रधानमंत्री की गरिमा पर ही बट्टा लगा लिया।

दूसरी लहर की शुरुआत होने वाली थी पर भारत ने कोरोना के नियमों में ढील देनी शुरू कर दी। जिस देश में एक छोटी सी जगह जमाती जमा होने पर इतना हंगामा हुआ वह देश कुम्भ, चुनाव और दर्शकों के साथ क्रिकेट मैच के आयोजन पर चुप था।

अब मरीज़ों की बढ़ती संख्या के साथ स्वास्थ्य सेवा धवस्त होने लगी। सिमित संसाधनों में हमारे डॉक्टरों ने अपना पूरा ज़ोर लगाया पर ऑक्सीजन की कमी सामने आने लगी। विदेशों में दान स्वरूप भेजी गई वैक्सीन खुद के लिए खत्म हो गई, कोरोना में कारगर दवाइयों की कमी होने लगी। 20 बातें जिन्हें कोरोना से लड़ने के लिए अपना लिया जाए तो बेहतर! |  न्यूज़क्लिक

जिस दूसरी लहर का असर कम करने के लिए हमारे पास पूरे एक साल का समय था उसमें हम सिर्फ लापरवाही बरतते गये, बिना मास्क के घूम कोरोना को दावत देते रहे और सरकार अपनी राजनीतिक ताकतों को बढ़ाने में व्यस्त रही।

सोशल मीडिया मंचों पर परिजन अपने रिश्तेदारों को बचाने के लिए प्लाज़्मा डोनर, रेमडेसिवर की भीख मांगते रहे और कालाबाज़ारी, लूट मचाने वाले इस बुरे समय में भी फायदा उठाने से पीछे नही रहे। हमारे अपने भी मरने लगे। गंगा में बहती लाशों के दृश्यों ने मानव के सर्वशक्तिमान होने का गुरुर तोड़ दिया। प्रकृति बता रही है कि उससे शक्तिशाली कोई और नही है। दूरस्थ पहाड़ी गांव हो या लखनऊ का श्मशान चिताओं की जगह हाउसफुल है और वेटिंग का टिकट हज़ारों में बिक रहा है।

घर परिवार की कुशलता की कामना में हर भारतीय का दिन बीत रहा है। मरने वालों को एक दो दिन फेसबुक पेज पर श्रद्धांजलि दी जा रही है फिर बात खत्म। अकेले पड़ चुके परिजनों को अस्पतालों से लाश उठाने के लिए चार कंधे नसीब नही हो रहे हैं। अपने हो या पराए कोरोना होते ही जिंदा या मरे दोनों तरह के लोगों को अकेला छोड़ दिया जा रहा है। मानवता की परीक्षा है।

Covid deaths in India could peak by mid-May at over 5,000 per day: US study  - Coronavirus Outbreak News
फोटो सोर्स : पीटीआई

वैसे हम भारतवासियों को अमीर-गरीब, हिन्दू-मुसलमान, जाति के आधार पर बंट चुके अपने समाज में कुछ भी हो जाए उससे कोई खास फ़र्क नही पड़ता। यही लोग कल ही चुनाव की बात करेंगे जो चला गया उस को भुला दिया जाएगा। यही लोग कल फिर से किसी फ़िल्म के दृश्य पर अपनी जातिगत भावना आहत होने पर चक्काजाम करेंगे। अभी जगह न मिलने पर जहां लाश के दफनाए या जलाए जाने से कोई फ़र्क नही पड़ रहा वहीँ कल इसी मुद्दे पर भीड़ घर जलाने को तैयार रहेगी।

मुझे अभी पिछले साल ही मेरी प्यारी दिल्ली का जलना अच्छी तरह याद है, उस दिल्ली का जहां की मेट्रो पूरे देश की सवारियों को तहज़ीब से बैठने का उदाहरण देती हैं। कितना क्रूर है यह समाज और यह देश। मुझे पूरा विश्वास है कि भारत की अर्थव्यवस्था फिर से हिलोरे मारेगी और हम फिर से भारत के एकदिवसीय क्रिकेट विश्व चैंपियन बनने का इंतज़ार करेंगे क्योंकि यही तो है वह भारत जो हमेशा सब चलता है को सोचकर आगे बढ़ जाता है।

बहुत से बुद्धिजीवी चले गये क्या उससे खाली पड़ी बौद्धिक शून्यता कोई भर पाएगा!!
जिनका परिवार था उस परिवार में कोई उनकी खाली जगह कभी कोई भर पाएगा!
 बहुत से युवा दुनिया बदलने की चाह सीने में रख चले गये क्या कोई उन अधूरे सपनों को पूरा कर पाएगा!!

जो चले गये उनके घर अंधेरा रहेगा और जो बेरोजगार हैं वह आत्महत्या करेंगे पर किसी को कोई फ़र्क नही पड़ता, जो समाज में ऊंचा दर्जा रखते हैं वह राज करेंगे। टूट चुके मध्यमवर्गीय वर्ग के लोगों या गरीबों को नौकरी पर रखेंगे, इतना पैसा देंगे कि वह अपना पेट पाल सकें और तन ढकने को कपड़ा खरीद सके। लोन के बोझ तले पहले भी जिन्दगी दब जाती थी अब भी दबेंगी। सब चलता है और चलता रहेगा। आप सरकार को कोसिए पर आप ही सरकार हैं, वह भी आप जैसे ही हैं या यूं कहें आपसे ही हैं।

खैर शो मस्ट गो ऑन। सब चलता है।

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हिमांशु जोशी

लेखक उत्तराखण्ड से हैं और पत्रकारिता के शोध छात्र हैं। सम्पर्क +919720897941, himanshu28may@gmail.com
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