‘बकस्वाहा की धरती उगलेगी 3.24 करोड़ कैरेट के हीरे’
ओह… धरती को हम कितना देतें हैं!
‘बकस्वाहा की धरती उगलेगी 3.24 करोड़ कैरेट के हीरे’ और इन हीरों के बदले हम धरती को कितना देंगे! लेकिन वो तो माँ हैं उसे कुछ देंगे भी तो अपने पास कुछ नहीं रखती जैसे कि छायावादी कवि सुमित्रानंदन पन्त जी ने कविता ‘आ: धरती कितना देती है! ’में स्पष्ट किया है। कविता छोटे से बालक की मासूमियत से आरम्भ होकर मानव की प्रौढ़ सोच मानवीयता के सन्देश के साथ समाप्त होती है। पैसे बोकर बालक पन्त ने सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे लेकिन जब अंकुर न फूटा तो अबोध बालक ने धरती को ही दोषी मानकर उसे बंध्या मान लेता है, समय के साथ कवि को समझ आता है कि उसने गलत बीज बोये थे, जब सेम बोने पर सेम की बेल और फली के गुच्छे चारों ओर फ़ैल गयें, पन्त जी निष्कर्ष निकालतें हैं कि धरती रत्न प्रसविनी हैं, हम जैसा बोतें हैं वैसा ही फल मिलता है।
लेकिन हमने धरती को दिया क्या? हम जानतें हैं कि धरती हीरे जैसे वास्तविक रत्न भी उगलती है, पर क्या वे मानव ने बोये थे? फिर उन पर मनुष्य का एकाधिकार कैसे हुआ? धरती का पेट चीर कर कैसे वह जंगलों को काट रत्नों का एकाधिकारी हो सकता है? जंगल, जिन पर समस्त प्राणीमात्र का सामान अधिकार है, जंगल में विविध जाति-प्रजाति के पशु-पक्षी विचरण करते है। सदियों से हमारे हितार्थ, डटकर खड़े पुरखें वृक्षों के विषय में सोचते ही नहीं हम, उनके द्वारा पालित और संरक्षित जीवमात्र को तो हम प्राणवान मानते ही नहीं, उन पर अत्याचार करते हुए हमारा हृदय नहीं पिघलता मनुष्य की इस स्वार्थपरकता पर मुक्तिबोध लिखते हैं-
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत बहुत ज्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
सुप्रसिद्ध अभिनेता आशुतोष जी की फेसबुक वाल पर प्रकृति संरक्षण से सम्बन्धित एक सुंदर लेख पढ़ा ‘सम्पति या विपत्ति?’ जिसमें वे जल जंगल और जीवन के संरक्षण को लेकर अपनी चिन्ता जाहिर कर रहें हैं और सन्दर्भ है, मध्यप्रदेश के बकस्वाहा के जंगल जहाँ 3.24 करोड़ कैरेट के हीरों की खोज की गई है जिनकी प्राप्ति के लिए 2.15 लाख पेड़ काटे जायेंगे। यह ख़बर सुर्ख़ियों में है कि पन्ना जिले की मझगवां खदान अब 15 गुने ज्यादा हीरे उगलेगी जिसके लिए सदियों पुराने जंगल काटे जायेंगें। जिन लाखों वृक्षों को काटकर इन्हें निकाला जायेगा वे सदियों से बिना किसी भेदभाव के प्राणीमात्र को अपनी सेवायें प्रदान कर रहें थें जिनमें अनगिनत पशु-पक्षी से लेकर मानव भी आ ही जाता है।
‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ ने मानव को इतना अहंकारी बना दिया कि वो धरती पर स्वयं को सर्वोपरि मानने लगा। प्रकृति हमें विविध घटनाओं के माध्यम से संकेत देती रहती है किन्तु ज्ञान, विज्ञान, तकनीक ने उसे यांत्रिक बना दिया है जहाँ संवेदनाओं की कोई जगह बची नहीं। कोरोना वायरस के रूप में प्रकृति ने हमें सन्देश दिया कि (मैं नहीं)‘हम हैं तो सब हैं’ पर हम ऑक्सीजन की महत्ता भूल गये लेकिन प्रकृति कुछ भी नहीं भूलती उसका प्रत्येक कार्य नियत समय पर होता है, आज जबकि मनुष्य ऑक्सीजन-ऑक्सीजन पुकार रहा है मुझे यह मनुष्य से कहीं ज्यादा प्रकृति की गुहार लगती है जिसका ध्वन्यार्थ है-‘समय रहते सावधान हो जाओ अपने प्रति और प्रकृति के कण कण के प्रति’ क्योंकि इस संकट काल में न कोई रुपया, पैसा या हीरे जवाहरात काम आयें न ही वैज्ञानिक तकनीकें, एक-एक साँस से संघर्ष करता हुआ मनुष्यों का ज़ज़ीरा जाने कौन से काल में विलीन होता गया।
आज जबकि हमारे सामने एक ओर हीरों का कीमती भण्डार है तो दूसरी ओर अमूल्य संरक्षक वृक्ष। इनके काटने के बाद भले ही मनुष्य को अभी बहुतेरे कृत्रिम विकल्प दिखाई दे रहें हों, लेकिन बाकी वन्यजीवों का क्या? क्या वह उन पक्षियों के लिए बसेरा बना सकता है? उन पशुओं के लिए भोजन-पानी की सुविधा मुहैया करवा सकता है? उनके लिए दूसरा जंगल बना सकता है, जहाँ नन्हे जानवर अठखेलियाँ कर पायें? हम अपनी सुविधा के लिए पार्कों का निर्माण भले ही कर लेते हैं लेकिन जंगल बनाना पार्क बनाने-सा नहीं है न ही वह जीव जंतुओं की सुविधा मात्र है वे तो उनकी मूलभूत आवश्यकता है, पर मूर्ख मानव तो अपनी ही मूलभूत ज़रूरतों जल और वायु को भी बर्बाद करने में लगा है।
अभी एक भयंकर संकट टला नहीं कि हम अपने ही संरक्षक पर हमला करने की तैयारी में जुट रहें हैं। किसी अंग्रेजी फ़िल्म में एक क़ातिल का बहुत ही मार्मिक संवाद था ’मैं मानव से नफरत करता हूँ पर ये किसने कहा कि मुझ में मानवीयता नहीं है’ मानव की मानवीयता भी काफ़ी हद तक ‘मानव-मात्र’ तक ही सीमित रह जाती है जबकि यह संवाद जल, जंगल, जमीन सहित सृष्टि के समस्त प्राणीमात्र के प्रति अपनी संवेदनशीलता को मानवीयता से जोड़ रहा है और वही हमारा ध्येय भी होना चाहिए। बचपन में पढ़ा था कि हीरे जमीन से लगभग 160 किलोमीटर नीचे अत्यधिक गर्म तापमान में बनते हैं, विविध ज्वालामुखी जैसी हलचलों के बाद धरती ही इन्हें ऊपर की ओर फेंक देती हैं, इस प्रक्रिया में कार्बन के अणु दुर्लभ हीरे में बदल जाते हैं।
फिर अभी विकिपीडिया पर जानकारी मिली हीरा, रासायनिक रूप से कार्बन का शुद्धतम रूप है इसमें बिल्कुल मिलावट नहीं होती है, यदि हीरे को ओवन में 763 डिग्री सेल्सियस पर गरम किया जाये, तो यह जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड बना लेता है तथा बिलकुल भी राख नहीं बचती है, इस प्रकार हीरे 100% कार्बन से बनते हैं। यानी ऑक्सीजन के बदले हम कार्बन डाईऑक्साइड को पुन:निकाल रहें हैं वह कार्बन डाईऑक्साइड जो हमारी ही साँसों से बाहर निकलता है, विषाक्त होते हुए भी वृक्ष इसका अपने भीतर पान कर लेतें हैं और हमें ऑक्सीजन देतें है ताकि हम सुरक्षित रहें। क्या ग़ज़ब मूर्खता है ज़नाब! लोभ लालच के वशीभूत हम खुद ही विनाशकारी मार्ग की ओर बढ़ते जा रहें हैं।
यह भी हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि प्रकृति के संवर्धन और संरक्षण के लिए हमारे साथ कई पर्यावरणविद हैं जिन्होंने इन जंगलों को बचाने के लिए जनांदोलन का मुहिम आरम्भ कर दी है। पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर सहित गोपाल राठी, सैयद इलियास पर्यावरणविदों ने जंगलों को बचाने के लिए पुन: ‘चिपको आन्दोलन’ जैसा आह्वान किया है। उत्तराखण्ड में जब वनों को निर्ममता से लगातार काटा जा रहा था तो चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरा देवी की पहल पर तथा पर्यावरण विद सुन्दरलाल बहुगुणा जी के नेतृत्व में इस आन्दोलन की शुरुआत हुई।
बहुसंख्या में महिलाएं और पुरुष भी पेड़ों से लिपटकर पेड़ों काटने से रोका करते थें। दुनियाभर में ‘वृक्षमित्र’ के नाम से प्रसिद्ध सुन्दरलाल बहुगुणा जी को, क्या ही बढ़िया श्रद्धांजलि दे रहें हैं हम! जिनके अथक प्रयासों के फलस्वरूप आम जनता जल, जंगल, जमीन और प्रकृति की सुरक्षा के प्रति संवेदनशील और जागरूक हुई। इस आन्दोलन का प्रसिद्ध नारा क्या आज भी उतना ही प्रासंगिक नहीं है जितने जल, जंगल, हवा और मानव-
क्या है जंगल के उपकार, मिटटी पानी और बयार।
मिटटी पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार
यह भी सुखद है कि ट्विटर पर भी यह मुहिम अपनी तीखी प्रतिक्रियाओं के साथ आरम्भ हो चुकी है।
Diamond – Forest paradox.
The natural wealth of Buxwaha forest is worth far more than the diamonds underground. #SaveBuxwahaForest #Save2.15LakhTrees pic.twitter.com/DzMME0oxqP
— Rakhshinda🌱🌏 (@RakshInd) May 27, 2021
इसमें एक विज्ञापन पोस्ट किया गया है जिसके माध्यम से प्रकृति के महत्व को बहुत ही सुंदर ढंग से दर्शाया गया है ‘भैया हीरा दिखाना, तो हीरे की फोटो है फिर लड़की कहती है थोड़ा महंगा वाला तो वहां वृक्ष का फोटो है ’स्पष्ट है वृक्ष हीरे से ज्यादा अनमोल हैं
— Earth Warrior (@EarthWorri) May 19, 2021
समय आ गया कि हम एकजुट हों, और उन तमाम आपराधिक कंपनियों, भ्रष्ट नेताओं को न्यायिक कटघरे में लेकर आयें जो जंगलों को उजाड़ कर हमारी प्रकृति और भविष्य नष्ट कर रहें हैं।
इसी प्रकार 2,005,756 लोगों द्वारा पसन्द किया जाने वाला एक फेसबुक पेज ‘WE DON’T DESERVE PLANET Mission to save earth’ धरती को बचाने के लिए महत्वपूर्ण पोस्ट डालता रहता है। 21 मई 2021 पर यहाँ एक वीडियो मिलता है जिसे ‘कोरोना या कर्मा’ शीर्षक दिया गया है वीडियो के आरम्भ में मनुष्य जूते से कीड़े को कुचल कर प्रसन्न मुद्रा में गाते हुए आगे बढ़ता चला जा रहा है, रास्ते में जो भी प्राणी, पेड़-पौधे जंगली पशु मिल रहें हैं उन्हें निर्ममता से काटता चला जा रहा है, अपने उपयोग या मनोरंजन की धुन में किसी जीवमात्र पर दया नहीं दिखा रहा बल्कि जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है उसकी चाल की तरह संगीत भी भयानक होता जा रहा है उसकी हँसी अट्टहास में बदलती जा रही है, धरती को उसने कूड़े का ढेर में बदल दिया पर माथे पर शिकन तक नहीं बल्क़ि एक कुर्सी पर शासक की भांति बैठ गया। तभी एलियन का प्रवेश होता है और वे उस मनुष्य ठोक-पीटकर पायदान में बदल कर वापस चले जाते हैं जिस पर वेलकम लिखा है जो शायद नई धरती के स्वागत का हो सकता है। मनुष्य को ताकत और मानवीयता के मायने समझने होंगे अन्यथा उसका भी पायदान-सा होने में देर न लगेगी।
भारतीय संस्कृति में पेड़-पौधों के महत्व से भी हम सभी परिचित हैं। आज प्रकृति और वृक्षों के धार्मिक-सांस्कृतिक के महत्व को बताने के लिए विविध वेबिनारों का आयोजन हो रहा है, स्कूलों और महाविद्यालयों में प्रकृति संरक्षण के नारे, स्लोगन, चित्रकला प्रतियोगिताएं होती हैं, फैंसी ड्रेस कम्पीटीशन, नाटकों नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से बच्चों जागरूक किया जा रहा है, पर्यावरण से सम्बन्धित पाठ्यक्रम भी तैयार हो रहें है और पढ़ाए जा रहें हैं, लेकिन दूसरी ओर उसी प्रकृति के पीठ में छुरा घोंपा जा रहा है।
पर्यावरण के प्रति जागरूक किन्हें करना होगा बताने की ज़रूरत नहीं। प्रकृति के कण-कण में ईश्वरीय शक्ति को मानने वाले हम, उसी प्रकृति को नष्ट करते आयें हैं और ये सिलसिला थमा नहीं। और आपदा आने पर उसी ईश्वर को पुकारते हैं कि वो हमें बचा लेगा। माता, पिता, बन्धु और सखा रुपी प्रकृति ने सदा हमारा साथ निभाया और समय-समय पर आगाह किया, बचाया। आज भी कोरोना महामारी में इतना सबक सिखा रहा है कि उसने अपने द्वार पर ताले तक चढ़ा लिए, क्या प्रकृति का यह संकेत भी हमें समझ न आया?
हीरे कब काम आते हैं और किसके काम आतें हैं? कहते हैं कि कोहिनूर की कीमत इतनी ज्यादा है कि ढाई दिन तक पूरी दुनिया भरपेट खाना कह सकती है लेकिन वो तो ब्रिटिश महारानी के मुकुट ने सजा बैठा मानों हमारा मुँह चिढ़ाता है। जीवनदायिनी वृक्ष हमें कभी भूखे नहीं सोने देते, लेकिन पत्थर से भी कठोर हीरे कौन खा सकता है, वो तो वैसे भी कार्बन ही होतें है। जिस कार्बन को वृक्षों ने, धरती ने सोंखकर कार्बन रुपी हीरा बनाया उन्हें क्यों न वहीँ दफन क्यों नहीं रहने दिया जाए जबकि ये जंगल आज भी हमें ऑक्सीजन देने को तत्पर हैं बिना किसी शुल्क के, बिना किसी भेदभाव के।
‘हीरा है सबके लिए’ जैसे झूठे विज्ञापन गढ़ने वाली कंपनियों समाज को गुमराह ही करती हैं, क्योंकि हीरे निकलने के बाद जब वे बाज़ार में आयेंगें तो सिर्फ पैसों में ही खरीद पायेंगे। क्योंकि पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं। कोरोना के कारण मानवीयता के नाम पर, नर कंकालों पर महल बनाने की बात तो हम सभी कर रहें हैं, जो ग़लत नहीं किन्तु हमारे संरक्षक जंगलों और वन्य जीवों को शमशान में तब्दील किया जा रहा है उस पर भी बात करनी होगी मानवीयता मानव में होती है जो समस्त सृष्टि के लिए होती है, जंगल का निर्माण कुछ वर्षो या सालों में नहीं होता बल्कि वे सदियों की धरोहर हैं और धरोहर को संरक्षित किया जाता है न कि उजाड़ा जाता है।
राज्य सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना होगा कि हीरों की खातिर, भविष्य को ताक़ पर रखकर धरती को उजाड़ना कहाँ तक उचित है? बकस्वाहा की धरती से हीरे उत्खनन पर विकिपीडिया पर एक खबर थी कि हीरा उद्योग में बढ़ेगी भारत की चमक अगले पाँच-दस वर्षों में भारत दुनिया में हीरा उद्योग का एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरेगा। हीरे का कारोबार करने वाली अंतरराष्ट्रीय कंपनी डी बियर्स की सहयोगी इकाई डायमंड ट्रेडिंग कंपनी (डीटीसी) के मुताबिक दुनिया के ९० फीसदी हीरों के तराशने का काम भारत में होता है, ऐसे में यहाँ हीरा उद्योग के फलने-फूलने की अपार संभावनाएँ मौजूद हैं। प्रश्न है कि हीरा उद्योग तो फलेगा-फूलेगा लेकिन क्या उन्हें धरती में बोकर पुन: वे वृक्ष उगाये जा सकते हैं जो हम सबके लिए प्राणदायक होंगें? मुट्ठी भर लोगों की विलासिता की पूर्ती के लिए वन्यजीवों से भरपूर समस्त जंगल को क्यों नष्ट किया जाये ?
एक समय पन्त जी ने प्रकृति को महत्व देते कहा था, छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन‘मोह’ नामक इस कविता में सांसारिक प्रेम को मोहमाया ही माना गया है लेकिन अपनी काव्य यात्रा के अंत समय तक आते-आतेपन्त जी भी मानवता के गीत गाते हुए प्रकृति को कहीं पृष्ठभूमि में रख, कह उठते हैं ‘सुंदर है विहग, सुमन सुंदर, मानव तुम सुंदरतम’ पंक्तियाँ बहुत सुंदर हैं जो सृष्टि में मानव के महत्व को स्थापित करतीं हैं लेकिन मुझे लगता है इस गीत में मानवीयता निहित ‘सुन्दरतम’ की संकल्पना पर पुन: विचार करना होगा, मानव विहग, सुमन आदि से सुंदरतम कब हो सकता है? बिना ‘शिव’ के सुंदर’तम’ तम ही फैलाएगा जबकि हमें प्रकाश की ओर जाना है लेकिन मनुष्य ने तो संभवतः सुन्दरतम का अहं पाल लिया जो आज नहीं तो कल डस कर मानेगा।
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