सिनेमा

बाल मन के कोनों को छूती ‘बाइसिकल डेज’

 

भारतीय फिल्म उद्योग में बालमन तथा बच्चों को आधार बनाकर कई फिल्में आईं हैं। लेकिन गिनी चुनी फिल्में ही हिट कैटेगरी के दायरे में रहकर अपना नाम कमा पाई। ब्लू अंब्रेला, नन्हे जैसमेर, अपना आसमान, तारे जमीं पर, भूतनाथ, बम बम भोले, थैंक्स मां, मिस्टर इंडिया, सलाम बच्चे, पाठशाला, जैसी कितनी ही फिल्मों ने बाल मन के साथ-साथ बड़ों को भी उसमें डुबोया, भिगोया, उतारा। कुछ फिल्में प्रसिद्धि पा गई तो कुछ ठंडे बस्ते में पड़ी रहीं जिन्हें कायदे के प्रचार न होने की मार झेलनी पड़ी।

इधर अब एक और ऐसी ही फिल्म आई है। देवयानी अनंत की बाइसिकल डेज। कहानी है एक दस साल के बच्चे आशीष की। मध्यप्रदेश के एक गांव में मध्यमवर्गीय परिवार का यह बच्चा आम बच्चों की तरह अपने आसपास के माहौल को देख वैसी ही प्रतिक्रियाएं करता है। वह भी अपने दोस्तों के संग शहर में पढऩा चाहता है फिर उसका अपना ही परिवार उसे रोकता है। क्यों वह फिल्म देखकर आपको पता लगाना होगा। जबकि उसकी बड़ी बहन शहर में पढ़ने जा रही है। जबकि वह गांव की पाठशाला में अपनी बहन की पुरानी किताबों से उकता रहा है। स्कूल में एक दिन सबको साइकिल सरकार की तरफ से मिली लेकिन उस बच्चे को नहीं मिली इसका कारण भी फिल्म देखकर पता कीजिए।

भाई अब सब कुछ हम ही बता देंगे तो आप फ़िल्म ही क्यों देखेंगे! खैर खेलकूद में, पढ़ाई में सब काम में अव्वल और भावनाओं से संवेदनशील यह बच्चा जब अपने आसपास हो रहे बदलावों को समझ नहीं पाता तो निराश होने लगता है। उसके भीतर ग्लानि का भाव सा तैर जाता है वह हर उस बात और व्यक्ति से नाराज हो जाता है जिससे अब तक वह खुश होता था।

यह फिल्म पूरी तरह से बाल मन को छूती नज़र आती है। हर एक क्षण यह आपको बच्चों के करीब ले जाती हुई विपरीत परिस्थिति में धैर्य रखना भी सिखाती है। “धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।” कबीर की यह पंक्ति दोहराते हुए यह फ़िल्म भी धीरे धीरे आगे बढ़ती है और आप दर्शकों के दिल में बैठ जाती है।

अपनी बढ़िया और कसी हुई स्क्रिप्ट के साथ उतनी ही बढ़िया लेखनी से लिखी हुई इस फ़िल्म के गाने भी आपको कर्ण प्रिय तो लगते ही हैं बल्कि साथ ही एक अच्छे और सच्चे दोस्त के साथ-साथ एक अच्छे शिक्षक की पहचान भी यह फिल्म करवा ले जाती है। फिल्म खत्म होने पर सिनेमाघरों से बाहर आते समय आपके चेहरे पर एक हंसी-खुशी के साथ बाल मन को समझने का जो भाव तिर रहा होता है वही तो असल में इस फिल्म का मकसद है।

इंडिपेंडेंट डायरेक्टर्स के साथ कई सारी दुश्वारियां हैं कभी बजट की कमी तो कभी उनकी कही हुई कहानियों का इतना मारक हो जाना की एक विशेष बौद्धिक वर्ग तक उनका सिमट कर रह जाना। लेकिन इस सब को मात देते हुए इस फिल्म की लेखिका, निर्देशिका, संवाद लिखने वाली देवयानी अनंत अच्छे नम्बर से पास होती है। देवयानी ने इससे पहले कुछ फिल्मों में बतौर सह निर्देशिका काम किया है।

वहीं केयूर भगत द्वारा रचित संगीत, कहानी में उन भाव को जोड़ते नज़र आते हैं जिनकी असल में जरूरत महसूस होती हैं। वहीं पी. कल्याणी सुनील द्वारा कैप्चर की गई फिल्म की उम्दा सिनेमैटोग्राफी कहानी में यथार्थवाद पैदा करती है। साथ ही कैमरे से निकली मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों की सुंदरता और उन्हें शूट करने के तरीके से भी यह प्रभावित करती है।

छोटे-छोटे से सीन इस तरह की फिल्मों को खूबसूरत बनाते हैं, देखने लायक बनाते हैं साथ ही बाल सिनेमा में एक नया अध्याय जोड़ते हैं। हर बार कोई ‘दंगल’ जैसी फिल्म आए तभी आप बच्चों को समझा पाएं मेहनत और उसका परिणाम यह जरुरी नहीं। कभी-कभी इस तरह हल्के-फुल्के तरीके से उन बच्चों को भी फिल्में देखने दीजिए क्या पता वे आपके सपनों को अपना सपना समझकर आगे बढ़ जाएं।

अभिनय के मामले में दर्शित खानवे बने आशीष, आयुषी जैन बनी राशि, मुदित गुन्हेरे बने सुनील तथा साथी बाल कलाकारों की फ़ौज चेतन, प्रवीण, किशन, माधुरी, गौतम, मयंक, भोला आदि भी इसे भरपूर देखने लायक बनाते हैं। युवा साइंस टीचर का रोल करते हुए सोहम शाह ने अपने स्वाभाविक अभिनय फिल्म में आदर्श टीचर के रुप को सार्थक किया है। ऐसे ही निधि दीवान, मितुल गुप्ते, उमेश शुक्ला, सुवर्णा दीक्षित, शशांक प्रजापति, रोमिल पटेल आदि भी करते नज़र आए।

एडिटर बी महंतेश्वर तथा फिल्म में ध्वनि प्रभाव को विपिन भाटी ने जिस तरह संभाला है उसके चलते भी यह फ़िल्म दर्शनीय बन पड़ी है। साहेब श्रेय के लिखे गीत और उन पर गायक नकाश अजीज , अभय जोधपुरकर, प्रिया भगत की सुरीली आवाजें आपको भी गीत गुननाने पर मजबूर करते हैं। ऐ परिंदे, मन बावरे, तेरी मेरी यारी तीनों ही गाने उतने ही सुंदर लगते हैं देखने सुनने में जितना की यह फिल्म।

कमी अखरती है तो बस इस बात की के अचानक फिल्म खत्म होती है और अपना कोई सार्थक मूल उद्देश्य स्थापित नहीं कर पाती। साथ ही इस बात की भी के कुछ एक दो कलाकार अपना और बेहतर करते या फिर उनकी जगह कोई दो एक जाने पहचाने चेहरे लिए जाते। दर्जन भर फिल्म समारोहों में ईनाम और प्रशंसा पा चुकी यह फ़िल्म सिखाती है कि अगर गलतियों की सजा मिलनी चाहिए तो अच्छे कामों पर प्रोत्साहन भी देना चाहिए।

कुलमिलाकर बालमनों को छूने वाली इस फिल्म को देखना अवश्य चाहिए अपने बच्चों के साथ। तो जाइए इस शुक्रवार को सिनेमाघरों में अपने बच्चों को लेकर आनंद के साथ-साथ कुछ सीखकर आइएमनोविश्लेषणवाद को भी। क्योंकि जिनके बच्चे नहीं हैं उनके भी तो कभी होंगे साथ ही अपने बच्चों के अलावा दूसरों के बच्चों को उनके मनोभावों को समझना सीखिए। क्योंकि आज के समय में सबसे ज्यादा यही पिस रहे हैं आपके सपनों के तले

अपनी रेटिंग -3.5 स्टार

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तेजस पूनियां

लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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