एक फिल्मकार का हलफ़नामा : भाग 5
गतांक से आगे…
खत्रीजी पर फिल्म बनाने की योजना सोच तो लिया किन्तु इसे कार्यान्वित कैसे करूँ? यह सोच फिर एक बार उनकी जीवनी पढ़ने लगा। पढ़ते हुए ध्यान आया कि खत्रीजी ने अपनी पुत्री का विवाह बनारस के एक कक्कर परिवार में किये थे और उनकी पुत्री की तीन बेटियाँ भी थी। बनारस में मेरे कुछ परिचित और रिश्तेदार थे। बनारस चल पड़ा यह सोंचकर कि वहाँ के कक्कर परिवार की तलाश करूँ, शायद किसी का लड़-जड़ खोज उनके किसी वंश तक पहुंच सकूँ।
लेकिन पूछ-पाछ और लाख ढूंढने पर भी वहाँ कुछ पता न चल सका। जब कक्कर साहेब के बारे में कोई बता नहीं पाया तो उनकी पुत्री और पुत्री की पुत्री के बारे में पता कैसे चलता! जिस देश में लड़कियों की शादी पश्चात उसका अपना नाम तक खो जाता हो और उनके नाम की जगह, उसे जगहों के नाम से पुकारे जाने का चलन हो! (यह बात घर में ही देखता आया। बचपन से माँ को लोगों द्वारा पुकारते हुए सुनता था ‘सुलतानपुरवाली’ और ताई को ‘नखलउवाली’।
चूँकि मेरा ननिहाल वैशाली के महनार के पास सुलतानपुर गाँव में था तो माँ सुलतानपुरवाली कहलायीं और ताई का मायका लखनऊ, तो नखलउवाली पुकारी जाती थी। उन दोनों का अपना नाम खो चुका था। तब के दौर में यही चलन था पूरे इलाके में। वैसे आज भी यह गाँव से समाप्त नहीं हुआ है। शादी होते ही लड़कियाँ पहले बहु हो जाती हैं फिर माँ, मासी, बुआ, सास, दादी, नानी। उनका अपना नाम खो चुका होता है। जब कभी मासी आती थी तो माँ का नाम सुनने को मिलता! ) तो खत्रीजी की पुत्री और उनकी पुत्रियों का ठिकाना, वह भी इतने वर्षों बाद कैसे मिलता! थक-हार लौटने के लिए ट्रेन पकड़ी।
खत्री जी पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाने की उत्कंठा जोर पकड़ रही थी, जबकि फिल्म बनाने का कोई अनुभव तो था नहीं, सिवा इसके कि 1976 में मुजफ्फरपुर दूरदर्शन में बतौर प्रोडक्शन असिस्टेंट के रूप में प्रोड्यूसर राधेश्याम तिवारी के साथ छः माह काम किया था और प्रकाश झा द्वारा वीर कुँवर सिंह पर बनाई गई धारावाहिक ‘विद्रोह’ नामक फिल्म में अत्यंत छोटा सा रोल निभाते हुए फिल्म के बनने की प्रक्रिया को समझने करीब एक माह उनके साथ बेतिया, बगहा और मदनपुर के जंगलों में रहा था। इस फिल्म के संग मेरा जुड़ना, ‘विद्रोह’ के पटकथा लेखक विजयकांत के कारण हो सका था। बस, कुल जमा उसी अनुभव की आधार पूँजी के साथ इस फिल्म की योजना बनाई।
अब फिल्म के लिए एक स्क्रिप्ट की जरूरत थी। इसके लिए शेखर से बात की, कि अयोध्या प्रसाद खत्री पर एक डॉक्यूमेंट्री बनानी है। ये खत्री स्मारक ग्रंथ लो और देखो कि इस पर फिल्म बन सकती है या नहीं। कुछ दिन बाद वह बोला कि भाई जी, खत्री जी पर बहुत अच्छी डॉक्यूमेंट्री बन सकती है। तो मैंने कहा कि एक स्क्रिप्ट लिख दो। चूँकि स्क्रिप्ट लेखन का काम वह मुजफ्फरपुर दूरदर्शन के लिए करता था इसलिए उसने जल्द ही स्क्रिप्ट लिखकर दे दी, उसे पढ़कर निराशा हुई। पढ़ते हुए लगा कि आज के इस तेज भागते जमाने में इसे देखेगा कौन? यह सोचकर उनपर एक टेलीफिल्म बनाने की ठानी। अब इसके लिए स्क्रिप्ट लिखना था। यह कार्य आरंभ करने से पहले खत्रीजी के परिवार और उनके साथ जुड़े मुजफ्फरपुर के लेखकों, उनके ‘खड़ी बोली का पद्य, पहिला भाग’ के प्रबल विरोधियों और समर्थकों की लिस्ट तैयार की और उनके बचपन से लेकर प्रौढ़ावस्था तक के जीवन का खाका तैयार किया।
फिर फिल्म के लिए महत्वपूर्ण कैरेक्टर को छांटना शुरू किया कि किस कैरेक्टर को फिल्म में रखना है और किसे छोड़ना है। खत्री जी एवं उनकी पत्नी, उनके माता-पिता, दोनों भाई और उनकी पत्नियां, रामदीन सिंह, गोविंद चरण, रामकृष्ण पाण्डेय, मुंशी हसन अली, बंगाल गवर्नर, भूदेव मुखोपाध्याय, किताब दुकानदार, अयोध्या प्रसाद भंडारी, स्कूल हेडमास्टर, राजवैद्य पंडित द्रवेश्वरनाथ, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जैन वैद्य, श्यामसुन्दर दास, युद्धक मारूक, राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र, श्रीनारायण पाण्डेय, भुनेश्वर मिश्र, परमेश्वर नारायण मेहता, देवकीनंदन खत्री, ग्रियर्सन, फ्रेडरिक पिन्काट आदि की लिस्ट बनाई।
क्योंकि यही लोग खत्री जी के जीवन और आंदोलन के मुख्य किरदार थे। पुनः इस फिल्म में आने वाले संवाद के लिए परिश्रम करनी पड़ी। वह इसलिए कि नवजागरण काल के उस दौर में चले खड़ी बोली काव्य-भाषा आंदोलन के समय जो घमासान आरोप-प्रत्यारोप हुआ था उसका मूल स्वर इस फिल्म में दिखे। खत्री जी के प्रबल विरोधी राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र और समर्थकों में से एक पंडित श्रीधर पाठक के आरोप-प्रत्यारोप वाले महत्वपूर्ण आलेखों में से संवाद निकाल पात्रों के मुख में डालने के लिए एकत्र किया। रात-रात भर जगकर खत्री स्मारक ग्रंथ के महत्वपूर्ण हिस्से को अंडरलाइन करता, नोट करता कि कहीं कोई महत्वपूर्ण घटना छूटे नहीं।
जब एक मुकम्मल खाका तैयार कर लिया तब यहाँ के रंगकर्मी स्वाधीन दास से बात की। वे भी खत्रीजी की जीवटता और जुनून के कायल हुए थे पुस्तक पढ़कर और फिल्म के प्रति उनकी भी उत्सुकता बनी। स्क्रिप्ट लिखने का काम शुरू करने के लिए स्वाधीन दास और शेखर शंकर को शामिल किया। शेखर ने सुझाया की सुरेश को भी साथ रखा जाए, वह लिखता जाएगा तो काम तेजी से निकलेगा। मैं खुद उतावला था इसलिए मैंने हामी भरी। स्क्रिप्ट का काम शुरू हो गया। रोज शाम अपने घर के टेरेस पर बैठ दृश्य, संवाद, बैकग्राउण्ड के बारे में सोचता जबतक कि स्वाधीन दास, शेखर और सुरेश न आ जुटते।
बेगम चाय-नाश्ते के प्रबंध करती। सीन पर बहस होती और काम आगे बढ़ता। एक दिन जब एक सीन का ड्राफ्ट उनलोगों के सामने रखा तो उन्होंने कहा कि किताब में कहीं भी देवकीनंदन खत्री का उल्लेख नहीं मिलता, फिर इस सीन का क्या औचित्य? तब मैंने बताया कि कुछ चीजें श्रुति परंपरा से आती है। मैं बचपन से अपने दादा के छोटे भाई स्व.नरसिंह नारायण नंदा एवं ताऊ, पिता और बुआ से सुनता आया था कि जब ‘चन्द्रकान्ता’ की चर्चा देश भर में होने लगी और उस उपन्यास को पढ़ने के लिए लोगों ने खड़ी बोली सीखने लगे थे तो परमेश्वर नारायण महथा ने यहाँ खत्रियों की एक सभा बुलाकर देवकीनंदन खत्री को सम्मानित किया था, जिसमें अयोध्या प्रसाद खत्री भी शामिल हुए थे। यह बात सुनकर वे लोग चकित भी हुए और सहमत भी।
सुरेश रहुआ से अपनी सायकल से आता था। शेखर तब चंदवारा में रहता था। देर हो जाने पर उसे या तो अपनी बाइक से छोड़ता या पानी टंकी पर रिक्शा पकड़वा उसके जेब में कुछ रुपये डाल देता। सुरेश डिक्टेशन लेता था तो उसे भी हफ़्ते में कुछ रुपये देता। चूँकि उस वक़्त दोनों के पास कोई नियमित आमदनी का जरिया नहीं था और अपना कीमती समय दे रहे थे इसलिए यह मुनासिब भी था। बेगारी कोई कितने दिन करता।
हालांकि दोनों मुझे अग्रज भ्राता मान लिहाजवश लेने से सकुंचाते थे, लेकिन उनदोनों की बात अनसुना करता रहा। नाट्यकर्मी स्वाधीन दास के पास भी कोई नियमित आमदनी का जरिया नहीं था इसलिए एक दिन उनसे पूछा कि महीने में आपका काम कितने में चल जाता है? तो उन्होंने एक हजार की बात कही। उस दिन से उनके मासिक खर्च का जिम्मा पूरी करने लगा। साथ ही जब वे साथ होते, चाय-पानी तो कॉमन कटसी थी। सिगरेट के वे शौक़ीन थे, उस वक़्त मैं भी विल्सफिल्टर पीता था तो उन्हें भी एक पैकेट रोज खरीद कर देता। एक दिन देखा कि वे सिगरेट का पैकेट दुकानदार को लौटा कर कोई दूसरा सस्ते ब्रांड का तीन या चार पैकेट ले रहे हैं। खैर…।
जारी…..