
एक फिल्मकार का हलफ़नामा
अयोध्या प्रसाद खत्री (1857-1905) की डेढ़ सौवीं जयंती समारोह को बीते तेरह वर्ष से ज्यादा हो गए। पटना के छज्जुबाग स्थित ‘हिन्दी-भवन’ में यह 5-6 जुलाई 2007 को संपन्न हुआ था, किन्तु इसे घटित करने से लेकर सम्पन्न होने तक किन-किन मुश्किलों, कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, कैसे-कैसे नामधारियों-महारथियों से पाला पड़ा, साहित्य के नामवरों और मैनेजरों की ईर्ष्या, द्वेष, क्षुद्रता, गुटबाजी के बाणों से छलनी हुआ, उसी का हलफनामा है यह। बात चली है तो बहुत दूर तलक जाएगी और रुख से किसके नक़ाब हटेंगे, नहीं जानता। निंदा नहीं करूँगा, लेकिन घटनाएँ निंदित होगी तो उसपर मेरा बस चलेगा क्या ?
उस वक़्त की घटित घटना के दर्पण पर पड़ी धूल को जब साफ करने बैठा तो अग्रज मित्र-शायर जितेन्द्र जीवन का एक शे’र याद आन पड़ा –
“आओ दिखलाऊँ तुम्हें आंखों का आईना अपना
क्या करोगे तुम शीशे के आईना लेकर।”
वैसे तो यह हलफनामा आयोजन पश्चात ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए था टटका-टटकी। लेकिन आहत मन तैयार न था। मगर ‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे’ के तंज भरे बाणों से बिंधता जब भीष्म की तरह निढाल हो व्यंग बाणों की शय्या पर पड़ गया तो घटनाएं चलचित्र की भांति चल पड़ी।
वर्षों बाद इसका सिरा पकड़ने की कोशिश में चीजें रीमिक्स की तरह गडमड होने लगी। कोई सिरा कभी पीछे का पकड़ाता तो कभी बीच का, तो कोई आरंभ का। अंततः तय किया कि प्रारंभ से ही क्यों न आरंभ करूँ।
वर्ष याद नहीं, बस इतना याद कि बिटिया अपने जीके का पाठ याद कर रही थी कि ‘चन्द्रकान्ता के रचयिता बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री थे।’ मैं अवाक ! सुधार के लिए टोका कि देवकीनन्दन नंदन खत्री। तो उसने हठ की, – ‘मिस ने बताया है। और आप ही तो कहते हैं मिस गलत नहीं होती’। बाद में मिस से मिला तो झेंपते हुए गलती स्वीकार की, किन्तु मेरे जेहन में यह बात बैठ गई कि अयोध्या प्रसाद खत्री की कर्मभूमि और देवकीनंदन खत्री (1861-1913) की इस जन्मभूमि के लोग जब इन दोनों का फ़र्क नहीं कर पाते, तो दूसरों की बात जुदा है।

अयोध्या प्रसाद खत्री पर खोज प्रारंभ कर दी। उनके बारे में जानने के लिए किताबें ढूँढने लगा। स्थानीय साहित्यकारों, मुजफ्फरपुर के कालेजों और बिहार यूनिवर्सिटी के हिन्दी प्राध्यापकों से मिला। कोई नाम सुन चौंकते, तो कोई कहता- ‘हाँ, कभी रिफरेन्स में यह नाम सुना था’। यह आश्चर्यजनक लगा जानकर कि बिहार यूनिवर्सिटी में आजतक अयोध्या प्रसाद खत्री पर कोई शोध नहीं हुआ है! यूनिवर्सिटी के भूतपूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रमोद कुमार सिंह के बारे में रश्मि रेखा ने बताया कि उनसे मिलो। उनके निवास गया और आने का मकसद बताया तो कहने लगे- हाँ, बहुत पहले खत्री जी के अवदान पर एक आलेख लिखा था, जो यूनिवर्सिटी की स्मारिका में छपी थी।’ मैंने वह स्मारिका चाही तो उन्होंने कहा कि ठीक है, निकाल कर रखूँगा।
महीनों दौड़ता रहा मगर हर बार वही- कल! कल कभी आया ही नहीं। फिर किसी ने बताया कि खत्रीजी पर अमरनाथ मेहरोत्रा ने कुछ लिखा था, जो हिन्दी के प्राध्यापक प्रो.रामप्रताप नीरज द्वारा संपादित पत्रिका में छपी थी। मेहरोत्रा जी के रमना वाले निवास का बेल बजाया। द्वार खुला तो अपना नाम बताते उपस्थित होने का कारण बताया। खुश हो वे अंदर ले गए और चाय पेश करते बोले- “उस पत्रिका में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के बाद मेरा ही लेख है। बहुत लंबा लेख मेरा ही है उसमें, करीब आठ पेज का।” मैंने पत्रिका मांगी तो बोले- “खोजना होगा। खोजकर रखेंगे तो आइयेगा, फोटोस्टेट कराकर दे दूँगा।” न वे खोज ही पाए और न फोटोस्टेट हो सका। हालांकि काफी बाद में वह पत्रिका मुझे किसी दूसरे व्यक्ति से मिली, लेकिन तब तक वह मेरे कोई काम की नहीं रह गई थी।
अंततः मुझे सन् 1959 ई. में विश्लेषण कार्यालय, साहू रोड, मुजफ्फरपुर से प्रकाशित एक किताब दीपावली के समय पिता की संचित किताबों में मिली। ‘अयोध्या प्रसाद खत्री’ नाम की यह पतली-दुबली पुस्तक रामदयालु सिंह कॉलेज के हिन्दी प्राध्यापक प्रो. विद्यानाथ मिश्र द्वारा संपादित थी। यह पुस्तक श्री उमाशंकर, प्रो. विद्यानाथ मिश्र, श्री शारदा प्रसाद भण्डारी, प्रो.रमाकांत पाठक, प्रो. श्रीमती सरोज प्रसाद, श्रीमती अभिरामा, प्रो.उदयशंकर, श्री राधारमण टंडन, श्री महाशंकर एवं प्रो.कामेश्वर शर्मा द्वारा लिखे गए आलेखों का संग्रह था। इन आलेखों को पढ़ने के बाद खत्री जी के प्रति मेरी जिज्ञासा और बढ़ी। प्रो. विद्यानाथ मिश्र विश्लेषण कार्यालय से “विश्लेषण” नामक द्वैमासिक आलोचना पुस्तिका भी निकालते थे, जो उस समय विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए काफी उपयोगी थी। मिश्रजी कभी हमारे पड़ोस में रहते थे। लेकिन अब मिश्र जी तो रहे नहीं, इसलिए उनके पुत्र अवधेश मिश्रा से इस संबंध में मिला। चर्चा की तो उसने बकलोली झाड़ी- ‘हमरा उ सब न मालूम हओ। खटुआ से पूछअ। ओकरे पास होतौ त होतौ। ओहि घर पे कुंडली मार के बइठल हओ।’ कहता हुआ अपने घर का खटराग सुनाने लगा। खटुआ उसके अनुज का नाम था।
खटुआ से मिलना दुश्कर काम था। एक तो कौन सा सदगुण न था उसमें। कब कहाँ पाया जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। देसी दारू की भट्ठी में, ताड़ीखाने में, गंजेडियों की संगति में या कि मैंडरेक्स की गोली खातिर हरिसभा चौक स्थित दवा की दुकान में। उसके सब अड्डे छान मारा। ‘बस अभिये तो निकला है’ यही सुनता वापस होता रहा। घर, बहलखना रोड में था लेकिन ताला लटकता मिलता। एक दिन अहले सुबह दरवाजा नॉक किया तो बच्चू धराया। मुझे देख अंदर ले गया और बैठा कर फारिग होने चला गया। कमरे के रैक पर धूल खाती ढेरों किताबें पड़ी दिखी। उत्सुकतावश उठकर कुछ किताबें उठा-उठाकर देखता और छींकता रहा। मेरे मक़सद का कुछ न दिखा। आधा घंटे बाद दो प्याली नींबू की चाय संग प्रकट हो एक मेरी ओर बढ़ाते हुए नकियाया- “भोले-भोले ?” मकसद बताया तो कहा- “ठिंक हयं, कैं गों किताब त हइं। खोंजे के पडतईं।” यह खोज आज-कल में टलता रहा तो एक व्यक्ति ने त्रिनेत्र खोला- “अद्धा खोलो यार, फिर देखो उसका प्यार।”
बस क्या था, एक दिन दोपहर आधा ‘बूढ़ा फकीर’ ले धमक गया। उसकी बांछे खिल उठी। झट गिलास पानी का इंतजाम कर पुड़िया में रखे चना को खोल-खाल फैल गया।। चबेना खाते-पीते-बतियाते बूढ़ा फकीर निपट चुका था। मैंने पूछा-“और लेंगे ?” तो वह निर्विकार भाव से नकियाया- “अपनां देंख लींजिए, मेला क्या हय। मेला त दिनों मयकदे में, अं सामो मयकदे में।” मैं बाहर निकल एक और ‘बूढ़े फकीर’ को धर दबोच लाया। उसने पैग बना मेरी ओर बढ़ाया और एक खुद गटक कर उठा। कमरे की लाइट जला अंदर गया। अंदर से लौटा तो उसके हाथ में चार किताबें थी। मैं खुशी से झूम उठा और उठा। उसने बूढ़े फकीर की ओर इशारा करते टोका-“अभीं पैंग बाँकी हएं। ‘वो अब आप लीजिए, मेरा तो नशा इस किताब को देख दूना हो गया।”- कहकर किताब समेट वापस। उन किताबों को पलटते-पढ़ते कब नींद लगी, कब भोर भई, पता ही नहीं चला। पता चला तब जब बेग़म चहचहाई !
जारी …..