शख्सियत

हमारे समय का अनुपम आदमी : अनुपम मिश्र

 

आजाद भारत के असली सितारे – 35

 

हमारे समय का अनुपम आदमी”- प्रभाष जोशी ने अनुपम मिश्र के बारे में यही कहा था। उनके निधन पर वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए उनका एक व्यक्ति-चित्र खींचा था, सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हंसमुख, कोर-कोर मानवीय। इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक। दो जोड़ी कुर्ते-पायजामे और झोले वाले इंसान। गाँधी मार्ग के पथिक। ‘गाँधी मार्ग’ के सम्पादक। पर्यावरण के चिन्तक। ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक।”

एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन के उद्गार से अनुपम मिश्र का उक्त चित्र पूरा बनता है, “स्मार्टफोन और इंटरनेट के इस दौर में वे चिट्ठी-पत्री और पुराने टेलीफोन के आदमी थे। लेकिन वे ठहरे या पीछे छूटे हुए नहीं थे। वे बड़ी तेज़ी से हो रहे बदलावों के भीतर जमे ठहरावों को हमसे बेहतर जानते थे।”

सरल, सपाट, टायर से बनी चप्पल पहनने वाले अनुपम एकदम शांत स्वभाव के थे। उनका अपना कोई घर नहीं था। वह गाँधी शांति प्रतिष्ठान के परिसर में ही रहते थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटा, बड़े भाई और दो बहनें हैं। 19 दिसम्बर 2016 को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली में इस संत ने अन्तिम सांस ली। वे काफी समय से प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित थे। उस समय उनकी उम्र 68 वर्ष की थी।

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में सरला मिश्र और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र के रूप में सन 5 जून 1948 को हुआ था। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से 1969 में संस्कृत से एम.ए. किया और उसके बाद गाँधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली से जुड़ गये।

अनुपम मिश्र एक लेखक, सम्पादक, छायाकार और पर्यावरणविद् तो थे ही, उनकी छवि एक आदर्श गाँधीवादी संत की थी। पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यान आकर्षित करने की दिशा में वह तब से काम कर रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग भी नहीं खुला था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के उन्होंने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी से खोज-खबर ली, वह सरकारी विभागों और बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के लिए भी आसान नहीं है। उन्ही के प्रयास से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ था और वहाँसूख चुकी अरवरी नदी में अनवरत जल प्रवाहित होने लगा। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजस्थान में भी परम्परागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया।

गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान दिल्ली में उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। वह इस प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘गाँधी मार्ग’ के संस्थापक और सम्पादक भी थे। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबन्धन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का अभूतपूर्व कार्य किया। वे 2001 में दिल्ली में स्थापित सेन्टर फार एनवायरमेन्ट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखण्ड के ‘चिपको आन्दोलन’ में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वह जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह की संस्था ‘तरुण भारत संघ’ से भी जुड़े रहे और लम्बे समय तक उसके अध्यक्ष रहे। वे जयप्रकाश नारायण के साथ दस्यु उन्मूलन आन्दोलन में भी सक्रिय रहे।

अनुपम मिश्र की प्रसिद्ध पुस्तक है, ‘आज भी खरे हैं तालाब।’ इस पुस्तक के लिए उन्हें 2011 में देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह किताब पहली बार 1993 ई. में छपी थी। पाचवाँ संस्करण 2004 में छपा और इसमें कुल 23000 प्रतियाँ छपीं। 2004 तक इसकी एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी थीँ। इस पुस्तक ने अपने-अपने क्षेत्र के जलस्रोतों को बचाने की ऐसी अलख जगाई कि सैकड़ों गाँव अपने पैरों पर खड़े हो गये और यह सिलसिला आज भी जारी है। हमारे देश में बेजोड़ और सुंदर शीतल जलाशयों की कितनी विराट परम्परा थी, यह पुस्तक उसका भव्य दर्शन कराती है। तालाब बनाने की विधियों के साथ-साथ अनुपम जी ने उन गुमनाम नायकों को भी अँधेरे कोनों से ढूँढ निकाला जो विकास के नए पैमानों के कारण बिसरा दिए गये थे। ब्रेल सहित 19 भाषाओं में प्रकाशित इस पुस्तक की माँग आज भी यथावत है।

अनुपम मिश्र ने इस किताब को कॉपीराइट से मुक्त रखा और कहा कि किताब पढ़िये, अच्छी लगे तो छाप कर बेच दीजिए। उन्होंने इसकी कोई रायल्टी नहीं ली। इसे कोई भी छाप सकता है, प्रचारित कर सकता है, बिना मूल्य या मूल्य के साथ बेच सकता है या वितरित कर सकता है। अपनी पुस्तक “आज भी खरे हैं तालाब” में श्री अनुपम मिश्र ने समूचे भारत के तालाबों, जल-संचयन पद्धतियों, जल-प्रबन्धन, झीलों तथा पानी की अनेक भव्य परम्पराओं की समझ, दर्शन और शोध को लिपिबद्ध किया है। भारत की यह पारम्परिक जल संरचनाएं, आज भी हजारों गाँवों और कस्बों के लिये जीवनरेखा के समान हैं। अनुपम जी का यह कार्य, देश भर में काली छाया की तरह फ़ैल रहे भीषण जलसंकट से निपटने और समस्या को अच्छी तरह समझने में मार्ग दर्शक की भूमिका निभाता है। पर्यावरण और जल-प्रबन्धन के क्षेत्र में वर्षों से लगे रहने का परिणाम हैं उनकी ये पुस्तकें।

पानी के लिए तरसते गुजरात के भुज के हीरा व्यापारियों ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपने पूरे क्षेत्र में जल-संरक्षण की मुहिम चलाई। पुस्तक से प्रेरणा पाकर पूरे सौराष्ट्र में ऐसी अनेक यात्राएं निकाली गईं। मध्यप्रदेश के सागर जिले के कलेक्टर श्री बी. आर. नायडू ने उनकी पुस्तक से प्रभावित होकर क्षेत्र में काम करना शुरू किया और उनके प्रयास से सागर जिले के 1000 तालाबों का उद्धार हुआ। ऐसी ही एक और अलख के कारण शिवपुरी जिले के लगभग 340 तालाबों की सुध ली गयी। मध्यप्रदेश, पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्र के भी सैकड़ों किस्से मिल जाएंगे जहाँ इस पुस्तक ने बदलाव का बिगुल बजाया। यहाँ तक कि फ्रांस की एक लेखिका एनीमोंतो के हाथ जब यह पुस्तक लगी तो एनीमोंतो ने इसे दक्षिण अफ्रीकी रेगिस्तानी क्षेत्रों में पानी के लिए तड़पते लोगों के लिए उपयोगी समझा। उन्होंने इसका फ्रेंच में अनुवाद किया।

      अनुपम के लिए तालाब केवल जल-स्रोत नहीं थे बल्कि वह सामाजिक आस्था, परम्परागत कला-कौशल और संस्कारशीलता के उदाहरण थे। वे किताबी शिक्षा को केवल औपचारिक शिक्षा मानते थे। आधुनिक शिक्षा में पर्यावरण के पाठ की उपेक्षापर दुख व्यक्त करते हुए अपनी पुस्तक में वे लिखते हैं – “सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। ये इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हज़ार बनाती थीं। पिछले दो-सौ बरसों में नये किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया।’’

अपने एक लेख में अनुपम मिश्र, विनोबा भावे की एक उक्ति दोहराते हैं जिसमें विनोबा कहते हैं- “पानी जब बहता है तो वह अपने सामने कोई बड़ा लक्ष्य, बड़ा नारा नहीं रखता, कि मुझे तो बस महासागर से ही मिलना है। वह बहता चलता है। सामने छोटा–सा गड्ढा आ जाए तो पहले उसे भरता है। बच गया तो उसे भर कर आगे बढ़ चलता है। छोटे–छोटे ऐसे अनेक गड्ढों को भरते–भरते वह महासागर तक पहुँच जाए तो ठीक, नहीं तो कुछ छोटे गड्ढों को भर कर ही संतोष पा लेता है। ऐसी विनम्रता हम में आ जाए तो शायद हमें महासागर तक पहुँचने की शिक्षा भी मिल जाएगी।’’ अनुपम का जीवन बिनोबा भावे की इसी उक्ति का प्रायोगिक संस्करण है।


यह भी पढ़ें – मन्नू भाई मोटर चली ,पम पम पम


अनुपम मिश्र के पिता प्रख्यात गाँधीवादी कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ग्रंथावली का सम्पादन करने वाले हिन्दी के प्रतिष्ठित आलोचक विजय बहादुर सिंह ने अनुपम मिश्र के निधन पर लिखा है,

उनका समूचा जीवन एक आधुनिक ऋषि का था, जो जल यज्ञ में अपादमस्त डूबा नहीं, रमा था। जिन लोगों ने थोड़ा बहुत भी वैदिक ग्रंथों के पृष्ठों को उलटा-पुलटा है, वे जानते होंगे कि निसर्ग वरदानों को लेकर ऋषियों की दृष्टि क्या रही है। जल हो, प्रकाश हो, अग्नि हो या फिर आकाश- सबके प्रति एक कृतज्ञता का भाव, न कि अहम्मन्यता, दंभ और स्वामित्व का मुगालता। देश की नदियों की कलकल से जो ध्वनि संगीत फूटता है, उसे उन्होंने ध्यान देकर सुना था। उनके होशंगाबाद से संवाद करती रेवा (नर्मदा) पर उनके पूज्य पिता भी न्योछावर थे। अपनी समूची काव्य सृष्टि के पर्याय के रूप में उन्होंने नर्मदा को उपमित किया था। इन्हीं संस्कारों के चलते वे जीवन भर जल की आरती उतारते रहे।

       इसी तरह हिन्दी के एक वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी लिखतें हैं, “संतों के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे अपने अनुभव की सहज अभिव्यक्तियाँ करते हैं। अनुपम मिश्र का व्यक्तित्व इसी कारण संतों से मिलता-जुलता था।

अनुपम मिश्र को गाँधी शांति प्रतिष्ठान उनके पिता भवानी प्रसाद मिश्र ही लेकर गये थे। वहाँ उन्होंने मुद्रण का काम सीखा और किया। संयोगवश राजस्थान गये बीकानेर, तो वहाँ देखा कि मरुभूमि में पानी का संग्रह कैसे किया जाता है। वहाँ जल संग्रह की विधि देखकर वे बहुत प्रभावित हुए और वे उसी मिशन में लग गये। इस जानकारी ने उनके जीवन की दिशा निर्धारित कर दी।

आज भूजल स्तर लगातार गिर रहा है, पानी-उद्योग विकसित हो रहा है, कहते हैं कि अगला विश्व युद्ध तेल के लिए नहीं, पानी के लिए लड़ा जाएगा। ऐसे में अनुपम मिश्र जल संकट का समाधान इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि संकट, संकट नहीं लगता और समाधान विश्वसनीय लगता है। उसमें खर्च भी बहुत कम। इस समस्या का समाधान हमारे पास सदियों से मौजूद है लेकिन हम उसे भूल चुके हैं और उल्टे प्रकृति के अक्षय स्रोत के विनाश पर तुले हैं।

अनुपम मिश्र द्वारा प्रस्तावित जल के संकट का समाधान सिर्फ जल के संकट का समाधान नहीं है, वह पाँच तत्वों के संकटों का समाधान भी है। इतना ही नहीं, वह इस शैतानी सभ्यता से होने वाले विनाश का विकल्प भी है। भविष्य के विकास की विश्वसनीय दिशा है यह।

देश में पानी की कमी तो है नहीं। हर साल भयंकर बाढ़ भी आती है और सूखा भी पड़ता है। फिर यह विडंबना क्यों घटित होती है? जल का यह संकट प्राकृतिक नहीं है, मानव-सृजित है और इसका समाधान भी हमारे ही पास है जिसकी ओर अनुपम मिश्र ने सिर्फ इशारा ही नहीं किया, अपितु प्रयोग करके दिखा भी दिया।

अनुपम मिश्र ध्यान दिलाते हैं कि संकट मूलत: हमारी मानसिक गुलामी का है। मानसिक गुलामी की प्रवृत्ति हमारे भीतर अपनी हर वस्तु से घृणा करना सिखाती है, उसकी अवमानना के लिए हमें प्रेरित करती है। हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने इतिहास और यहाँ तक कि अपने लोगों से भी घृणा करना अपना स्वभाव बना लेते हैं। निस्संदेह राजनैतिक दृष्टि से आज़ाद होने के बावजूद हम मानसिक तौर पर पहले से अधिक गुलाम हुए हैं। आज हम अपनी जानकारी से अपनी परिस्थितियों के अनुकूल न विचार बना पाते हैं, न तकनीक विकसित कर पाते हैं। साहित्य, दर्शन, शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, संस्कृति, मनोरंजन आदि सबकुछ हम पश्चिम से ले रहे हैं। कितना शर्मनाक है यह?

अनुपम मिश्र बताते है कि हमारे देश में गाँव के आसपास तालाब, पोखर, कूप, चाल, खाल आदि बनाए जाते थे और जल को संरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती थी। यह काम पूरे देश में प्रकृति के गुणावगुणों को जाँच-परखकर उसे अनुकूलित कर के कुशलतापूर्वक किया जाता था। इस काम के विशेषज्ञ थे लेकिन वे जनसामान्य में घुले-मिले लोग ही थे। उनकी विशेषज्ञता उन्हें शेष समाज से अलग-थलग नहीं करती थी। अनुपम मिश्र ने यह सारा ब्यौरा देते हुए मध्यकालीन भारत में जल-व्यवस्था का विश्व-कोष तैयार किया है। अनुसंधान का मॉडल प्रस्तुत किया है। पता नहीं कितने शब्दों – अप्रचलित, अर्धप्रचलित भूले-बिसरों – को पुनर्जीवित किया है, उन्हें सार्थक बनाया है। इस विशद धैर्य परीक्षक अनुसंधान प्रक्रिया में उन्होंने आधुनिक, मध्यकालीन और एक हद तक प्राचीन भारत की जाति व्यवस्था, उसके आर्थिक आधार के ढाँचे का भी प्रामाणिक आधार खड़ा किया है। अनुपम मिश्र लिखते हैं,

“तालाब निर्माण करने वाली अनेकानेक जातियों में से एक है – गजधर। गजधर वास्तुकार थे। गाँव-समाज हो या नगर-समाज, उनके नवनिर्माण की, रख-रखाव की जिम्मेदारी गजधर निभाते थे। नगर नियोजन से लेकर छोटे से छोटे निर्माण के काम गजधर के कंधों पर टिके थे। वे योजना बनाते थे, कुल काम की लागत निकालते थे, काम में लगने वाली सारी सामग्री जुटाते थे और इस सबके बदले वे अपने जजमान से ऐसा कुछ नहीं माँग बैठते थे जो वे दे न पाएं। लोग भी ऐसे थे कि उनसे जो कुछ बनता, वे गजधर को भेंट कर देते। काम पूरा होने पर पारिश्रमिक के अलावा गजधर को सम्मान भी मिलता था। सरोपा भेंट करना अब शायद सिर्फ सिख परम्परा में ही बचा है पर अभी कुछ ही पहले तक राजस्थान में गजधर को गृहस्थ की ओर से बड़े आदर के साथ सरोपा भेंट किया जाता रहा है। पगड़ी बाँधने के अलावा चाँदी और कभी सोने के बटन भी भेंट दिए जाते थे। जमीन भी उनके नाम की जाती थी। पगड़ी पहनाए जाने के बाद गजधर अपने साथ काम करने वाली टोली के कुछ और लोगों का नाम बताते थे, उन्हें भी पारिश्रमिक के अलावा यथाशक्ति कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी।” (आ.ख.ता. पृ. 18,) निस्संदेह ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक हमारा विस्मृत आत्मविश्वास लौटाती है।


यह भी पढ़ें – अनुपम पथ के अनुपम राही


अनुपम मिश्र बताते हैं कि हमारा समाज अपने जीवन के अक्षय स्रोत को बनाने, उसके संरक्षण की विधि को जानता था। तालाब बनाना और उसकी देखभाल करना समाज का स्वत:स्फूर्त सहज सामान्य व्यवहार था। इस संस्कार को हमें दुबारा अर्जित करना होगा।

      ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है।’ नाम की उनकी एक पुस्तक है। यह बिहार की भयंकर बाढ़ के बाद लिखी गयी थी। इसका भी मूल स्वर वही है। परम्परा से लोग बाढ़ की विभीषिका से बचने का रास्ता अपनाना भी जानते थे और अभ्यासवश उन्होंने नदियों का अपने हित में उपयोग करना भी सीख लिया था। बिहार में नंदिया ताल बनाये जाते थे। नंदिया ताल का मतलब वे तालाब जो नदी के अधिक जल के इकट्ठा होने से बन जाते थे या बना लिये जाते थे। नंदिया ताल बाढ़ के प्रकोप को क्रमश: कम कर देते थे। पानी तालाबों में रुक जाने से उसका वेग कम हो जाता था। बाढ़ के प्रलयंकर प्रभाव को रोकने के लिए आश्चर्य में डाल देने वाली योजना थी चारकोसी झाड़ी। चारकोसी झाड़ी का मतलब चार कोस की चौड़ाई का जंगल।

 जाहिर है कि, ऐसा नपा-तुला जंगल लोग लगाते होंगे। कहते हैं कि इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह-बारह सौ किलोमीटर तक थी और वह पूर्वी उत्तर प्रदेश तक विस्तारित था। ये चार कोसी झाड़ी बाढ़ के प्रबल वेग को रोकने में काफी कारगर होती थीं।

अनुपम मिश्र पर्यावरणविद् और पर्यावरण के लेखक हैं। वे मात्र चिन्तक लेखक नहीं हैं। लेखन उनकी आन्दोलन सक्रियता का अंग है। स्वतन्त्र भारत में ऐसे लेखक दुर्लभ हैं जिनके लेखन ने आन्दोलन का रूप लिया हो। उनका लेखन और व्यक्तित्व मानो स्वाधीनता आन्दोलन के युग का कोई बचा रह गया सक्रिय अंश हो। वे अपने लेखन में स्वप्न निर्मित करते हैं। स्वप्न प्राय: भविष्य का देखा जाता है। अनुपम मिश्र के लेखन से अतीत भविष्य का स्वप्न बन जाता है और वह स्वप्न वर्तमान में दृश्य भी होता है। वह केवल मन की आंखों से नहीं खुली आँखों भी कई जगहों पर दिखलाई पड़ता है। पुस्तक में इसकी जानकारी दी गयी है। अनेक प्रकाशित लेखों में इसकी जानकारी दी गयी है। घनघोर सूखे के समय में आज भी समाचार-पत्रों में ऐसी घटनाओं की जानकारी मिलती है, जहाँ गाँव के लोग अपने सामूहिक श्रम से – ज्यादा पैसा खर्च किये बगैर अपने काम भर का पानी बखूबी संचित कर लेते हैं। (द्रष्टव्य, पहल, जुलाई 2016)

राघवेन्द्र शुक्ल ने 19 दिसम्बर 2017 को उनकी बरसी पर लिखा है, “भगीरथ ने पितरों के उद्धार के लिए गंगा का धरती पर अवतरण कराया था। ऐसे में अगर अपने परिवार से इतर सोचते हुए एक व्यापक उद्देश्य की परिणति में कोई एक गंगा की जगह पानी की अनेक गंगाएं धरती पर उतार दे तो यही कहना होगा कि ऐसी शख्सियत भगीरथ से एक क़दम आगे है। तब उसे आधुनिक भगीरथ नहीं कहा जाएगा बल्कि भगीरथ को सतयुग का अनुपम मिश्र कहा जाएगा।

पत्रकार रवीश कुमार ने लिखा कि, “वे मेरे लिए तालाब थे। उनसे पानी भर कर लाता और अपने चैनल पर दर्शकों के सामने उड़ेल देता।

1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार ‘इंदिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया।

.

Show More

अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x