शख्सियत

अफसानानिगार सआदत हसन मंटो

 

    11 मई 1912 को लुधियाना के बैरिस्टर परिवार में जन्मे सआदत हसन मंटो की आज 108वीं जयंती है। उर्दू के इस रचनाकार ने अपनी सूझ-बूझ से ऐसी रचनाएँ लिखीं जो आज के समय में समाज को आईना दिखा रही हैं। उनका लेखन बहुत लोगों के लिए आग है तो वहीँ  कइयों के लिए मरहम भी। आज भले ही मंटो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी  कहानियों और किस्सों की ज़मीन आज भी हमारे बीच मौजूद है। जितनी बार पढ़ते हैं, ऐसा लगता है कि उनकी लिखी हुई कहानियों को अभी ठीक से पढ़ना बाकी है। दरअसल मंटो की कहानियाँ अपने अन्त के साथ खत्म नहीं होती हैं बल्कि वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं।

मंटो अपनी किताब गंजे फ़रिश्ते में लिखते हैं कि ‘मैं ऐसे समाज पर हज़ार लानत भेजता हूँ जहाँ यह उसूल हो कि मरने के बाद हर शख्स के किरदार को लॉन्ड्री में भेज दिया जाए जहाँ से वो धुल-धुलाकर आए’

    अक्सर लोग कहा करते हैं कि मंटो अपने वक्त से आगे के लेखक थे। लेकिन मंटो इसके अलावा  बिल्कुल अपने वक्त के भी  कहानीकार थे। उनकी कहानियों में वे विषय मौजूद थे, जो लिखे तो उस दौर में गये थे, मगर आज अधिक प्रासंगिक लगने लगे हैं। आज के लोगों, खासकर युवाओं की इसमें दिलचस्पी इसलिए है क्योंकि मंटो के अफसाने उनकी तर्कवादी सोच पर खरे उतरते हैं। औरत-मर्द के रिश्ते, दंगे और भारत-पाकिस्तान का बँटवारा जैसे मसले एक अलग ही अंदाज़ में उनके अफसानों में मौजूद होते थे। उनके अफसानों की वे औरतें, जो उस वक्त भले कितनी ही अजीब लगती रही हों। लेकिन व्यवहार में वह वैसी ही थीं, जैसी एक औरत सिर्फ एक इंसान के तौर पर हो सकती है।

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    अपनी कहानियों की औरतों के बारे में मंटो कहते हैं, ‘मेरे पड़ोस में अगर कोई महिला हर दिन अपने पति से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिये जरा भी हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई महिला अपने पति से लड़कर और आत्महत्या की धमकी दे कर सिनेमा देखने चली जाती है और पति को दो घंटे परेशानी में देखता हूँ तो मुझे हमदर्दी होती है’। मंटो जितनी बारीकी से औरत-मर्द के रिश्ते के मनोविज्ञान को समझते थे उसी अन्दाज में अपने पाठकों तक उसे पहुँचाते भी थे। लगता है कि उनके अन्दर एक मर्द के साथ एक औरत भी ज़िंदा थी। saadat hasan manto

    मंटो और इस्मत चुगताई की शादी के बारे में भी कई प्रकार की बातें की जाती थीं। मंटो ने बात को यह कहकर साफ़ कर दिया था कि ‘मंटो और इस्मत की शादी अगर हो जाती तो इस हादिसे का असर अहदे-फाज़िर के अफ्सान्वी अदब की तारीख़ पर एटमी हैसियत रखता। अफसाने, ‘अफ़साने’ बन जाते, कहानियां मुड़-तुड़ के पहेली बन जातीं….।’ इस्मत कभी-कभी इस बात पर झेंप जाती थीं। इस्मत का कहना था कि ‘सारे लेखक, खासकर मर्द लेखक मेरे मित्र थे। सिर्फ एक मंटो को छोड़कर। मंटो से मेरी दोस्ती की ख्वाहिश तो जैसे दिल से मांगी गई मुराद जैसी थी, पर दिल से मांगी गई मुरादें इतनी आसानी से पूरी भी कहाँ हुई हैं’। इन पर साथ-साथ मुकदमे चलते,कोर्ट की पेशियों में भी ये साथ जाते और बरी भी साथ ही हो जाते। इस्मत मंटो को मेरे दोस्त मेरे दुश्मन दोनों के नाम से बुलाती थी।  

बँटवारा और पाकिस्तान विस्थापन

    मंटो को बँटवारे का दर्द हमेशा सताता रहा। 1948 में पाकिस्तान जाने के बाद वे  वहाँ सिर्फ सात साल ही जी सके। मंटो का पाकिस्तान जाना उनके लिए सही साबित नहीं हो सका।  जितनी तवज्जों उन्हें हिन्दुस्तान में दी गयी उतनी शायद ही कभी पाकिस्तान में। वहाँ उनके दिन बहुत मुफलिसी में गुज़रे। मुम्बई में वह ज्यादातर अशोक कुमार और अपने दोस्त श्याम चड्ढा के साथ रहते थे। बँटवारे के बाद अशोक कुमार के साथ घूमते हुए एक दिन उन्हें मुसलमानों के मोहल्ले से निकलने में डर लगने लगा। श्याम चड्ढा को भी उनके पाकिस्तान जाने का कारण माना जाता है। बँटवारे के दौरान एक सिक्ख परिवार के साथ गुज़रे हादसे पर गुस्सा दिखाते हुए श्याम का कहना था कि मन करता है कि इन मुसलमानों को मैं अपने हाथों से ही मार दूँ।

मैं भी तो मुसलमान हूँ, क्या तुम मुझे भी मार दोगे?

इस पर मंटो का कहना था कि मैं भी तो मुसलमान हूँ, क्या तुम मुझे भी मार दोगे? श्याम ने कहा हाँ। इसके बाद ही मंटो पाकिस्तान चले गये और कभी वापिस नहीं आये। 1912 में भारत के पूर्वी पंजाब के समराला में पैदा हुए मंटो 1955 में पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के लाहौर में दफन हो गये। पाकिस्तान में उनके अफसानों को अदब के लहजे से सटीक न कह कर नकार दिया जाता था।  अफसानों में अश्लीलता के आरोप की वजह से मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था। जिसमें से तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और तीन बार पाकिस्तान  बनने के बाद, लेकिन एक भी बार मामला साबित नहीं हो पाया। अफसाने जिन पर मुक़दमे चले काली सलवार, धुआँ, बू, ठंडा गोश्त, ‘ऊपर-नीचे और दरमियाँ।’

manto

    पाकिस्तान में गुज़रे सालों के बारे में ये लिखा मिलता है, ‘मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूँढ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है.. मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ।’ कुछ सालों पहले ही मंटो के लेखों का एक संग्रह ‘व्हाई आई राइट’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद होकर निकला है। सआदत हसन मंटो के व्यक्तित्व पर मंटो के नाम से नंदिता दास के निर्देशन में 2018 में फिल्म बनी है जिसमें नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने मंटो का किरदार निभाया था। इस फिल्म को पाकिस्तान में बैन कर दिया गया था।

निशान-ए-इम्तियाज

पाबन्दी का कारण मिनिस्ट्री ऑफ़ कल्चर में मजहबी इन्तहापसन्दों  का प्रभाव बताया गया है। उनका मानना है कि लेखक की कृतियाँ अश्लीलता फ़ैलाने का कारण हैं। दलील यह सामने आयी है कि बोर्ड को कोई एतराज़ नहीं था पर फ़िल्म में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बँटवारे का ‘सही चित्रण’ नहीं है। अब यह फिल्म नेटफ्लीक्स पर उपलब्ध है। इसे कोई भी देख सकता है। कुछ समय पहले ही पाकिस्तान ने उन्हें निशान-ए-इम्तियाजसे नवाजा और उनकी याद में डाक टिकट जारी किया।

    अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से मुलाक़ात के बाद मंटो ने रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्रांसीसी साहित्य भी पढ़ना शुरू कर दिया। अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही मंटो ने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे “द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड” का उर्दू में तर्ज़ुमा किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ। यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदण्ड के विरोध में लिखा था, जिसका तर्जुमा करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गयी है वह उनके दिल के बहुत क़रीब है। अगर मंटो के अफ़सानों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था।

रचनात्मकता की उकसाहट

    पहला अफसाना ‘तमाशा’, जो जालियांवाला बाग की घटना से निकल कर आया था जिसे रचनाकार ने महज 7 साल की उम्र में जिया था। 1934 में 22 साल की उम्र में मंटो ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी। अली सरदार जाफ़री से मंटो की मुलाक़ात यहीं हुई और यहाँ के माहौल ने उनके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया और उन्होंने अफ़साने लिखने शुरू कर दिये। “तमाशा” के बाद उनका दूसरा अफ़साना “इनक़िलाब पसंद” आया जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ। 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, शीर्षक था “आतिशपारे।”saadat hasan manto

अलीगढ़ से मंटो एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गये। वहाँ से वह लाहौर चले गये, जहाँ उन्होंने कुछ दिन ‘पारस’ नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन ‘मुसव्विर’ नामक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन किया। इस दौरान उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए “आओ…”, “मंटो के ड्रामे”, “जनाज़े” तथा “तीन औरतें” विवादास्पद अफ़साना “धुआँ” और समसामियक विषयों पर लिखे लेखों का संग्रह “मंटो के मज़ामीन” भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुआ। उनकी बेचैन रूह फिर उन्हें मुम्बई  खींच ले गई। जुलाई 1942 के आसपास मंटो मुम्बई आये और जनवरी 1948 तक वहाँ रहे फिर पाकिस्तान चले गए। मुम्बई के इस दूसरे प्रवास में एक बहुत महत्वपूर्ण संग्रह “चुग़द” प्रकाशित हुआ, जिसमें “चुग़द” के अलावा एक बेहद चर्चित अफ़साना “बाबू गोपीनाथ” भी शामिल था।

पाकिस्तान जाने के बाद उनके प्रकाशित संग्रह

    पाकिस्तान जाने के बाद उनके 14 संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें 161 अफ़साने संग्रहीत थे। इन अफ़सानों में “सियाह हाशिए”, “नंगी आवाज़ें”, “लाइसेंस”, “खोल दो”, “टेटवाल का कुत्ता”, “मम्मी”, “टोबा टेक सिंह”, “फुंदने”, “बिजली पहलवान”, “बू”, “ठंडा गोश्त”, “काली सलवार” और “हतक” जैसी तमाम चर्चित रचनाएँ शामिल हैं। मुम्बई के अपने पहले और दूसरे प्रवास में मंटो ने साहित्यिक लेखन के अलावा फ़िल्मी पत्रकारिता में भी हाथ आजमाया और फ़िल्मों के लिए कहानियाँ व पटकथाएँ लिखीं, जिनमें “अपनी नगरिया”, “आठ दिन” व “मिर्ज़ा ग़ालिब” ख़ास तौर पर चर्चित रही। इनके कुछ कार्यों का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।

के. आसिफ़ ने जब पहले-पहल ‘अनारकली’ के थीम पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया, तो मंटो ने आसिफ़ के साथ मिलकर उनकी कहानी पर काफ़ी मेहनत की थी, लेकिन उस वक़्त फ़िल्म पर किन्हीं कारणों से काम आगे नहीं बढ़ सका था। लेकिन बाद में जब उसी थीम पर “मुग़ले-आज़म” के नाम से काम शुरू हुआ, तो मंटो लाहौर जा चुके थे। यह महज एक इत्तेफ़ाक ही है कि 18 जनवरी 1955 को जब लाहौर में मंटो का इंतकाल हुआ, तो उनकी लिखी हुई फ़िल्म “मिर्ज़ा ग़ालिब” दिल्ली में हाउसफुल जा रही थी।

मैं अफसाना नहीं लिखता

    खुद को बड़ा लेखक या फिर महान ज्ञाता और चिन्तक साबित करने की खातिर मंटो कभी दलील  नहीं देते थे। बस कहते थे कि  ‘मैं अफसाना नहीं लिखता, अफ़साना मुझे लिखता है…कभी-कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इतने अच्छे अफसाने लिखे हैं? मैं ऐसे ही लिखता हूँ जैसे खाना खाता हूँ , गुसल करता हूँ। मुझे अफसाना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है। तो मैं कागज लेता हूँ बिस्मिल्लाह करके, अफसाना शुरू कर देता हूँ, मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं, मैं उनसे बातें भी करता हूँ। उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अगर कोई मिलने आया तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ…और अफसाना भी लिखे जाता हूँ।’

    मंटो का रचनाकाल  भले ही छोटा रहा  हो लेकिन रचनाओं की गिनती से  शायद ज्यादा  महत्त्वपूर्ण यह बात है कि उन्होंने 50 बरस पहले जो कुछ लिखा, उसमें आज की हक़ीक़त सिमटी हुई नज़र आती है। उन्हें  अपने किये पर कभी कोई पछतावा नहीं रहा उनका मानना था कि “मैंने जो जिया वही  लिखा है। और आज तक अपना लिखा एक भी शब्द नहीं मिटाया।”  

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फाल्गुनी शर्मा

लेखिका इण्डिया न्यूज़ में कार्यरत हैं| सम्पर्क +919555702300, falguni211298@gmail.com
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