सोशल डिस्टेंसिंग बनाम क्लास डिस्टेंसिंग
आज पूरी दुनिया एक विचित्र चिन्ता में डूबी हुई है। जाति, धर्म, आतंकवाद आदि से परे अधिकांश इसी ख्याल में खोये हैं कि कोरोना से कैसे मुक्ति पायी जाए? कोरोना महामारी ने सिर्फ हमारे देश को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को बहुत कुछ सिखा दिया है। साथ ही इसने समाज को बहुत कुछ नया भी दिया है। कोरोना के कारण हम एक नवीन जीवन शैली की ओर अग्रसर हुए हैं। साथ ही सबसे महत्वपूर्ण योगदान बढ़ते प्रदूषण को संतुलित करने में मिला, पशु-पक्षी भय मुक्त हो गये हैं। इस प्राईवेट चैनल के युग में दूरदर्शन जैसे सरकारी चैनल ने टीआरपी में सबको पीछे छोड़ दिया। इसके अलावा सोशल डिस्टेंसिंग, क्वारंटीन, लॉकडाउन आदि जैसे महत्वपूर्ण शब्द भी इस महामारी के बीच निकल कर सामने आया।
सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने सामाजिक दूरी को पहले ही बढ़ा दिया था, क्योंकि लोग सोशल मीडिया पर सामाजिक दायरे को बढ़ाने में लगे रहते थें, और अपने आस-पास के समाज से कटते जा रहे थें। इस दूरी को मजबूती देने में कोरोना वायरस और भी महत्वपूर्ण साबित हो रहा है। किन्तु इन सबसे अलग, कोरोना की देनों में से सबसे महत्वपूर्ण और चर्चा में रहने वाला देन है, ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द। इस बीमारी ने तो किसी वर्ग अथवा धर्म से भेदभाव नहीं किया, लेकिन इस बीमारी की आड़ में इंसानों ने खूब भेदभाव किया और आज भी कर रहे हैं।
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इस बीमारी ने मन के भीतर व्याप्त भेदभाव को सामने लाकर रख दिया है। एक ओर पूरी दुनिया कोरोना से निपटने में लगी है, वहीं भारत जैसा विकासशील देश इस महामारी के साथ-साथ कई अन्य समस्याओं जैसे- अन्धविश्वास, छुआछूत आदि से भी जूझ रहा है। भारत की जनता की बुरी स्थितियों और उनसे की जाने वाले भेदभाव के कारण ही सोशल डिस्टेंसिंग शब्द विमर्श के केन्द्र में आ गया है। इस विमर्श अथवा चर्चा के कई कारण हैं।
न्यूज चैनलों और अखबारों में प्रस्तुत खबरों के साथ-साथ हमने खुद अबतक लगभग 150 से ज्यादा पलायन करने वाले मजदूरों से बातचीत की। इस बातचीत में एक बात तो साफ है कि सरकार का यह दावा कि लॉकडाउन में कोई भूखा नहीं सोयेगा, किसी को अव्यवस्था का सामना नहीं करना पड़ेगा, आदि पूरी तरह से खोखला साबित हो रहा है। कुछ मजदूरों ने बताया कि वे रायपुर में एक फैक्ट्री में काम करते थे, जहाँ लगभग 1 लाख मजदूर फँसे हैं। लॉकडाउन के कारण फैक्ट्री बन्द हो गया है। हमारे पास न तो कोई साधन है, न पैसा। खाने की जो व्यवस्था की गयी है, वे ज्यादा संख्या में लोगों के फँसे होने के कारण कभी नसीब होता है, कभी नहीं।
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भूख से व्याकुल मजदूर खाने के लिए दौड़ पड़ते हैं, जिससे भीड़ बढ़ जाती है। भीड़ को काबू करने के दौरान खाना भले ही नसीब न हो, पुलिस का डंडा जरूर नसीब हो जाता है। कुछ मजदूरों ने यह बताया कि उन्हें सप्ताह में खाने के नाम पर सिर्फ 200 रूपया मिलता था, जिससे गुजारा करना मुश्किल है। बार-बार निवेदन के बाद भी न तो कोई उचित व्यवस्था दी जा रही है और न ही हमे घर जाने के लिए वाहन उपलब्ध कराया जा रहा है। इसलिए हमलोग पैदल जाने के लिए ही निकल पड़े हैं। अच्छी बात ये है कि रास्ते में कुछ लोग अपनी तरफ से हमारी मदद कर रहे हैं। वहीं, दूसरी तरफ उच्च वर्ग और नियमित सरकारी कर्मचारी अपने घरों में भूख की चिन्ता से बेफिक्र मनोरंजन और आराम में लिप्त हैं।
इस महामारी तक को हिन्दू-मुस्लिम में बाँट दिया गया। खासतौर पर देश का चौथा खम्भा कहा जाने वाला मीडिया द्वारा जिस तरीके से तबलीगी जमात को लेकर मीडिया ट्रायल किया, उसने मुस्लिम समाज को तो कहीं-न-कहीं हाशिये पर लाया ही साथ ही उन्हें बेरोजगारी और भूखमरी की आग के हवाले भी कर दिया गया। वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने भी मीडिया में इस्लामोफोबिया की चर्चा दैनिक भास्कर अखबार में प्रकाशित 24 अप्रैल के अपने लेख में किया है, जिसके कारण मुस्लिमों को हिंसक, विश्वासघाती और राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है। उन्होंने प्रधानमन्त्री द्वारा तीन बार राष्ट्र के नाम सम्बोधन के दौरान भी इस कुटिल अभियान पर कोई टिप्पणी नहीं किए जाने पर खेद व्यक्त किया है। खैर जो भी हो, इन अफवाहों का दुष्परिणाम हर तरफ देखा जा सकता है।
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यूपी, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ कई जगहों पर पता चला है कि मुस्लिम समाज के लोगों से कोई भी कुछ नहीं खरीद रहा। उनकी बोहनी तक नहीं हो पा रही है। वे भर्राये आवाज में सिर्फ इतना सवाल कर पा रहे हैं कि तबलीगी जमात वाले लोगों ने जो भी किया, उसमें हमारी क्या गलती है? कई लोग तो सवाल करने में असमर्थ सिर्फ नम आँखों से टकटकी लगाये अपने ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं कि कोई उनसे भी सामान खरीद ले, ताकि उनके घर में चूल्हा जले और वे भूखे सोने से बच जाएँ। ये बिक्रेता, मुस्लिमों द्वारा इस महामारी के दौरान किए जाने वाले नेक कार्यों का भी हवाला दे रहे हैं, किन्तु शायद ही इससे किसी को कोई फर्क पड़े।
दुखद यह है कि इन नेक कार्यों को मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया दोनों से वंचित रखा जा रहा है। यदि मुस्लिम समाज के लोगों ने भीड़ जुटाई तो कई ऐसे मामले भी सामने आएँ, जहाँ हिन्दू धर्म के त्योहारों के मद्देनजर भी भीड़ जुटाई गयी। लेकिन इन खबरों का मीडिया ट्रायल नहीं किया गया, न ही इस दौरान कितने लोग संक्रमित हुए, इसे कभी दिखाया गया। किन्तु कहीं बुजुर्ग मुस्लिम फल वाले को फलों पर थूक लगाते दिखाया जा रहा है, तो कहीं बोतल में पेशाब करके फलों पर छिड़कने की बात कही जा रही है, तो कहीं नोट पर थूक लगाने की बात।
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क्लास डिस्टेंसिंग की बात इससे भी देखा जा सकता है कि विदेशों में फँसे लोगों के लिए फ्लाईट भेजी गयी, कई राज्यों से कोटा में फँसे विद्यार्थियों को लाने के लिए बसों की व्यवस्था की गयी। किन्तु मजदूरों के लिए क्या व्यवस्था की गयी? ये किसी से छिपी नहीं है। दिल्ली सरकार द्वारा सुविधा मुहैया कराई गयी, लेकिन वे सुविधा संख्या के हिसाब से कम थी। यूपी सरकार द्वारा परिवहन सुविधा दी भी गयी तो मनमानी वसूली के साथ। मध्यप्रदेश शासन द्वारा मजदूरों की घर वापसी शुरू की गयी है और यूपी सरकार द्वारा पुन: मजदूरों के घर वापसी की बात कही जा रही है। 3000 किलोमीटर तक मजदूर पैदल चलकर अपने घरों तक पहुँचे हैं, क्योंकि उन्हें सरकार के तरफ से एक खोखली व्यवस्था ही हाथ लगी है।
न्यूज 18 के एक खबर के अनुसार बैतुल जा रहे मजदूरों को ऐसा खाना दिया गया कि बच्चों ने उसे हाथ तक नहीं लगाया। कुछ को वे भी नहीं मिला और अंतत: वे भूखे ही अपनी मंजिल की ओर चल पड़े। वहीं, दूसरी ओर मध्यप्रदेश की ओर लौट रहे विद्यार्थियों के लिए उत्तम भोजन की व्यवस्था दी गयी। वहीं मजदूरों को पैदल चलते-चलते छाले पड़ गये लेकिन किसी को दया नहीं आई। बिहार के सुशासन बाबू ने तो लॉकडाउन में भी वीआईपी पास तक जारी कर दिया। अधिकांश राज्यों में क्लास (वर्ग) को ध्यान में रखकर ही अधिकांश सुविधायें दी जा रही है। राशन की व्यवस्था भी रामभरोसे ही हैं। लोग भूखे मरने को बाध्य हैं।
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क्वारंटीन सेंटर की भी बात करें तो वहाँ भी क्लास आधारित व्यवस्था की खबरें लगातार सामने आ रही है। मजदूर वर्ग के जिन लोगों को यहाँ रखा गया है उन्होंने लगातार गुहार लगाया कि हमे यहाँ से आजाद किया जाए, वरना हम कोरोना से मरे या न मरे सेंटर की गंदगी और कीड़े युक्त भोजन से जरूर मर जाएँगे। अस्पताल में कोरोना से लड़ रहे मरीजों के परिजन भी अस्पताल के बाहर बेहद बुरी अवस्था में रह रहे हैं। वहीं उच्चवर्ग के लोगों को अस्पतालों में ऐसी स्थितियों का सामना करते शायद ही कहीं देखा गया।
इस कोरोना के बीच सफाई कार्य में लगे सफाईकर्मियों के लिए भी किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं दी जा रही है। वे आज भी हाथों से सफाई कर रहे हैं। उनके लिए सुरक्षा व्यवस्था न के बराबर ही सामने आ रही है। कई जगहों पर उनके साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है। उनके मौत की खबरें भी सामने आ रही है। लेकिन इनकी सुनने वाला कोई नहीं है। ये वर्ग अधिकांश पढे़-लिखे भी नहीं हैं कि डॉक्टरों की तरह सांकेतिक हड़ताल की बात कर सकें और उससे परेशान होकर तुरन्त अध्यादेश बना दिया जाए।
इन सबके बीच राज्य और केन्द्र सरकार दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगे हैं। आम जनता के वेतन संस्थानों द्वारा दान किए जा रहे हैं और डर से कोई मना करने की बात भी नहीं कह पाता। महंगाई भत्ते काटे जा रहे हैं।
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लॉकडाउन के इस हालात में भी जब एक तरफ देश का सर्वोच्च न्यायालय आरक्षण विरोधी फैसला दे रहा है। एक पत्रकार को तुरन्त गिरफ्तारी से राहत दे दी जा रही है। वहीं, कई फैसले ठंडे बस्ते में बरसों से पड़े हैं। एक विशेष तबके द्वारा आरक्षण खत्म किए जाने की माँग की जा रही है, वैसी स्थिति में ये सारे परिदृश्य विचारणीय है कि यदि जब आरक्षण है, तब तो क्लास डिस्टेंसिंग का ये आलम है और जब आरक्षण नहीं होगा तो देश के निम्न तबके और अल्पसंख्यकों का क्या होगा?
कभी-कभी तो ऐसा महसूस होता है कि कहीं रामायण, महाभारत इसलिए तो नहीं दिखाया जा रहा है कि हम ये मान लें कि अपनी राजा की आज्ञा का पालन करना ही हमारा धर्म है। भले ही वे कितना भी अन्यायी और अधर्मी क्यों न हो। महाभारत में तमाम अन्यायों, अधर्मों और अत्याचारों के बावजूद कोई भी धर्मी और ज्ञानी पुरूष अपनी राजा का विरोध नहीं करते हैं और सबकुछ राजधर्म और वफादारी समझकर चुपचाप सहन करते हैं। ऐसा नहीं करने वाले राष्ट्रद्रोही कहलाते हैं। या फिर इसलिए दिखाया जा रहा है कि भेदभाव और अन्याय ज्यादा बढ़ जाए तो खुद न्याय करना पड़ता है, भले ही वह युद्ध के रूप में ही क्यों न हो। तो क्या हमे भी इस व्यवस्था के खिलाफ मौन हो जाना चाहिए या व्यवस्था द्वारा की जाने वाली अन्याय और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए?
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