महामारी के बीच मैला आँचल के डॉ. प्रशान्त
फिल्म और साहित्य को तो सदियों से ही समाज के दर्पण के रूप में पहचान मिली हुई है। फिल्म और साहित्य दोनों समाज से जुड़े विभिन्न पक्षों को निरन्तर दिखाता रहा है। वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें, हर तरफ लोग कोरोना के भय में हैं। ऐसे महामारी पर आधारित कई दृश्यों को फिल्मों और साहित्य में चित्रित किया जा चुका है। फिल्म ‘डॉक्टर कोटनिस की जीवनी’ हो या फिर उपन्यास के रूप में ‘मैला आँचल’ हो, इनमें महामारी को बखूबी रेखांकित किया गया है। वर्तमान परिदृश्य की व्यथा और उसके संघर्ष प्रमुखता से दिखाई पड़ते हैं। साथ ही महामारी पर केन्द्रित उपाय को भी महत्त्वपूर्ण रूप से दिखाया गया है।
कोरोना का विश्वव्यापी प्रभाव
इस समय पूरे विश्व में कोरोना वायरस ने महामारी का रूप ले लिया है। इससे पूरा जन-जीवन अस्त–व्यस्त हो गया है। इस महामारी के कारण लोगों की जीवन शैली थम सी गयी है। जीवन-मरण के बीच लगातार कारोना का रोना बना हुआ है। इस रोग की व्यथा इससे जुड़े और पीडि़त लोग ही भली-भाँति बता सकते हैं। इस महामारी में डॉक्टर ही संजीवनी बूटी देकर लोगों को जीवन दान देने में निरन्तर संघर्षरत हैं।
समकालीन परिदृश्य को साहित्य के आईने में देखें तो मैला आँचल उपन्यास का एक पात्र, डॉ. प्रशान्त बेहद प्रासंगिक दिखाई देते हैं। यह उपन्यास 1954 में फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखा गया था। डॉ. प्रशान्त डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करते हैं। तदोपरान्त शहर में रहकर एक बेहत्तर जीवनयापन कर सकते थे। लेकिन समाज सेवा करने की दृष्टि से एक पिछड़े गाँव (मेरीगंज) को याद करते हुए वहाँ जाते हैं। इस गाँव के सैकड़ों लोग हैजा, कालाआजर और मलेरिया की चपेट में आकर जान गंवा चुके थे।
इससे चिंतित होकर डॉ. प्रशान्त इस बीमारी पर शोध करके इसे जड़ से मिटाने का संकल्प लेते हैं। इस शोध को पूरा करने के लिए वे मेडिकल काउंसिल ऑफ बोर्ड से अनुमति लेते हैं। अनुमति मिलने के उपरान्त वे शोध कार्य में लग जाते हैं। इस कार्य हेतु वे तरह-तरह के नमूने एकत्र कर उसकी जाँच-पड़ताल में लगे रहते हैं। इस बीमारी की तह तक पहुँचने की निरन्तर कोशिश करते रहते हैं।
‘जीवन में स्पंदन का मंत्र : चटाक-चट-धा!’
डॉ. प्रशान्त का यह कार्य वर्तमान समय में भी बेहद प्रासंगिक नजर आता है। डॉ. प्रशान्त ने हैजा के लिये जो निर्णय लिया, उसका सार्थक परिणाम सामने आया। इसके बावजूद जोतखी जैसे लोगों का कहना था कि इस बीमारी को डॉक्टर फैला रहे हैं। ऐसे स्वास्थ्यकर्मियों को आदर और सम्मान देने की आवश्यकता है, जो ऐसी महामारी से उबरने में सार्थक सहयोग करते हैं। परन्तु मूर्खतावश लोग प्रतिकूल कदम उठा लेते हैं। ठीक इस कहानी की भाँति कुछ नाउम्मीद और भयाक्रान्त जनमानस कोरोना के योद्धाओं पर भी हमला कर रहे हैं। उनके साथ बदसलूकी भी की जा रही है। यह ठीक उसी तरह है, जैसे डॉ. प्रशान्त पर बीमारी फैलाने का आरोप लगाना।
मोहन राकेश की ‘सावित्री’ और समकालीन स्त्री विमर्श
बिहार के मेरीगंज जैसे अत्यन्त पिछड़े गाँवों में कई साल पहले हैजा की बीमारी फैली थी। हैजा बीमारी ने न जाने कितने लोगों की जान ले ली थी। कई गाँवों का सफाया हो गया था। इस स्थिति में भी जोतखी (उपन्यास की एक पात्र) ने भविष्यवाणी की कि बिना डॉक्टरी ईलाज के इस बीमारी से निजात मिल सकता है। ऐसे लोग ही अन्धविश्वास को बढ़ाते है। अन्धविश्वास और परम्परा की जड़े मैला आँचल उपन्यास के रग- रग से जुड़ा हुआ है। कुछ ऐसा ही दृश्य कोरोना के नाम पर तालियाँ, घंटियाँ बजाना और दीया जलाने आदि जैसे कार्यों में प्रतीत होता है, जो अन्धविश्वास की आड़ में विश्वास के प्रतीक को ढूंढने का प्रयास है। यह कितना सही-गलत या आवश्यक है, यह तो जनता को अपने विवेक से निर्णय लेने की आवश्यकता है।
साहित्य, समाज और राजनीति
आज ऐसे ही डॉ. प्रशान्त का इन्तजार हर कोई कर रहा है। हैजा जैसे रोग से निदान दिलाने के लिए डॉक्टर प्रशान्त हर सम्भव प्रयास करते हैं, जो एक डॉक्टर को करना चाहिए। इसी का परिणाम निकलता है कि मेरीगंज और पूर्णियाँ जैसे पिछड़े गाँव में इस बीमारी का फैलाव नहीं हो पाता है क्योंकि समय रहते डॉ. प्रशान्त उचित निर्णय लेकर हैजा के रोकथाम के सारे उपाय कर लेते हैं। लोग क्या कहते हैं, इन सब की परवाह किए बिना, सबसे परे रहकर डॉ. प्रशान्त अपने शोध कार्य में निरन्तर लिप्त रहते हैं। अन्ततः मलेरिया और कालाआजार के बीमारी के मूल कारणों तक पहुँच जाते हैं। डॉक्टर प्रशान्त बताते हैं कि पिछड़े गाँव में मलेरिया और कालाआजार फैलने का प्रमुख कारण ‘गरीबी और जहालत’ है जो एनोफिलीज से भी ज्यादा खतरनाक है।
प्रेमचंद का साहित्यिक चिंतन
गरीबी और जहालत में जिन्दगी बिताने वाले लोगों के लिए यह कब भयावह महामारी का रूप ले लेगा, यह कह पाना कठिन है। इसलिए वे एक कर्तव्यनिष्ठ डॉक्टर की तरह गरीबों की जान की रक्षा करते हैं। ऐसी बिमारियों से संघर्षरत डॉक्टर प्रशान्त को जहाँ सम्मान मिलना चाहिए, वहाँ अपमान मिलता है। ऐसे समाज को क्या कहेंगे? ठीक ऐसा ही दृश्य कोरोना से जंग लड़ रहें इंदौर के कुछ डॉक्टरों के साथ देखने को मिला। जिनका स्वागत, सहयोग और आदर करना चाहिए था, उनका अपमान किया गया। ऐसी घटनाएँ कुछ अन्य जगहों पर भी देखने को मिली। डॉक्टरों के साथ हो रहे ऐसे कुकृत्य और अन्याय कुछ मूर्ख जनता के कुण्ठित मानसिकता का नतीजा है। ऐसी मूर्ख जनता को लगने लगाता है कि डॉक्टर ही उनके दुश्मन हैं।
मैला आँचल के परिदृश्य की भाँति आज कोरोना के दौर में भी ‘गरीबी और जहालत’ भयावह साबित हो रही है। अव्यवस्था के कारण गरीबी और जहालत में जीवन जीने वाले लोगों को कोरोना अपने चपेट में बहुत आसानी से ले सकता है। लेकिन इस विपरीत परिस्थिति में भी डॉ. प्रशान्त की भाँति हमारे वर्तमान में कार्यरत डॉक्टरों के मन में भी विश्वास है कि वे होंगे कामयाब एक दिन और कोरोना को जड़ से उखाड़ फेकेंगे। इसलिए आवश्यक है कि इन डॉक्टरों की सुख-सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा जाए। जब ये सुरक्षित रहेंगे, तभी तो ये दूसरों के प्राणों की रक्षा कर पाएँगे। और डॉ. प्रशान्त की तरह कोरोना जैसे महामारी का हल भी खोजा जा सकेगा। इसलिये सही मायने में डॉ. प्रशान्त, वर्तमान में कार्यरत डॉक्टरों के समान बेहद प्रासंगिक तो नजर आते ही हैं, साथ ही प्रेरणादायक भी हैं।
नेहरू मॉडल और एक श्रावणी दोपहरी की धूप (भाग-1)
मैला आँचल की उपर्युक्त घटना की तरह वर्तमान में भी गरीबी, भुखमरी और जहालत ही बीमारी के मूल कारणों में से है। गरीबी, भुखमरी और जहालत की बीमारी से पीडि़त आम जनता के सामने वे सारे नियम-कानून को तोड़ डालने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं बचता है। इसी का परिणाम है कि कोरोना जैसी बीमारी का भय भुखमरी के भय के आगे नगण्य है, जिसके कारण बड़े पैमाने पर दिहाड़ी मजदूरों का पलायन देखने को मिल रहा है। ऐसी स्थिति में ये लोग भूख से पहले मरेंगे, कोराना से बाद में।
.