सात कविताएँ : जसवीर त्यागी
- जसवीर त्यागी
शिक्षा: एम.ए, एम.फील, पीएच.डी (दिल्ली विश्वविद्यालय)। प्रकाशन: साप्ताहिक हिन्दुस्तान, पहल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया पथ, आजकल, कादम्बिनी, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, कृति ओर, वसुधा, इन्द्रप्रस्थ भारती, शुक्रवार, नई दुनिया, नया जमाना, दैनिक ट्रिब्यून आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व लेख प्रकाशित। काव्य-संग्रह: अभी भी दुनिया में। सम्पादन: सचेतक और डॉ. रामविलास शर्मा(तीन खण्ड)। सम्मान: हिन्दी अकादमी दिल्ली के नवोदित लेखक पुरस्कार से सम्मानित। आजकल ‘डॉ. रामविलास शर्मा के पत्र” संकलन-संपादन कार्य में व्यस्त। सम्प्रति: एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजधानी कॉलेज, राजा गार्डन नयी दिल्ली-110015। सम्पर्क: +919818389571, drjasvirtyagi@gmail.com
जीवन में गहरी आस्था के कवि: जसवीर त्यागी
आज के जटिल दौर की तमाम भागम-भाग, चकाचौंध, टूटते-मरते जीवन-मूल्यों के बीच जसवीर त्यागी की कविताएँ एक राहत की खबर-सी लगती हैं। आमतौर पर छोटी कविताएँ लिखने वाले जसवीर त्यागी अपने आस-पास के परिवेश और प्रकृति के उन सूक्ष्म क्षणों, तंतुओं और अनुभूतियों को कविता में ले आते हैं जिन पर ध्यान कम जाता है। यहाँ चींटी-गिलहरी, फूल-पत्ती, सड़क के ठेले से लेकर अकेले होते बुजुर्ग, गरीबों की बेबसी, कोरोना महामारी की चिंता के बीच, गहरे सुकून देने वाले भाव हैं जो मनुष्यता की गर्माहट के प्रति आश्वस्ति का भाव जगाते हैं। ताजगी और संजीदगी से सरोबार भाषा पाठक से आत्मीयता का रिश्ता सहज ही जोड़ लेती है। ये कविताएँ पाठक को यह भरोसा दिलाने में कामयाब हैं कि मशीनीकरण की ओर बढ़ती दुनिया में नफरतों, तनावों और हर प्रकार के कुटिल दाँव-पेंचों के बावजूद जिन्दगी में अभी भी बहुत कुछ ऐसा शेष है जिसके सहारे ‘सकारात्मक जीवन’ जिया जा सकता है:
सारी नयी-नयी चीजें
ले रही हैं जन्म अभी भी बहुत
अभी भी दुनिया में
बचा है बहुत कुछ सुन्दर
और वह बचा रहेगा तब तक
जब तक बचा रहेगा
पृथ्वी पर एक भी आदमी शेष। – आशा
- भयानक समय में
कोरोना का दानव
चहुँ दिशाओं से
उगल रहा था
विनाश का विष
हर जगह फैलती जा रही थी
आपदा की आग
मची हुई थी हर तरफ
अफ़रातफ़री, भागम भाग
संकट का समुद्र
डुबा रहा था सर्वस्व-समूल
ऐसे भयानक समय में भी
एकांत में
हर दुःख-दर्द भूल
एक-दूसरे के गले लग-लगकर
मुस्कुरा रहे थे गेंदें के फूल।
*
- संदेश
कोरोना की विश्वव्यापी
विषधारी बीमारी को देखते हुए
देश के प्रधानमन्त्री ने
जनता को संदेश दिया-
“जो जहाँ है, वहीं रहे
वहाँ से बाहर न निकले
ऐसा करना ही
उसके और देश के हित में होगा”
संदेश सुनकर तसल्ली हुई
‘जो जहाँ है, वो वहीं रहे’
प्रियजन दिलों में रहते हैं
उन्हें अब वहीं रहना होगा
दिल से बाहर निकलना
सुरक्षित नहीं
देश के विरुद्ध जाना
देशद्रोह कहलाता है
इसलिए प्रियजनों, दोस्तों
हमें-तुम्हें अब
एक-दूसरे के दिलों में ही रहना है
तभी हम एक-दूसरे को
और अपने देश को बचा पाएंगे।
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छः कविताएँ : मिथिलेश कुमार राय
3.वे आसमान के सितारे हैं
सरकार को, हर नेता को
अपने-अपने क्षेत्र के
भूखे, बेघर, गरीब लोगों के लिए
रहने-जीने की व्यवस्था करनी चाहिए
निर्धन, बेघर, बेरोजगार मजदूर
सिर्फ़ वोट बैंक नहीं है
वे भी हमारी-तुम्हारी तरह
जीते-जागते इंसान हैं
वे जीवन संघर्ष और
चिर-चुनौतियों की चट्टानी पहचान हैं
उनके ख़ून पसीने से ही
जिन्दगी के अंधेरे हारे हैं
उनके बलबूते पर ही
दुनिया के चमत्कार सारे हैं
वे भी इंसानी-आसमान के
चमकते सितारे हैं
वे भी किसी की
आँख के तारे हैं।
***
कविता के कहन में गंगा प्रसाद विमल
- मैं सलाम करता हूँ
दुनिया में बहुत कम ऐसे लोग हैं
जो अपनी बात का वज़न रखते हैं
अधिकांश लोग
थोड़ा-सा वज़न पड़ते ही झुक जाते हैं
जो अपनी बात पर अडिग रहते हैं
कहन की कुर्सी पर बैठने के बाद भी
डगमगाते नहीं
अपने शब्दों को
शर्मिंदगी की सजा नहीं देते
किसी भी तरह के वज़न के सामने
मुड़ते-झुकते नहीं
और ऊंचाइयों पर चढ़ती
मानवता की गर्व-गाड़ी को
थमने-रूकने नहीं देते हैं जो
वे लोग सम्बन्धों के इतिहास में
जुगनुओं की तरह चमकते हैं
स्मृतियों के संग्रहालय में
बहुत सहेजकर रखे जाते हैं
ऐसे बेजोड़ और नायाब लोग
मैं ऐसे लोगों को
झुककर सलाम करता हूँ
जो इंसानियत के पलड़े को
कभी हल्का नहीं पड़ने देते।
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- रोज का महाभारत
सड़क के एक किनारे पर
किसी स्त्री ने बुहार दी जगह
और सजा दी फलों से भरी हुई टोकरी
वहीं पर एक नौजवान
ओंटाने लगा है अदरक वाली चाय
चाय की महक से थम गये हैं
रिक्शे वाले के चलते पैर
बगल बैठे दर्जी ने
अलग सिरे पर रख दी है
अपनी कैंची और इंच टेप
आम खाकर
कूड़े के ढेर पर फेंक दी गयी गुठली से
अंकुरित हुए नव-पल्लव
मुस्कुरा रहे हैं रवि किरणों को देख-देख
कुछ चीटियाँ अपने आकार से
बड़े कण उठाये
चल रही हैं एक कतार में
अपनी मंजिल की ओर
एक चंचल गिलहरी
पिछले पंजों पर खड़ी होकर
इधर-उधर देखती हुई
कुतर रही है बिस्कुट का कोई टुकड़ा
लकड़ी की पुरानी कुर्सी पर बैठा
हजामत बनवाता हुआ अधेड़ खो गया है
किसी लौकिक-सुख की अनुभूतियों में
इस तरह छोटे-छोटे कामों से शुरू हुआ
रोजमर्रा के महाभारत का शंखघोष।
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- तरक्की
तरक्की के विमान में बैठकर
बच्चे विहंसते हुए विदेश चले गये
हँसता खिलखिलाता हुआ घर
उदास एकाकी मकान रह गया
परिवार के नाम पर
दो बूढ़े-बुढ़िया ही
एक-दूसरे का सूना चेहरा निहारते थे
नम-निगाहों से
रह-रहकर शरीर और आत्मा में
चुभती थी
समय की नुकीली सुई
लौट-लौटकर पछाड़ मारता था
स्मृतियों का समंदर
अकेलेपन का अजगर जकड़ने को
लपलपाता था जीभ
कृश काया से उलझ-उलझ जाता था
उम्र की ऊन का गोला
फिर एक दिन
पत्नी भी जा बसी
दूर किसी अंतरिक्ष में
अब अकेले बूढ़े आदमी के पास
अनमोल सम्पत्ति के नाम पर
स्मृतियों की एक एल्बम ही शेष थी
जिसमें उसकी पत्नी
और बच्चों की तस्वीरें
चस्पा थीं चारों ओर।
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- अभी भी दुनिया में
अभी भी फूलों से
आती है सुगन्ध
अभी भी संगीत पर
थिरकते हैं पांव
अपने नवजात शिशुओं को
घोसलों में अकेला छोड़
अभी भी चिड़िया
निकलती हैं चुगने दाना
परदेस गये लोगों का अभी भी
करते हैं इंतजार परिवार में
बुज़ुर्ग अभी भी
किसी भटके हुए राहगीर को
दिखाते हैं रास्ता
अभी भी प्रेम में
की गई हल्की-सी शरारत पर
कोई बोल सकता है
धत! बुद्धू कहीं के
मेह में भीगते हुए
किसी अजनबी को देख
अभी भी लोग
खोल देते हैं किवाड़
बेहिचक दे देते हैं
लत्ते-कपड़े और चप्पल
खिला देते हैं
पेट भर खाना अभी भी
बहुत सारी नयी-नयी चीजें
ले रही हैं जन्म अभी भी
अभी भी दुनिया में
बचा है बहुत कुछ सुन्दर
और वह बचा रहेगा तब तक
जब तक बचा रहेगा
पृथ्वी पर एक भी आदमी शेष।
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