जलवायु परिवर्तन संकट के बचाव का आदिवासी दर्शन
हमारे आसपास की भूमि, मिट्टी , पानी, वायुमंडल, पृथ्वी का तापमान, सूरज से यहां तक आने वाली ऊर्जा, हवा, बादल, पहाड, जंगल, समुद्र, झील, तालाब आदि हमारे पर्यावरण के अंग हैं। हम सब उनसे किसी न किसी तरह से प्रभावित होते हैं उन्हे हम प्रभावित करते हैं। संविधान में विकास का कोई परिभाषा नहीं है। सरकार ने निर्माण कार्य को विकास मान लिया है। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) को उन्नती का पैमाना मान लिया गया है, जो खतरनाक विरासत तैयार कर रहा है।
जिसके कारण एक ओर पर्यावरण खराब हो रहा है दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से दोहन हो रहा है। इस अंधाधुंध विकास के कारण हमारे आसपास की हवा, पानी और मिट्टी की गुणवत्ता लगातार खराब हो रहा है। वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि पृथ्वी की जलवायु बदल रही है। इसका कारण है औधौगिक विकास के लिए कोयला और पेट्रोलियम जलाने से निकलने वाला कार्बन का धुंआ है। नेचर क्लाइमेट चेंज के मुताबिक दुनिया रोजाना 1 करोङ 70 लाख मेट्रिक टन कार्बन पैदा कर रही है। ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के मुताबिक 2017 में कार्बन उत्सर्जित करने वाले प्रमुख 4 देश चीन (27%), अमेरिका (15%), युरोपीय युनियन (10%) और भारत (7%) था। कार्बन उत्सर्जन में चार देशों की 59 प्रतिशत और बाकी देशों की हिस्सेदारी 41 प्रतिशत ही है।
इंडियन स्टेट आफ फोरेस्ट रिपोर्ट 2019 के अनुसार 7 लाख 67 हजार 419 वर्ग किलोमीटर भूमि वनक्षेत्र है। परन्तु फोरेस्ट सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट 2019 के अनुसार 2 लाख 26 हजार 542 वर्ग किलोमीटर में जंगल नहीं है। अर्थात कुल वनक्षेत्र 29.5 प्रतिशत भूमि में वन नहीं है।
ग्लोबल फोरेस्ट रिसोर्स असेसमेंट और संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा 13 मई 2020 द्वारा जारी रिपोर्ट में 236 देशो में 1990 से 2020 के दौरान वनों की स्थिति और ट्रेंड्स कि पङताल की गई है। रिपोर्ट के अनुसार 178 मिलियन हेक्टेयर वनभूमि कम हुए हैं। वनों का पहुंचा यह नुकसान लिबिया देश के क्षेत्रफल के बराबर है। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के आंकङो के अनुसार वन संरक्षण अधिनियम 1980 के लागू होने के चार दशक बाद 27144 विकास परियोजनाओ के लिए 1. 51 मिलियन हेक्टेयर वनभूमि गैर वनीकरण कार्य के लिए परिवर्तित हुआ है। जो राजधानी दिल्ली के दस गुना है।
मध्यप्रदेश में 1980 से 2020 तक 1163 विकास परियोजनाओ के लिए 284131 हेक्टेयर वनभूमि गैर वनीकरण के लिए परिवर्तित किया गया है। लोकसभा में सवाल का जवाब देते हुए वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री बाबुल सुप्रिया ने कहा कि 2014 से 2019 के बीच 1 करोङ 9 लाख 75 हजार 844 पेङ काटने का अनुमति दिया है। इसके कारण देश के सुखा प्रभावित 78 जिलों में से 21 जिले ऐसे हैं जिनका 50 फीसदी से अधिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण में बदल चुका है। 2018 में मध्यप्रदेश के 23 जिलों के 127 तहसील को सूखाग्रस्त घोषित किया गया था। जिसके कारण 32283 गांव के 48 लाख किसान सुखे की चपेट में आए थे।
भारत में 70776 ग्रामीण इलाके के 47 करोङ 40 लाख की आबादी भूमिगत जल पर निर्भर है। भूमिगत जल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, हेवीमेटल, खारापन आदि मिला होने के कारण स्वास्थ्य पर विपरीत असर हो रहा है। क्लाइमेट ट्रेंड्स की प्रबंध निदेशिका आरती खोसला के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनो पर दबाव बढ़ता रहेगा। क्योंकि बढते तापमान से सूखे की स्थिति पैदा होगी जिससे मीठे पानी के महत्वपूर्ण स्रोत प्रभावित होंगे।
लांसेट के अध्ययन के अनुसार 2017 में वायू प्रदुषण के कारण 12 लाख लोगों की मौत हुई है, जिसमें से 1 लाख बच्चे 5 वर्ष से कम उम्र के हैं। ग्लोबल रिस्क इंडेक्स 2020 रिपोर्ट के अनुसार 2018 में जलवायु परिवर्तन के कारण (सुखा, बाढ, तुफान आदि) 2 लाख 79 हजार करोङ रुपये का आर्थिक नुकसान और 2081 लोगों की मौत हो चुकी है। इसका सबसे अधिक असर आदिवासी, वंचित समुदाय, महिलाओ और गरीब तबके के उपर सबसे ज्यादा हो रहा है।
जबकि आदिवासी समुदाय की जीवन पद्धति इस समस्याओ से निजात पाने का रास्ता दिखाता है। मध्यप्रदेश में 43 आदिवासी समुदाय हैं। इनमें से हर आदिवासी समूह ने अपने आप में पूर्ण व्यवस्था की रचना की है। जैसे (1) हमारी जरूरत- भोजन, स्वास्थ्य प्रबंधन औषधी, आवास आदि। (2) आदिवासी के बारे में कहा जाता है कि वे आज के लिए कमाते हैं और भविष्य की नहीं सोचते हैं। उनका विश्वास है कि जल- जंगल- जमीन आधारित प्राकृतिक व्यवस्था उनकी जरूरत पूरी कर देगी। (3) जिन संसाधनो से जरूरत पूरी होती है, उन संसाधनो का संरक्षण करना ना कि दोहन कर खत्म कर देना। (4) जो संसाधन जीवन देता है, उसको अराध्य मानना। आदिवासियों के लिए जंगल मंदिर होता है और पेङ उनके देवता। परन्तु जिन संसाधनो और मूल्यों को उन्होने जीवन शैली का आधार माना , उसे उनके पिछङे होने का सूचक मान लिया गया। ऐसा मानना बहुत भारी भूल होगा कि आज पृथ्वी को बचाना जरूरी है। मनुष्य प्रजाति को खुद अपने आप को बचाना है अपने आप से ही।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस सदी के अंत होते – होते एशिया महाद्वीप के जलवायु में अकल्पनीय परिवर्तन के लिए तैयार रहना होगा। वातावरण में तापमान बढ रहा है और ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रहा है। भविष्यवाणी तो यह भी है कि 21वीं सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान इतना बढ जाएगा कि ग्लेशियर और बर्फ की चोटी पिघल कर तटीय शहरों में भयंकर बाढ लाएगी। दूसरी ओर पर्यावरण बचाने के नाम पर विश्व बाजार तैयार करना भी अन्तरराष्ट्रीय पूंजी का हिस्सा हो गया है। जिसमें कार्बन व्यापार के नाम पर Reducing Amision From deforestation and forest degradition (REDD) योजना पर काम चल रहा है।
इसका मतलब है कि विकसित देश एवं उनकी कंपनियों ने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के बजाय विकासशील देशों में वनों की सुरक्षा के लिए धन देकर कार्बन सोखने की प्रक्रिया को लेकर गोरखधंधा शुरू किया है। भारत में भी भारी मात्रा में पौधा रोपाई के नाम पर पीढ़ियों से खेती कर रहे आदिवासियों को उनके जंगल जमीनों से बेदखल करने की कार्यवाही हो रहा है। इसी कारण आदिवासी और अन्य परम्परागत वन निवासियों के व्यक्तिगत वन अधिकार दावे भारी मात्रा में निरस्त किया गया है। आजीवका संकट के कारण कुपोषण लगातार बढ रहा है और कुपोषित लोग ज्यादा बीमार हो रहे हैं।