चांद की रौशनी कुमाऊनी में “ज्यून” कहलाती है और चांदनी रात “ज्यूनाली रात”। यदि हम थोड़ा पहले अपनी नजर घुमाए तो हमारे आस-पास ढ़ेरों लोकगीत हैं जिसमें ज्यूनाली रात का जिक्र है। जो समय के साथ-साथ बढ़ते ही रहते हैं।
आज से पहले यदि हम देखें या अपने पुराने लोगों से जानकारी लें तो मालूम पड़ता है, अक्सर पूर्णिमा की रात पहाड़ के लोग हुड़के की थाप पर कदम मिलाते अपने गीत गाते नजर आते हैं। जिनमें झोड़े, चांचरी, न्यौली जैसे लोकगीत प्रमुख थे। जैसा कि सभी जानते हैं पहाड़ में जीवन एक संघर्ष है और पूर्णिमा की रात आगे के संघर्ष के लिये फिर से उर्जा भरने वाली रात है। ऊंचे शिखरों में गाये जाने वाले हल्की धुनों के वो गीत ज्यूनाली रात को दुनिया की सबसे खूबसूरत रात में बदल देते हैं।
पहाड़ में पूर्णिमा की रात उत्सव की रात है। हमारे पहाड़ में पूर्णिमा का खूब महत्त्व है फिर इसे धर्म की आस्था से जोड़कर देखा जाय या लोकजीवन से। जरा गौर से से देख सोचो कभी कि सदियों से चांद, पहाड़ के लोगों का संघर्ष समझता होगा तभी तो पहाड़ के किसी न किसी हिस्से से झांकता हुआ उन्हीं के पीछे डूबता है। पहाड़ के हर रात की कहानी-क़िस्से, दुःख-दर्द, तीज त्योहार, प्रेम कहानियों, छोटे बच्चों के खेल व दादी-नानी के क़िस्सों-कहानियों, लोरियों में शामिल है चांद।
फ़ोटो बागेश्वर निवासी एड़ दिग्विजय सिंह जनौटी जी की फ़ेसबुक वाल से साभार — आप भी लुफ़्त लीजिए पहाड़ों पर चांद के दीदार का।
राजकुमार सिंह
लेखक उत्तराखण्ड से स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +919719833873, rajkumarsinghbgr@gmail.com
Related articles

नागरिक को नजर अंदाज करने का हुनर
सबलोगFeb 24, 2020डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
