अंतरराष्ट्रीयदेशशिक्षासमाज

ऐसे ही रहेंगी और पढ़ेंगी बेटियाँ, तो कैसे बढेंगी बेटियाँ

 

  • डॉ. अनिल कुमार राय

 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अपने देश की महिलाओं की ओर एक बार घूम कर देख लेना वाजिब है. बात महिला दिवस की है, इसलिए यह देख लेना भी जरूरी है कि किस तरह इस दिवस की शुरुआत हुई.

आज यह भले ही शुभकामनाओं को लेने-देने, कार्यक्रमों को आयोजित करके कल अखबार में फोटो देखने और बाजारू उत्पादों को बेचने का अवसर मात्र बनकर रह गया हो, मगर इसकी उत्पत्ति अपनी स्थिति से असंतुष्ट महिलाओं के विद्रोह से हुई थी और आज तक इस दिवस के हर मोड़ पर महिलाओं के विद्रोह और विजय का गौरवगान अंकित है. सबसे पहली बार 1908 में नौकरी के घंटे कम करने और बेहतर वेतन के साथ ही कुछ अन्य माँगों को लेकर अमेरिका के न्यूयार्क की सड़कों पर 15 हजार से अधिक महिलाओं ने सत्ता और पुरुषवादी वर्चस्व को पहली बार चुनौती दी थी. इस प्रदर्शन ने स्त्रियों की अस्मिता की उपेक्षा करने वाली दुनिया की आँखें खोल दीं और इसके साथ ही नारियों के प्रति चिंता और नारीवादी चिंतन के एक नए अध्याय की शुरुआत हुई. एक बार उठी यह लपट धीरे-धीरे फ़ैलाने लगी. एक ही प्रदर्शन ने इसे राजनीतिक विषय बना दिया और अगले साल सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमेरिका ने इस दिन को राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया. उसके अगले साल कोपेनहेगेन में 17 देशों की सैकड़ों कामकाजी महिलाओं के सम्मलेन में जर्मन सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता क्लारा जेटकिन के इस दिवस को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाये जाने के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया. उसके अगले साल 1911 में 19 मार्च को ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, स्विट्जरर्लैंड, जर्मनी आदि कई देशों के द्वारा इसे अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया गया. बाद में 1913 में इस इसे 19 मार्च के बदले 8 मार्च को मनाने का निर्णय किया गया. यह कहानी 8 मार्च, 1917 को रूसी महिलाओं के उस विद्रोह के बिना अधूरी रह जाएगी, जिन्होंने रोटी, कपड़ा और राजनीतिक अधिकारों के लिए मास्को की सड़कों पर हंगामा मचा दिया था. वह हंगामा इतना बड़ा था कि जार को इस्तीफा देना पडा था और महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ था. लगातार इस दिवस के साथ महिलाओं के विक्षोभ और बगावत की कथाएँ जुड़ते जाने के बाद 1975 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी इस दिवस को किसी विशेष थीम के साथ मनाने का निर्णय लिया. 2019 का थीम है – “Think Equal, Build Smart, Innovate for Change.”

इस तरह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास महिलाओं के संघर्ष की स्मृति भी है और समानाधिकारपूर्वक बेहतर जीवन पाने की आकांक्षा भी है.

इस दिवस के अवसर पर भी यदि हम अपने देश की महिलाओं की स्थिति पर दृष्टिपात नहीं करते हैं तो हमारी संवेदनशीलता पर गहरा प्रश्नचिह्न लगता है. यह सही है कि मताधिकार, सुरक्षा, आरक्षण, स्वामित्व आदि कागजी अधिकारों की प्राप्ति के लिए हमारे देश की महिलाओं को सड़क पर कोई बड़ा संघर्ष नहीं करना पडा है. लेकिन तमाम तरह के कागजी अधिकारों और सुरक्षा के बावजूद अपने पूरे पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में हमने महिलाओं को दोयम दर्जे की नागरिकता दे रखी है, यह तो चिंता की बात है ही. इसके साथ ही  शहरों में आज भी सब्जियों की दूकानों की तरह दूकानें सजाकर देह बेचनेवाली गणिकाओं का होना हमसे सभी होने के सारे कारण छीन लेता है. हमारे बाजार ने कंडोम से लेकर ट्रक के टायर तक के विज्ञापन में महिलाओं का वजह-बेवजह उपयोग करके उसके प्रति भोग और आकर्षण की मानसिकता गढ़ी है, उस पर हम कभी विवाद भी नहीं करते. आज भी किसी लड़की के बारे में बात करने में दो लड़कों की अन्तरंग बातचीत उसकी देह-यष्टि और कामुकता के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह जाती है. ये सामाजिक-आर्थिक विकृतियों की कुछ ऐसी तस्वीरें हैं, जिनसे अब हम संवेदित भी नहीं होते. इन पर चिंता की जानी चाहिए.

यह चिंता तब और भी बढ़ जाती है, जब हम पारिस्थितिक आँकड़ों पर निगाह दौड़ाते हैं. हाल ही में बालिकागृहों में यौन उत्पीडन की अनेक घृणित घटनाओं ने बालिकाओं की अस्मिता और सुरक्षा की राजकीय और सामाजिक चिंता को सवालों के दहकते हुए घेरे में लाकर खडा कर दिया है. वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) के सामजिक विकास संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश की राजधानी दिल्ली में हर 40 मिनट में एक महिला का अपहरण और बलात्कार होता है. नेशनल क्राइम ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2012 में दिल्ली में निर्भया के वीभत्स काण्ड के बाद से बलात्कार की घटनाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई है. ब्यूरो के चार्ट के मुताबिक़ भारत में 2008 में बलात्कार के जहाँ लगभग 22,000 मामले दर्ज हुए थे, वहीँ 2012 में 25,000 और 2018 में तो 40,000 मामले दर्ज हुए. बलात्कार की इतनी ही संख्या दहशत उत्पन्न करती है, जबकि Live Mint के एक अध्ययन के अनुसार भारत में बलात्कार के 99.01% मामले तो पुलिस स्टेशन में दर्ज ही नहीं कराये जाते. इसी से अंदाज किया जा सकता है कि इस देश में बलात्कार की घटनाएँ किन हदों को पार कर गई हैं.

यह पूरी स्थिति एक भद्दे भारत की तस्वीर पेश करती है. हम अपने मन से ‘मेरा भारत महान’ का जितने जोर-शोर से नारा लगा लें, लेकिन दुनिया की नजरों में यहाँ की महिलाएँ बहुत ही खौफनाक स्थितियों में जीने को विवश हैं. पिछले जून में थोमसन रायटर्स फाउंडेशन के द्वारा महिला मुद्दों पर काम करने वाली विश्व की 500 महिलाओं की प्रतिक्रया के आधार पर जारी सर्वे रिपोर्ट में जब यह कहा गया कि भारत महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश है तो अनेक लोगों ने उस सर्वे की भर्त्सना की थी. अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनकर हम स्थितियों को अस्वीकार तो कर ले सकते हैं, लेकिन इससे हमारे बारे में संसार की नजर नहीं बदल जाती. संसार की नजर बदलने के लिए परिस्थितियों को बदलना जरूरी है.

ऐसा नहीं है कि क़ानून नहीं है. महिलाओं की सुरक्षा, भागीदारी और तरक्की के सारे कानूनों के रहते हुए भी सारे हादसे हो रहे हैं. इसलिए यह बात क़ानून की कम और सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलाव की ज्यादा है. एक प्रगतिशील और प्रतिबद्ध राजनीतिक इच्छाशक्ति बदल रही दुनिया के साथ भारतीय महिलाओं को भी कदम-से-कदम मिलाकर चलने की परिस्थिति और अवसर उत्पन्न कर सकती है. लेकिन क्षोभ के साथ कहना पड़ता है कि इस दिशा में भी हम लगातार पिछड़ते जा रहे हैं.

महिलाओं की शिक्षा और रोजगार की स्थितियों को देखते हैं. इसे तो सब स्वीकार करेंगे कि बेहतर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति की प्राप्ति के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण औजार है. ऐसा देखा गया है कि शिक्षित महिलाएँ अपेक्षाकृत बेहतर और मजबूत स्थिति में रहती हैं. कल्याणी मेनन और ए. के. शिवकुमार रचित ‘Women in India: How free? How equal? में केरल की महिलाओं की बेहतर सामाजिक और आर्थिक स्थिति के पीछे प्रमुख कारक के रूप में शिक्षा को रेखांकित किया गया है. लड़कियाँ जब शिक्षा और रोजगार के लिए बड़ी संख्या में बाहर निकलने लगती हैं तो सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के पुर्जे के रूप में अपने अस्तित्व को स्थापित भी करती हैं. फिर उनकी उन्नत क्षमता, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों में बहुसंख्यता तथा निर्णायक भूमिका के कारण उनके साथ होने वाले हादसों में भी कमी आती है.

लेकिन यहाँ भी निराशा ही हाथ लगती है. DISE की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सभी प्रकार के विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं में 2015-16 में जहाँ 6 करोड़, 22 लाख, 49 हजार, 548 बच्चियों ने नामांकन लिया था, वहीँ वर्ष 2016-17 में यह संख्या 26 लाख, 86 हजार, 415 घटकर 5 करोड़, 95 लाख, 63 हजार, 133 ही रह गई. RTE फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीश राय कहते हैं कि गरीब परिवारों की 30 प्रतिशत लड़कियों ने कभी स्कूल का मुँह ही नहीं देखा है. यह आईना है कि हम अपनी बेटियों की चिंता ‘पढ़ेंगी बेटियाँ तो बढेंगी बेटियाँ’ के विज्ञापन में ही करते हैं.

अशिक्षा और दहशत के इस परिवेश का परिणाम क्या हुआ है? इज्जत की असुरक्षा की मानसिकता से ग्रस्त महिलायें घर से बाहर निकलकर किये जाने वाले कामकाज से हिचकने लगी हैं. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के 2015 की रिपोर्ट के अनुसार श्रम बाजार में भारत में महिलाओं की भागीदारी घट रही है. वैश्विक स्तर पर वह जहाँ 50% है और पूर्व एशियाई देशों में जहाँ 63% है, वहीँ भारत में 2005 में 36.7% के मुकाबले 2018 में 26% पर आ गई है.

यही है अशिक्षा और असुरक्षा के भँवर में डूबती हमारी पूजनीया माताओं और देवकन्या रुपी बेटियों की स्थिति. विश्वास नहीं होता है कि यह वही देश है, जिसकी हवाओं में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ का श्लोक गूँजता है, जहाँ की गार्गी और मैत्रेयी की ऋचाओं से पवित्र वेदों का निर्माण हुआ था और जहाँ दुर्गा, सविता, सरस्वती की आराधना शक्ति और उन्नति के लिए होती है. समाज, संकृति और राजकीय व्यवस्था के प्रति विश्वास इसलिए भी धराशायी हो जाता है, क्योंकि आँखों को बलात्कारी के समर्थन में तिरंगा लेकर जुलूस निकलते हुए देखना पड़ता है.

शुभकामनाओं को लेने-देने, कार्यक्रमों में भाषण देने, विकास के गाल बजाने और राष्ट्रीयता के थोथे गीत गाने के बदले इस महिला दिवस के अवसर पर यदि हम इन हालातों को बदलने के लिए चिंता और चिंतन करें तो देश की बदरंग तस्वीर को रंगीन बना सकेंगे. अन्यथा आत्मश्लाघा से भरे एक कुंठित राष्ट्र के रूप में हमारी पहचान बनकर रह जायेगी.

लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता और ‘आसा’ के संयोजक हैं|

सम्पर्क- +919934036404, dranilkumarroy@gmail.com

.

.

.

सबलोग को फेसबुक पर पढने के लिए लाइक करें|

 

 

Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x