साहित्य

वो आखिरी शब्द… अलविदा दिल्ली… अब नहीं लौटना तुम्हारे आंगन में…

sablog.in डेस्क  : अगस्त का महीना था। मॉनसून अपने शबाब पर था। खिड़की के बाहर रिमझिम बूंदें धरती पर थपाथप गिर रही थी और बूंदों के बीच ना जाने रोहन की आंखें क्या तलाश कर रही थी। उमस भरी दिल्ली की गर्मी का मौसम बारिश के कारण सुहाना हो रहा था, लेकिन जिस कमरे में रोहन ने अपनी जिंदगी सजाने का सपना संजोया था आज उस कमरे में चारों तरफ खामोशी छितराई थी। लग रहा था कमरा काट खाने को दौड़ रहा है। बारिश जारी थी और रोहन की आंखों से आंसू भी बहते जा रहे थे। वह बहुत कुछ कहना चाहता था… पर किससे कहे? विनीता तो बहुत दूर जा चुकी थी। एक ही झटके में आठ सालों का रिश्ता बिखर चुका था। रोहन यह नहीं समझ पा रहा था कि गलती किसकी थी? वो मन ही मन कह रहा था कि ‘जो हुआ अच्छा हुआ, जो होगा अच्छा होगा।’ लेकिन, प्रेम जब आत्मिक स्तर पर होता है तो वो इस कदर बेचैन करता है कि आप उस बेचैनी को बता नहीं सकते हैं।

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रोहन बार-बार मोबाइल की गैलरी में विनीता की तस्वीर देखता जा रहा था। लग रहा था कि अब कॉल कर दे उसे। लेकिन, पुरूष स्वभाव आड़े आता जा रहा था, एक डर भी था कि फिर कहीं झिड़की ना मिल जाए। बस, इसी डर में वह खामोश हो चुका था। ऐसा लग रहा था कि शरीर तो है प्राण नहीं। वो ना तो किसी से बात करता था और ना ही फोन करता किसी को। बस दो-तीन दिनों में मां से बात करके खुद को संभाल लेता था। पिछले एक महीने के गुजरे हर पल को उसने किस तरह काटा था, वो ही जान रहा था। लेकिन, कहने की हिम्मत किसी से नहीं होती थी। वो जानता था गुजरा पल वापस नहीं आएगा। वो यह भी जानता था कि आने वाला वक्त शानदार होगा। लेकिन, अभी क्या… अभी क्या किया जाए… समझ नहीं आ रहा था उसे। अभी जीने-मरने का अंतर पाट चुका था वो।

शाम होते ही बारिश छूट गई और रोहन बिल्डिंग के सामने पार्क में जा पहुंचा। सूरज बादलों में उलझ चुका था और चारों तरफ अंधेरा था। बारिश के कारण ठंड ज्यादा लग रही थी, लेकिन वो एकटक सूरज को आसमान में ढूंढता जा रहा था। वो पुराने दिनों में गुम हो जाता है कि कैसे उसने विनीता से उन सारी बातों का जिक्र किया था… जो किसी और से कहने की हिम्मत नहीं हुई। कैसे, वो नए-नए, प्यार भरे शब्दों के जरिए विनीता को बताने का काम करता था कि वो उससे कितना प्यार करता है। एक दिन जिंदगी में सबकुछ हार चुका रोहन आज जो कुछ भी था, उसमें उसका कम विनीता का टैलेंट ज्यादा था। यही कसक थी, जिसके लिए वह दिल्ली आया, वो साथ नहीं है।

‘जानती हो विनीता, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं। मुझे छोड़कर कभी मत जाना, तुम जाओगी तो मर जाऊंगा।’ आखिरी बार विनीता को उसने यही तो कहा था। और, विनीता ने हंसकर कहा था ‘किसी के जाने भर से कोई मर नहीं जाता। आप निश्चिंत रहिए, मैं आखिरी सांस तक आपके साथ हूं, बस आप हमेशा ऐसे ही बने रहना।’

फिर वो दिन भा आ गया कि दोनों एक-दूसरे से बात नहीं करते थे। रोहन ने कई बार कोशिश की, लेकिन विनीता नहीं लौटी। कितने व्हॉट्सएप किए, मैसेज भेजा ‘तुम लौट आओ, विनीता।’ लेकिन, हर मैसेज बिना जवाब के रह गया। किसी का जवाब दूसरी तरफ से नहीं आया। मन मसोसकर रोहन हर दफा मैसेज को डिलीट करता जाता था। लेकिन हर रात सोने से पहले वो विनीता को याद करके रोता जरूर था। अचानक रोहन का ध्यान टूटता है, मोबाइल में देखा कि रात के करीब नौ बज चुके हैं। वो वापस कमरे में आता है और धम्म… से बिस्तर पर गिर जाता है। वो आंख बंद करके खुद को दुनिया की भीड़ में भुलाना चाहता है, लेकिन सब कोशिश नाकाम हो जाती है।

आखिर में रोहन एक फैसला करता है, शहर छोडऩे का। वो वापस लौटने के लिए तैयार हो जाता है। उसने खुद से वायदा कर लिया है कि अब इस शहर में नहीं रहेगा। गुस्से में वो सारी पैकिंग करता है और एक चिट्ठी लिखने का फैसला करता है। रोहन बेड पर पेन और पेपर लेकर बैठ जाता है और लिखना शुरू कर देता है। अचानक, मोबाइल पर कॉल आता है। विनीता के मुंह बोले भाई का, लेकिन वो रिसीव नहीं करता, मोबाइल को साइड कर देता है। रोहन अब नम आंखों से लिखने लगता है। शायद वो आखिरी पैगाम ईमानदारी से लिखना चाहता है।

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”प्यारी विनीता,

हमेशा खुश रहना तुम। जहां रहोगी बहुत अच्छा करोगी तुम। मैं तुमसे हमेशा कहता था कि तुम बहुत अच्छी लड़की हो। मजबूत लड़की, उम्मीदों से लबरेज लड़की। आज भी कहता हूं ‘मैं जिस दुनिया में रहता हूं तुम उस दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की हो, जिसके सामने मैं जिंदगी की आखिरी सांस लेना चाहता हूं।’ जानता हूं, मैं तुम्हारे जैसा नहीं हूं। तुम्हारे बराबर कभी हो भी नहीं सकता। लेकिन, जैसा हूं, तुम्हारे लिए हमेशा ईमानदार था, ईमानदार हूं और ईमानदार रहूंगा। तुम जब से गई हो, जिंदगी वीरान हो गई है। सबकुछ खत्म हो गया है। हर बार खुद को समेटता हूं और पहले से ज्यादा बिखरता पाता हूं। हंसने की कोशिश करता हूं लेकिन सफल नहीं होता।

ऑफिस में काम करने के दौरान व्यस्त हो जाता हूं, लेकिन तुम्हें भुलाने में असफल होता जा रहा हूं। दोस्तों को बताना चाहता हूं कि लगता है कोई मेरे दिल को निचोड़ रहा है। अब जीने में मजा नहीं रहा। लगता है सबकुछ खराब हो चुका है। लेकिन, किसी से कह नहीं पाता हूं, डरता हूं दोस्त मजाक ना बना दें मेरा। पिछले दस दिनों से तुम्हारा दिया हुआ शर्ट पहन रहा हूं। शर्ट गंदी हो चुकी है। दोस्त हंसते हैं। कहते हैं शर्ट बदल लूं। लेकिन, मैं तुम्हें महसूस करना चाहता हूं। हर पल खुद में… इसलिए शर्ट नहीं बदल रहा हूं। तुम्हें याद है जब पहली बार हमदोनों मिले थे। कितने खुश थे। तुमसे मिलने मैं हमेशा भागकर तुम्हारे ऑफिस के आगे पहुंचकर घंटों इंतजार करता था।

जानती हो विनीता… गलती मेरी थी। लेकिन तुमको समझना चाहिए था सबकुछ। तुम मना कर देती मुझे तो आज मैं ठीक रहता। मैं सही नहीं हूं। शायद तुम्हारी कमी मुझे खत्म कर देगी। शायद मैं सबकुछ छोड़कर दूर भाग जाऊंगा। मां को मैं कहता हूं, वो समझती नहीं हैं। लेकिन, भरोसा रखना तुम, तुम्हारे बिना अब मेरे पास कुछ नहीं है। मैं जा रहा हूं विनीता हमेशा-हमेशा के लिए। बहुत दूर, तुमसे, तुम्हारी यादों से और तुम्हारे शहर से। मैं यह चिट्ठी लिखकर पल्लवी को भेज रहा हूं। आज की रात दिल्ली में मेरी आखिरी रात है। हमेशा खुश रहना तुम और ठीक से रहना। अब जाता हूं।”

रोहन

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रोहन ने मोबाइल से कैब बुक की और स्टेशन जाने के पहले नेहरू प्लेस का लोकेशन सेलेक्ट किया। कैब नेहरू प्लेस में पल्लवी के घर के आगे खड़ी थी। रात के करीब 12 बज चुके थे। हौसला करके रोहन ने कॉलवेल बजाया। पल्लवी की मां दरवाजा खोलती है… पीछे पल्लवी खड़ी है। रोहन ने पल्लवी को इशारे से बुलाकर चिट्ठी थमाया और बिना हाय-हैलो के दौड़कर कैब में बैठ जाता है। कैब स्टेशन की ओर बढ़ती जा रही है, पल्लवी दरवाजे पर ही चिट्ठी पढ़ने लगती है और रोहन बंद आंखों से दिल्ली को अलविदा कह देता है।

(क्रमश:)

 

अभिषेक मिश्रा
9334444050
9939044050
mishraabhishek504@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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