देशकाल

साहस और प्रमाण से अब भी दुनिया को बदला जा सकता है

 

इस्लामिक स्टेट की कुछेक कहानियाँ जो छन कर हम तक पहुँची हैं। उससे उनकी बर्बरता और क्रूरता का कुछ-कुछ अनुमान हम कर सके थे। लेकिन नादिया मुराद की इस्लामिक स्टेट की कैद में गुजारे दिनों के संस्मरण हिटलर की यातना शिविर की याद दिला देते हैं। आर्य नस्ल की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए हिटलर ने यहूदियों के साथ जो किया था। यहाँ इस्लामिक स्टेट को यजीदियों के साथ लगभग वैसा ही आचरण करता हुआ हम देखते हैं।

इस किताब को पढ़ने के बाद ही यजीदियों के बारे में जान सका। इससे पहले इस धर्म को मानने वाले समुदाय के बारे में जानकारी न के बराबर थी। यजीदी एक बहुत छोटी आबादी वाला समुदाय है जिसकी अपनी धार्मिक आस्था रही है और वह किसी भी सामी धर्म-परम्परा से अलग रही हैं। किसानों और चरवाहों का एक घूमन्तू समुदाय जो इराक के सिंजर इलाके के दक्षिण छोर पर कोचो नामक गांव में 1950 के आस-पास बस गया था। यह गैर-यजीदी इराक के बहुत नजदीक था। सुन्नी अरब और कुर्द दोनों इस अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी धार्मिक आस्था त्याग कर खुद में मिला देने को लालायित रहीं थीं। लेकिन वे अपनी धार्मिक आस्थाओं के साथ जीते आ रहे थे।

यद्यपि नादिया जिस कोचो गांव की निवासी है, वहाँ उसके जन्म तक तकरीबन 200 यजीदी परिवार घर बसा चुके थे। पूरे विश्व में इन यजीदियों की आबादी दस लाख से ज्यादा नहीं है। साल 2014 से पहले कोचो गांव में यजीदियों को नष्ट करने के लिए कुल तेईस बार हमले किये गये। इन हमलों में हुए नुकसान और हत्याओं के बाबत नादिया मुराद ने बाद में जाना कि जिसे उनका समुदाय हमला समझता आ रहा था, उसे आधुनिक विश्व की भाषा में नरसंहार कहते हैं। तो नरसंहार की कोशिशों के बीच यह एक समुदाय के जीवित रहने की कहानी है। इस किताब के ब्यौरे आपको विचलित कर सकते हैं। कैसे जब एक धर्म संगठित तौर पर किसी अल्पसंख्यक समुदाय को नष्ट करने पर आमादा हो जाता है तो उसके बुजुर्गों, मर्दों, बच्चों और स्त्रियों पर क्या गुजरती है? नस्लीय या धार्मिक हिंसा क्या होती है? नस्लीय या धार्मिक घृणा क्या होती है? इस किताब को पढ़कर उसे समझा तो जा ही सकता है। साथ ही इस्लामिक स्टेट की कार्यपद्धति से परिचित होने का मौका भी यह किताब उपलब्ध कराती है।From sex slave to Nobel Peace Laureate; Nadiya Murad recounts her story | The Last Girl review| Nadiya Murad| Nadiya Murad memoir| The Last Girl by Nadiya Murad

यह किताब बताती है मध्य पूर्व के देश किस धार्मिक और नस्लीय हिंसा की आग में भीतर ही भीतर सुलग रहे हैं। मध्य पूर्व देशों के आपसी अंतर्विरोधों को भी यह किताब रेखांकित करती है। शिया और सुन्नी के आपसी झगड़ों के बाबत भी इस किताब में संकेत सूत्र मौजूद है। लेकिन किताब के केन्द्र में यजीदी मूल की लड़कियाँ हैं, इस्लामिक स्टेट की धर्मान्तरण की शर्तें ना स्वीकार करने पर उनके द्वारा भोगी जानेवाली अमानवीय नहीं पाशविक यातनायें हैं। जिसे पढ़ते हुए सिहरन होती है। एकबारगी यकीन नहीं होता कि इसी दुनिया में ऐसी दुनिया भी है।

अपने परिवार का इतिहास बयान करते हुए नादिया यजीदियों के बाबत भी जरूरी सूचनायें यथाप्रसंग देते चलती है। जिससे यजीदी समुदाय के संघर्षों की एक तस्वीर भी उभरती है। इराक के जिस भूभाग में यजीदियों ने बसना स्वीकार किया था, वह लगभग दुर्गम प्रदेश था। जिसे अपने श्रम से उन्होंने रहने लायक, जीने लायक बनाया था। 1970 में जब सपाम हुसैन ने अल्पसंख्यकों को उनके गाँव से बाहर निकाल कर अलग-अलग बसा कर उनका नियंत्रित करना चाहा था। तब भी यजीदी सुदूरवर्ती और दुर्गम इलाके में होने के कारण अरबीकरण की इस प्रक्रिया से बच गये थे। यह बचा रहना कोई मामूली बात इसलिए नहीं थी क्योंकि स्वेच्छा से किया गया धर्मान्तरण शिक्षा, सुरक्षा और रोजगार के पैकेज के रूप में मौजूद था। लगातार सुविधाओं को दरकिनार कर अपनी धार्मिक आस्थाओं के साथ संघर्षपूर्ण जीवन जीना, इन यजीदियों ने स्वीकार किया था।

2003 के बाद यह पूरा भू-भाग अशांत हो उठता है। कोचो नामक इस गाँव के इर्द-गिर्द सीरिया, जार्डन, सऊदी अरब, ईरान और टर्की की सीमायें पड़ती हैं। अमेरिका के हस्तक्षेप ने इस भूभाग की पूरी राजनीति बदल कर रख दी थी। ऐसे में यजीदियों के सामने पहली बार बहुत कठिन हालात पैदा हो गये थे। लेकिन उनके पास कोई और जगह नहीं थी सिर छिपाने की। इसलिए वे तिल-तिल बदतर होते हालात में धँसते-फँसते चले गये। जिसकी बहुत भारी कीमत आगे चल कर उन्हें अदा करनी पड़ी।

किताब आंतरिक तौर पर तीन खण्डों में विभाजित है। सबसे दर्दनाक इसका दूसरा खण्ड है, जिसमें इस्लामिक स्टेट के काम करने के तौर तरीके दर्ज हैं। कैसे वह यजीदी अल्पसंख्यकों के साथ पेश आता है। यह हिस्सा हिटलर के यातनाशिविर की याद दिलाता है। बस एक प्रसंग रख रहा हूँ। उन्होंने सबको कतार में खड़ा किया और फिर सबको नीचे खुदे गड्ढे में उतरने को कहा और उनकी बगल के बाल देखे। जिनकी बगल में बाल नहीं थे, उन्हें वापस ट्रक में भेज दिया। बाकी सबको उन्होंने गोली मार दी।यह किशोर और बालकों के साथ पेश आने का उनका तरीका थी। नौजवानों और बूढ़ों के साथ वे क्या कर रहे थे। अलग-अलग उम्र की स्त्रियों और बच्चियों के साथ उनका आचरण कैसा था?The Inspiring Story Of Nobel Peace Prize 2018 Winner Nadia Murad

इसके लिए आपको किताब पढ़नी होगी। किशोरियों को वे धर्मान्तरण के लिए पूछते थे। इनकार किये जाने पर वे उन्हें सबायामें तब्दील कर देते थे। सबायामतलब कम उम्र की लड़कियाँ, जिन्हें वे यौन-शोषण के लिए खरीदते और बेचते थे। दिलचस्प यह है कि इस्लामिक स्टेट सबायाबनाये जाने को कुरानसम्मत बताता था। नादिया मुराद अपनी बहनों और परिचित समेत सबायाबना दी जाती है। किताब उसके बाद के उसके अनुभवों का संस्मरण है। उस अनुभव से निकल भागने की कहानी है। वहाँ से निकल कर अपनी कहानी दुनिया को बयान करने की कहानी है किताब में। बताता चलूँ कि नादिया की आपबीती से ही दुनिया को इस्लामिक स्टेट की इन करतूतों का पता चला कि आईएसआईएस के पास एक शोध और फतवा विभाग है, जिसके द्वारा जारी किये गये पर्चों का अनुपालन प्रत्येक आईएसआईएस का सदस्य करता है। उनके द्वारा जारी एक पर्चे में सबाया की पूरी योजना का विवरण है।

बलात्कार को इतिहास में युद्ध के एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह किताब उस बात को नये सिरे से हमें याद दिलाती है। नादिया जिन दर्दनाक अनुभवों से निकलकर अपनी कहानी सुनाती है, उसके लिए हिम्मत या हौसला जैसे शब्द नाकाफी है। नादिया की यह निजी त्रासदी किस ढंग से एक अंतर्राष्ट्रीय मामला हो जाता है, कैसे उसकी यातना और अनुभव का इस्तेमाल अपने राष्ट्रीय हितों के लिए किया जाता है, यह भी इस किताब का एक पहलू है।

यह एक ऐसी किशोरी की कहानी है जिसके छह भाइयों समेत माँ की हत्या कर दी गयी है, बचे हुए भाई और परिवार के लोग बिखर चुके हैं। इस दौरान लगातार बलात्कार ने उसे शारीरिक और मानसिक स्तर पर तोड़ दिया है। फिर भी वह अपनी राख से उठ खड़ी होती है। और अपनी कहानी बार-बार सुनाती है केवल इसलिए कि उसे लगता है कि मैं जब भी किसी को अपनी कहानी सुनाती हूँ, तो मुझे लगता है कि मैंने आतंकियों से उनकी ताकत छीन ली है।नादिया के अनुभवों पर एलेक्जैंड्रिया बाम्बख ने ऑन हर शोल्डर्सनामक फिल्म बनाई है। नादिया नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजी गयी हैं और संयुक्त राष्ट्र के डिग्निटी ऑफ सरवाइवर्स ऑफ ह्यूमन ट्रैफेकिंगकी पहली गुडविल एंबेसेडर भी हैं। यह किताब आप को एक साथ भीतर से हिला देने का सामथ्र्य रखती है और हौसला देने का भी।

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राहुल सिंह

लेखक हिन्दी के युवा आलोचक हैं। सम्पर्क +919308990184 alochakrahul@gmail.com
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