पूरे प्रदेश के लिए प्रेरणास्रोत हैं: थारू समाज
बिहार उन राज्यों में से एक है। जहाँ पर आम लोगों में लोक कला व संस्कृति को समृद्ध बनाए रखने की परम्परा चली आ रही है। भारत और नेपाल के सीमावर्ती तराई भागों में पाई जाने वाली एकमात्र थारू जनजाति जो अपनी समाज में दहेज जैसी कुप्रथा को आज भी फैलने नहीं दिया है। थारू समाज में स्त्री को बराबरी ही नहीं बल्कि पुरुष पर वरीयता दी जाती है। जहाँ एक ओर पढ़ा लिखा समाज दहेज को बढ़ावा दे रहा है। वही दहेज की रकम पूरा नहीं चुका पाने के कारण नवविवाहिता वधू को जिंदा जलाने के साथ हत्या तक कर दी जाती है। जिसकी खबर अखबार व टीवी समाचार में छाए हुए रहता है। लेकिन आज भी प्रकृति के सबसे करीब माने जाने वाला थारू जनजाति दहेज को स्वीकार नहीं करता है। जो इन दिनों राज्य में शांति व सादगी की मिसाल पेश कर रहा है।
कौन है थारू समाज
थारू शब्द प्राय: “ठहरे”, “तरहुवा”, “ठिठुरवा” तथा “अठवारू” आदि शब्दों से आया है जिसका अर्थ स्थानीय भाषा में जंगल माना गया है। यानी जंगल में रहने वाली जाति थारू कहलाती हैं। थारू जनजाति को लेकर अलग-अलग विद्वानों में अब भी मतभेद है। लेकिन भारत-नेपाल के तराई भागों में पाए जाने वाले थारू स्वयं को राजस्थान के राजपूत वंशीय मानते हैं। बाह्य शक्ल से दिखने में थारू चपटा नाक वाला व सपाट मुख वाला होता है।
यह बिल्कुल मंगोलियन की तरह दिखता है। बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के रामनगर, बगहा, हरनाटांड़ आदि स्थानों पर पाए जाने वाले थारू जनजाति हैं। जिसके अन्तर्गत लगभग 215 गाँव आते हैं। जिसमें 2 लाख 57 हजार की आबादी निवास करती है। यह नेपाल के तराई भागों से अलावा उत्तराखण्ड के नैनीताल और उधम सिंह नगर में भी पाए जाते हैं। यह परम्परागत हिन्दू धर्म को मानते हैं। और देवी-देवताओं की पूजा पाठ करते हैं।
थारूओं की भाषा और संस्कृति
इनका मुख्य निवास स्थान जलोढ़ मिट्टी वाला हिमालय का उपपर्वतीय भाग तथा सीमावर्ती तराई प्रदेश है। ‘भारतीय-इरानी समूह’ के अन्तर्गत आने वाली भारतीय आर्य उप समूह की भाषा है। लेकिन अब भोजपुरी भाषा भी बोलने और समझने लगे हैं। आय का मुख्य साधन कृषि, पशुपालन, आखेट, वनोपज संग्रह और मछली पालन है। जबकि महिलाएँ हस्तकरघा से लेकर, टोकरी, चटाई आदि बिनकर स्वयं को आत्म स्वावलम्बी भी बनी है। स्थानीय स्तर पर न्यायिक मामलों को सुलझाने के लिए ‘गुमास्ता’ की सहमति होना आवश्यक है।
बिना दहेज वाली विवाह परम्परा
सामान्य वर्ग में दहेज वाली विवाह दिनों दिन बढ़ते ही जा रहा है तो वही थारू समाज में दहेज जैसी कुप्रथा की भनक तक नहीं है। इस समाज में बेटी होने पर परिवार के लोग खुशियाँ मनाते हैं। नाचते और गाते भी हैं। बल्कि बेटियों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भी भेजते हैं। जिनमें कई पढ़-लिख कर अच्छे ओहदे पर है। कई बेटियाँ खेती बारी में भी पिता का हाथ बंटाती है। इसके साथ ही कई बेटियाँ बिहार स्वाभिमान बटालियन में नौकरी कर अपनी समाज का नाम रौशन कर रही है।
वर पक्ष रखता है शादी का प्रस्ताव
थारू समाज के लोग विवाह का प्रस्ताव लेकर कन्या पक्ष के घर जाते हैं। जिसमें शादी के लिए कन्या की राय जानी जाती हैं। यदि वह शादी के लिए सहमत होती है तो बात आगे बढ़ती है। वधू पक्ष इस शादी के लिए कुछ शर्तों को रखता है जिन्हें वर पक्ष को मानना पड़ता है। वर पक्ष द्वारा इन शर्तों को मानने पर शादी तय हो जाती है। इसके बाद विवाह सम्पन्न कराने की जिम्मेदारी लड़के और लड़की के पिता की न होकर गजुआ और गजुआइन अर्थात बहनोई व बहन की हो जाती है। लड़की-लड़का पसन्द आने के बाद दोनों पक्ष एक-दूसरे को शगुन के तौर पर एक धोती में एक रूपए का सिक्का गाँठ बाँध कर देते हैं। शादी के दिन वर पक्ष से दुल्हन के लिए एक सेट कपड़ा भेंट स्वरूप दिया जाता है। शादी के दिन बरात निकलने से पहले वर पक्ष बहन-बहनोई के साथ अपने गाँव के ब्रह्मस्थान जाकर पूजा-अर्चना करता हैं।
दहेज निषेध से रिस्ता में प्रगाढ़ता
थारू समाज का मानना है कि शादी की खर्च दोनों परिवार (वर पक्ष और वधू पक्ष) को मिलकर उठाने चाहिये। इससे किसी भी परिवार पर ज्यादा आर्थिक क्षति नहीं पहुंचता है। जिसके कारण भ्रूण हत्या, बाल विवाह की समस्या भी नहीं होती है और रिश्ते की प्रगाढ़ता भी बनी रहती है। थारू समाज में शादी एवं अन्य मांगलिक कार्यक्रम की रस्मों को पूरा करने के लिए भर्रा को बुलाया जाता है। थारू समाज में कुछ लोगों को ‘भर्रा की उपाधि’ दी जाती है। जहाँ एक ओर हमारा समाज दहेज के पीछे भाग रहा है वहीं थारू समाज प्रकृति के बनाए स्त्री-पुरूष को समानता की नजरों से देखता है। जो हमारे समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।